अमृतपर्व कुम्भ और इसकी गौरव-गरिमा

January 1998

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वर्ष 1998 का आगमन भारतीय इतिहास में कोई नए वैशिष्ट्य जोड़ने के लिए हुआ है। इनमें से सर्वप्रमुख है, पुण्यभूमि हरिद्वार में गंगातट पर इसी वर्ष की बसन्त पंचमी से शताब्दी एवं सहस्राब्दी के अन्तिम महाकुम्भपर्व का आयोजन। आध्यात्मिक चेतना से जुड़ा यह महापर्व अपने देश की सामाजिक, सांस्कृतिक अवधारणाओं का मूर्त रूप है। यह प्राचीनतम लोकपर्व राष्ट्र के समन्वयात्मक साँस्कृतिक जीवन का व्यावहारिक आधार है। इस पर्व से राष्ट्रीयता का भाव सुदृढ़ होता है। अमृतपर्व कुम्भ वसुधैव कुटुम्बकम् के विचारपक्ष के अग्रसर करता हुआ आत्मवत् सर्वभूतेषु में तदाकार हो जाता है। चिरपुरातन से ही इसकी गौरव-गरिमा अक्षुण्य है। इसकी ठीक-ठीक शुरुआत का अनुमान लगाना कठिन है। आर्षसाहित्य के मर्मज्ञों एवं इतिहास विशेषज्ञों के इस विषय पर अलग-अलग मत है। श्रीमद्भागवत पुराण के सागर मन्थन प्रसंग में कुम्भ का उल्लेख मिलता है। इस विवरण के अनुसार सागर के चौदह रत्न निकले। ये थे-कालकूट विष, कामधेनु, कल्पवृक्ष, कौस्तुभमणि, उच्चैः श्रवा अश्व, ऐरावत गज, रम्भा अप्सरा, सुरा लक्ष्मी, चन्द्रमा, शार्गंधनुष, धन्वन्तरि, पाँचजन्य शंख एवं अमृत कुम्भ। जनकल्याणार्थ भगवान सदाशिव कालकूट स्वयं पी गये। विश्वमोहनी बने भगवान विष्णु ने अमृत देवताओं को पिला दिया। हालाँकि यहाँ पुराणों में मतान्तर मिलता है। वामन पुराण के विवरण के अनुसार, आचार्य बृहस्पति का संकेत पाकर इन्द्र का पुत्र जयन्त अमृत कुंभी लेकर भाग गया। मोहान्ध दैत्यगणों ने उसका पीछा किया। फिर लगातार बारह वर्षों तक दैत्यों और देवताओं के बीच घनघोर युद्ध चला। युद्ध के समय जयन्त के हाथों पकड़े अमृतकुम्भ से त्रिलोक के बारह स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरी थीं। इनमें से आठ स्थान देवलोक और चार स्थान पृथ्वीलोक में अवस्थित हैं। पृथ्वी के ये चार स्थान हैं। हरिद्वार, प्रयाग उज्जैन और नासिक। पुराणों में वर्णित एक अन्य कथा के अनुसार, पक्षिराज गरुड़ अपनी माता विनिता को सर्पों की माता कद्रू की कैद से छुड़ाने के लिए शर्त के अनुसार स्वर्ग से अमृतकुम्भ लाए थे। उन्होंने सर्पों को अमृतकुम्भ सौंपकर अपनी माता को मुक्ता कराया, परन्तु सर्प इसे पी पाएँ इन्द्र इसके पहले ही वापस ले गये। इसी समय कुम्भ से अमृत की चार बूंदें पृथ्वी के चार स्थानों पर गिर गयीं। कालान्तर में इन्हीं चार स्थानों को कुम्भ पर्व के आयोजन के लिए पवित्र माना गया। वायु पुराण और नारदीय पुराण में सरस्वती नदी के तट पर स्थित कुम्भ और श्री कुंभ तीर्थ का वर्णन किया गया। वेदों की कई ऋचाओं में कुम्भ, घट एवं कलश के संदर्भ में अनेकों आख्यान मिलते हैं। ऋग्वेद और अथर्ववेद में घृत और मधुपूरित कुम्भ का उल्लेख मिलता है। कालिदास ने ‘काँचन कुम्भ तीर्थ’ कहकर कुम्भपर्व की प्राचीनता एवं महत्ता प्रतिपादित की है।

अथर्ववेद के एक मन्त्र में कुम्भ के गुह्य अर्थ का प्रतिवादन हुआ है-

पूर्णः कुम्भोधि काल आहितस्तं वै पश्यामों बहुधा नु सन्तः। स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यड़् कालं तमाहुः परमे व्योमन्।

अर्थात् एक कुम्भ काल के ऊपर भरा रखा है। हम उस घड़े को विविध दृष्टियों से देखते हैं। वह घट सभी सत्तावलों के सम्मुख चलता है। उस काल को बुद्धिमान लोग अति ऊँचे सुरक्षित स्थान में बताते हैं। ऋग्वेद की एक ऋचा के अनुसार, इन्द्र अपने बल से नवघट की तरह मेघों का भेदन करता है। यहाँ इन्द्र को सूर्य या विद्युतरूप में व्यंजित किया गया है। इसका आशय यह है कि शरीररूपी घट में आत्मारूपी अमृततत्व विद्यमान रहता है, परन्तु इसे असद्भाव, लोभादि वृत्तियाँ आच्छादित किये रहती हैं। इसकी कारण मानव अमृतत्व पाने से वंचित रहता है। किन्तु विचारवान एवं विवेकी पुरुष शरीर रूपी घट में निहित ब्रह्मतत्व का साक्षात्कार नारायण रूपी महासागर में व्याप्त अमृततत्व से करते रहते हैं। सन्त कबीर ने ठीक इसी तरह कहा-

जल में कुम्भ-कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी। फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, संतो यह अकथ कहानी॥

इतिहास विशेषज्ञों ने कुम्भ पर्व की प्राचीनता अनेकों स्थानों पर प्रमाणित की है। चीनी यात्री ह्वेनसाँग के यात्रा विवरण के अनुसार सम्राट हर्षवर्धन 644 ई. के माघ मास में प्रयाग में होने वाली पंचवर्षीय धर्म महासभा में भाग लिया था। इतिहासकारों का मानना है कि यही अर्द्धकुंभ का अवसर था, जिसमें सम्राट हर्षवर्धन ने अपना सर्वस्व दान कर दिया। अनेक साँस्कृतिक विद्वानों के अनुसार, नवीं सदी में आदिगुरु शंकराचार्य ने हिन्दू संस्कृति की नींव को सुदृढ़ करने और लोग-कल्याण की दृष्टि से कुम्भ का प्रचलन प्रारम्भ किया था। भगवान शंकराचार्य पुरी, द्वारका, श्रृंगेरी एवं ज्योतिष्पीठ के रूप में चार मठों की स्थापना करने के पश्चात उनके संचालन एवं परिचालन हेतु अपने उत्तराधिकारियों को नियुक्त किया। साि ही उन्होंने उन सभी को निर्देश दिया कि एक निश्चित अवधि के उपरान्त वे आपस में मिलने तथा विचार-विमर्श के लिए एकत्रित हों। अतः कई इतिहासवेत्ताओं का कहना है कि इस आवश्यकता के अनुरूप कुम्भ पर्व प्रासंगिक हुआ तथा विचार-विनिमय का माध्यम बना। लिपिबद्ध प्रमाणों के अनुसार, कुम्भ पर्व इतिहास के मध्यकाल में अपने पूर्ण विकसित रूप में था। इतिहासकार जदुनाथ सरकार के नअसुर सन् 1234 ई. में नागा संन्यासियों ने जो निर्णायक विजय प्राप्त की थी, वह कुम्भ के अवसर पर थी। 17 वीं शताब्दी के फारसी के धार्मिक ग्रन्थ ‘ द बिस्तान ए मुजाहिब’ भी 1640 ई. में हुए एक भीषण युद्ध का वर्ण है- जो कुम्भ के अवसर पर ही हुआ था। एशियाटिक रिसर्चेज के छठवें खण्ड में कैप्टन टामस हॉर्डविक ने भी सन् 1796 में आयोजित हुए हरिद्वार के कुम्भ मेले का जिक्र किया है। पहले भी ऐतिहासिक दस्तावेज में सन् 1398 में हरिद्वार के कुम्भ मेले का विवरण मिलता है, जिसमें विदेशी आक्रान्ता तैमूर लंग लंग ने भारी लूट-पाट की थी। प्रयाग में कुम्भ महापर्व का उल्लेख चैतन्य महाप्रभु के जीवनवृत्त से ज्ञात होता है। इतिहासकारों के अनुसार 1514 ई. में चैतन्य महाप्रभु स्वयं प्रयोग के कुम्भ मेले में उपस्थिति हुए थे। 14 वीं शताब्दी के सरस्वती गंगाधर की मराठी पुस्तक गुरुचरित्र में नासिक में आयोजित होने वाले कुम्भ मेले का विस्तृत विवरण मिलता है। नासिक से ही प्राप्त एक ताम्रपत्र में नासिक में आयोजित होने वाले कुम्भ महापर्व का विवरण प्राप्त होता है। मध्यकालीन इतिहास के विशेषज्ञ बताते हैं कि अकबर बादशाह ने कुम्भ के महोत्सव पर तीर्थयात्रियों पर लगने वाले।

जजिया कर को सन् 1564 में उठा लिया था। उन दिनों भारत के विभिन्न क्षेत्रों से लाखों की संख्या में धर्मप्रिय जनता हरिद्वार प्रयाग, उज्जैन एवं नासिक में आयोजित होने वाले कुम्भ मेलों में भाग लेती थी। बाद के समय औरंगजेब ने हरिद्वार में पड़ने वाले महाकुम्भ पर्वों पर आने एवं आयोजन सम्मिलित होने का उल्लेख मिलता है। जगद्गुरु शंकराचार्य एवं समर्थगुरु रामदास के कुम्भ पर्व में सम्मिलित होने के बारे इतिहासकार साँकेतिक विवरण देते हैं। सन् 1678 ई. में हरिद्वार महाकुम्भ पर्व पर प्रणामी संत महामति प्रणानार्थ पधारे थे। यहीं पर उन्होंने विद्वानों से शास्त्रार्थ करके निष्कलंक बुद्ध की पदवी प्राप्त की थी। आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानंद ने हरिद्वार महाकुम्भ के अवसर पर ही पाखण्ड खण्डिनी पताका फहराई थी। सन् 1915 में हरिद्वार के महाकुम्भ के अवसर पर महात्मागाँधी जी भी स्वामी श्रद्धानन्द के साथ सम्मिलित हुए थे। देशभक्तों के साथ सम्मिलित हुए थे। देशभक्तों के महामिलन का यह अनोखा अवसर था। इसी अवसर इतिहास की धारा को मोड़ने वाले अनेकों विचार पुष्पित -पल्लवित हुए। ज्योतिषीय परम्पराओं में कुम्भ पर्व को कुम्भ राशि और कुम्भ योग से जोड़ा गया है। कुम्भ योग चार प्रकार का होता है। विष्णु योग के अनुसार जब बृहस्पति कुम्भ राशि में होता है और सूर्य मेष राशि में प्रविष्ट होता है तो कुम्भ पर्व हरिद्वार में लगता है। जब बृहस्पति मेष राशि चक्र में प्रवेश करता है। और सूर्य तथा चन्द्रमा मकर राशि में, माघ अमावस्या के दिन होते हैं तो कुम्भ का आयोजन प्रयाग में किया जाता है। सूर्य एवं बृहस्पति सिंह राशि में प्रकट होने पर कुम्भ पर्व नासिक में गोदावरी तट पर लगता है। बृहस्पति कुम्भ राशि में होने पर उज्जयिनी में कुम्भ का आयोजन होता है। इस प्रकार हरिद्वार में कुम्भ पर्व की महत्ता सर्वाधिक है, क्योंकि बृहस्पति के कुम्भ राशि में होने का सब यहीं के आयोजन के प्राप्त है। 1615 ई. में रचित सलासतुत तवरिस में भी इसी तरह का उल्लेख है। इस विवरण के अनुसार 12 वें वर्ष जब बृहस्पति कुम्भ राशि में प्रविष्ट होता है और सूर्य मेष राशि में तब भारी संख्या में लोग हरिद्वार में इकट्ठे होकर पवित्र धार्मिक स्नान करते हैं और तत्वज्ञानियों से ज्ञानमृत का पान करते हैं। कुम्भ पर्व अपने चरित्र और उद्भव में गंगानदी से भावपूर्ण सम्बद्ध है। गंगा परब्रह्म की प्रतिनिधि है। तत्वदर्शी उसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश की समष्टिरूपा कहते हैं। भारतीय संस्कृत गंगाजल को देवत्व और शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करती है। गंगाजल अमरत्व का कोव है, तो कुम्भ अमृत पर्व है। वस्तुतः वे चार स्थान जहाँ पौराणिक आख्यानों के अनुसार, अमृत कुम्भ से अमृत की बूंदें गिरी थीं, मूल रूप से सुरसरिता गंगा से ही जुड़े हुए हैं। हरिद्वार एवं प्रयोग गंगा का नाम गौतमी व गोदावरी पड़ा। इसी प्रकार का मत उज्जैन में क्षिप्रा नहीं के विषय में भी है। क्षिप्रा नदी उत्तर प्रवाह के कारण पवित्र हो जाती है। स्कन्दपुराण के एक विवरण के अनुसार क्षिप्रा उस स्थान से पूर्व वाहिनी हो जाती है, जहाँ वह ए बार गंगा द्वारा आलिंगन बद्ध हुई थी। इस तरह कुम्भ तमाम रूपों से किसी न किसी प्रकार गंगा से सम्बन्धित मिलता है। गंगाद्वार होने के कारण हरिद्वार के महाकुम्भ पर्व का वैशिष्ट्य अपने ढंग का और अनोखा है। इस नदी का अन्तिम महाकुम्भ गंगा की गोद में एवं हिमालय की छाया में अवस्थित तीर्थनगरी हरिद्वार में सम्पन्न हो रहा है। पुराणों में हरिद्वार का गंगाद्वार, हिम प्रदेश और मायापुरी के नाम से उल्लेख किया गया है। यह मायापुरी, अयोध्या, मथुरा, काशी, काँची, पुरी एवं अवन्तिका आदि छह अन्य पवित्र पुरियों से श्रेष्ठ एवं पवित्रतम मानी गयी है। पौराणिक कथा गाओ के अनुसार हरिद्वार लोकप्रसिद्ध महर्षियों की तपस्थली है। कहा गया कि कश्यप, अत्रि वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, भारद्वाज आदि सप्तऋषि यहीं तप करते थे। वायुपुराण के अनुसार गंगा ने सप्तऋषियों को तप करते देखा और असमंजस में पड़ीं कि उन्हें कष्ट देने से कैसे बचा जाय? अन्ततः गंगा सात धाराओं में विभक्त हो गयीं। इसलिए इसे सप्तऋषि क्षेत्र भी कहा जाता है, जिसका गौरव अद्यावधि अक्षुण्ण है। महायोगी गोरखनाथ का भी हरिद्वार में उग्र तप करने का उल्लेख मिलता है। वैराग्य शतक के रचनाकार योगीभर्तृहरि ने भी यही कठोर तप-साधना सम्पन्न की थी। भगवान दत्तात्रेय ने भी इसी स्थान पर तप और योग की अलौकिक साधनाएँ पूरी कीं। आधुनिक युग में तप और अध्यात्मिक साधनाओं की गौरवपूर्ण परम्पराओं का पुनर्जागरण युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव ने शांतिकुंज की स्थापना के साथ प्रारम्भ किया। वे स्वयं परमवंदनीय माताजी के साथ युगान्तरीय तपस्या में प्रवृत्त हुए। उनके इस अलौकिक प्रयास से ही शांतिकुंज ने युगतीर्थ एवं इक्कीसवीं सदी की गंगोत्री की महिमा प्राप्त की। बसन्त पंचमी यानि 1 फरवरी, 1998 महाकुम्भ के विशेष स्नान पर्व में से प्रथम स्नान पर्व है। परमपूज्य गुरुदेव के अध्यात्मिक जन्मदिन होने के कारण इस स्नान का महत्व शतगुणित हो जाता है। अन्य स्नान पर्व भी क्रमशः (2) 11 फरवरी 98 माघ पूर्णिमा, (3) 25 फरवरी, 98 महाशिवरात्रि (4) 28 मार्च, 97 चैत्र अमावस्या (5) 28 मार्च, 98 चैत्र प्रतिपदा नवसम्वत्सर (6) 5 अप्रैल, 98 रामनवमी (7) 13 अप्रैल, 98 वैशाखी (8) 14 अप्रैल, 98 कुम्भपर्व पुण्यकाल (9) 26 अप्रैल, 98 वैशाख अमावस्या (10) 29 अप्रैल, 98 अक्षय तृतीया (11) 11 मई, 98 वैशाख पूर्णिमा (12) 14 मई, 98 वृष संक्रान्ति को होंगे। इनमें से हर एक का अपना विशिष्ट महत्व है।

शास्त्रकारों ने इसकी महत्ता प्रतिपादित करते हुए लिखा है-

सहस्रंकीर्तिके स्नानं माघे स्नानिशतानि च। वैशाखनमैदा कोटि कुम्भस्नानेन तत्फलम्॥

यानि कि कार्तिक मास के एक हजार स्नान माघ मास के सौ स्नान वैशाख एक स्नान के फल के बराबर होता है। एक अन्य स्नान पर कहा गया है-

अश्वमेघ सहस्राणि वाजपेयशतानि च। लक्षं प्रदक्षिणा भूमेः कुम्भ स्नानेन तत्फलम्॥

अर्थात् एक हजार अश्वमेध यज्ञ सौ वाजपेय यज्ञ तथा एक लाख बार धरती की परिक्रमा करने से जो पुण्यफल होता है। वह कुम्भ स्नान करने से हो जाता है। युगऋषि की हरिद्वार स्थित तप-स्थली शांतिकुंज का दर्शन, उनके विचारों के हृदयस्पर्शी उद्बोधन आने वाले तीर्थ-यात्रियों को इस बार वर्तमान महाकुम्भ पर्व सार्थक पुण्यफल दे सकेंगे। इसी दृष्टि से इन दिनों विशेष तीर्थसत्रों की व्यवस्था की गयी है। इनमें सम्मिलित होकर जन-जीवन यह अनुभव कर सकेगा कि यह लोकपर्व किस तरह मरणशील मानव को मृत्योर्माऽमृतंगमय की ओर अग्रसर करता है।


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