योगसाधना में आरुढ़ महाराज भर्तृहरि से किसी ने पूछा, “साधू-सन्त वन में विचरण करते हैं। उनके पास माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी- पुत्र आदि कोई भी परिवारीजन नहीं रहते। उन उनके पास रहने को मकान होता है, न सोने को शय्या और न ही खाने को भोजन। तब वे कैसे जंगल में रहते हैं? यज्ञ में हिंसक जानवरों के बीच में वे कैसे निर्भयता से आत्मसाधना करते हैं?
भर्तृहरि ने उत्तर दिया-
धैर्य यस्य पिता, दामा च जननी, शान्तिश्चिरं गेहिनी। सत्यं सूनुस्य, दया च भगिनी, भ्राता मनः संयमः॥ शय्या भूमितलं, दिशाऽपि वसनं, ज्ञानमृतं भोजनं। एते यस्यं कुटुम्बिनो वद सखे कस्माद् भयं योगिनः।
अर्थात्-वन में आत्मसाधना करने वाले जिस साधु-संत के पास धैर्य रूपी पिता, क्षमा रूपी माता, शान्ति रूपी गृहिणी, सत्य रूपी पुत्र, दया रूपी बहिन, संयम रूपी भाई रहता है। पृथ्वी जिसकी शय्या है, दिशाएँ जिसके वस्त्र हैं, ज्ञानामृत (स्वाध्याय) जिसका भोजन है। इतना विशाल परिवार जिसके पास सदा रहता है, ऐसे योगी को भला किससे भय होगा? वह तो निर्भरतापूर्वक सदा ही आत्मसाधना में रत रहता है। संसार के समस्त प्राणी उसके अपने स्वजन हैं।