सत्कर्मों का दीपक (Kahani)

January 1998

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उड़ीसा के दीवान कृष्णचन्द्र सिंह बड़े आलसी थे। उनके जीवन का लक्ष्य मात्र इन्द्रिय-सुख में लिप्त रहना था। एक बार उनकी पत्नी ने कहा भी- “आप अपना सारा पुण्य इस जन्म में ही समाप्त कर देंगे या अगले जन्म के लिए भी कुछ एकत्रित करेंगे।”

पत्नी की बात को कृष्णचन्द्र सिंह ऐसे ही हँसकर टाल दिया करते थे। परन्तु एक घटना ने उनके मर्म पर गहरी चोट की। एक बार जब वह जेगल के रास्ते से गुजर रहे थे। रास्ते में किसी गरीब की कुटिया थी। लड़की चारपाई पर पड़े हुए अपने रोगी पिता से कह रही थी-”बाबूजी, रात घिर आयी, आपने अभी तक दीपक नहीं जलाया?”

वृद्ध ने उत्तर दिया- “बेटी! जीवन की रात्रि भी निकट है। यदि मैंने सत्कर्मों की दीपक जलाया होता, समय रहते अपने जीवन का सदुपयोग किया होता, तो आज मेरी यह स्थिति न होती। मैंने तो अपने जीवन को भोग-विलास में व्यर्थ गँवा दिया है।”

कृष्णचन्द्र ने वृद्ध में अपने भविष्य का प्रतिबिम्ब पाया। इस घटना ने उनके समूचे जीवन को ही बदल दिया। उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति दीन-दुखियों और असहायों को दान दी और स्वयं तपोवन में जाकर तपस्या करने लगे।


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