अपनों से अपनी बात - अब युग-परिवर्तन की घड़ी अति निकट आ पहुँची

January 1998

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वसन्त पर्व, जो हमारी गुरुसत्ता के आध्यात्मिक जन्मदिवस एवं मिशन के वार्षिकोत्सव के रूप में विगत 72 वर्षों से मनाया जाता रहा है, अब अतिनिकट आ गया। यों तो वह फरवरी माह की पहली तारीख को पड़ रहा है, किंतु पत्रिका जब तक परिजनों के पास पहुँचेगी इसकी तैयारी सब ओर आरंभ हो चुकी होगी। हर वर्ष की तरह इसे भावभरी श्रद्धा और उत्साह-आवेश युक्त तत्परता के साथ मनाया जाना चाहिए। अपने विराट परिवार, अखिल विश्वगायत्री परिवार का यह सबसे बड़ा त्योहार है, इसीलिए समारोहों, आयोजनों की दृष्टि से उसे सर्वोपरि स्थान दिया जाता रहा है। विगत गुरुपर्व से आयोजित सात पर्वों की श्रृंखला में श्रद्धा-समर्पण पर्यावरण-स्वास्थ्य, साधना, शक्ति-संवर्धन, सद्ज्ञान, सद्शिक्षा, संस्कृति, नारी-जागरण तथा स्वावलम्बन-युवा शक्ति जागरण-ये छह विराट समारोह क्रमशः गुरुपूर्णिमा से मार्गशीर्ष पूर्णिमा तक बड़ी सफलता के साथ सम्पन्न हो चुके है। प्रत्येक की अपनी उपलब्धियाँ रही हैं जो समय-समय पर पाठक-परिजन “अखण्ड-ज्योति” मासिक एवं “प्रज्ञा अभियान” पाक्षिक में पढ़ते रहे हैं। अब सातवाँ समारो पौष पूर्णिमा पर न होकर हेमन्त की ठिठुरन की समापन बेला में महाकुँभ के साथ वसंत पंचमी की पावन वेला में हो रहा है। भारतीय संस्कृति कैसे विराट व्यापक रूप लेकर विश्व-संस्कृति बनने जा रही है तथा भारत भर में विभिन्न भाषाओं में पूज्यवर के साहित्य के अनुवाद तथा ऑडियो कैसेट्स का ज्ञानयज्ञ का विस्तार किस विराट रूप में सम्पन्न होने जा रहा है, उसकी झलक-झाँकी इस वसंत से परिजन देख सकेंगे।

यह भलीभाँति जान व समझ लेने चाहिए कि जिस आराध्यसत्ता से हम जुड़े हैं, उसका अवतरण युगपरिवर्तन के निमित्त ही हुआ था वह अभी भी सूक्ष्म व कारण शरीर से वह वही कार्य सम्पन्न कर रही है। गुरु एक जिन्दा शास्त्र के रूप में निरूपित किया गया है। किसी का विद्वान-वक्ता-लेखक-साहित्यकार आवर्डविनर बनना सरल है, पर सद्गुरु बनना सबसे कठिन है। एक ऐसे गुरु में हमें पूज्यवर मिले, जिनने प्राणचेतना की घनीभूत स्थलियों के रूप में आँवलखेड़ा रूपी युग-तीर्थ, गायत्री-तपोभूमि के रूप में अपनी शक्ति से अभिपूरित कर्म भूमि तथा शाँतिकुँज गायत्रीतीर्थ के रूप में एक सुसंस्कारित सिद्धपीठ स्थापित किए। ऐसा तंत्र भी बना दिया कि तीनों ही तीर्थसाधना की पृष्ठभूमि पर उनके द्वारा निर्दिष्ट निर्धारणों के अनुरूप सतत् चलते रहें। पूर्ण पुरुष की यदि कोई अवधारणा किसी के मन में हो सकती है तो उसे साक्षात परमपूज्य गुरुदेव के रूप में उनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व के रूप देखा जा सकता है। जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द स्वयं को “कन्डेन्स्ठ इण्डिया” घनीभूत संवेदनसिक्त भारत भूमि का पर्याय मानते थे, ठीक उसी प्रकार हम 1911 में जन्मी हमारी गुरुसत्ता को भारत की जीती-जागती रक्तमाँस की प्रतिमा मान सकते हैं, जिनके मन में राष्ट्र के नवोन्मेष के प्रति टीस थी- भारत को पुनः हिंदुत्व के मूल आधारों पर प्रतिष्ठित कर श्रेष्ठतम ऊँचाई तक पहुँचाने की वेदना थी एवं इसी के निमित्त उनके जीवन का हर पल जिया गया। दृष्टिकोण के परिष्कार से समस्याओं का समाधान तथा प्रत्येक व्यक्ति का स्वयं के लिए नहीं- समाज व राष्ट्र के प्रति समर्पित होकर जीना-यही उनके जीवन का मूल शिक्षण रहा। आज झंझावातों में घिरे मानव समुदाय को-नेतृत्वहीन समाज को आस्था संकट से ग्रसित मानवता को यदि कहीं से कोई आशा दिखाई पड़ती है, तो वह गायत्री परिवार से परमपूज्य गुरुदेव के निर्धारणों में से मिलती दिखाई देती है। युगसंधि की इस वेला में कैसे उच्चस्तरीय चिन्तन बनाए रखा जा सकता है, यह राह उन्हीं ने हमें दिखाई एवं 1995 से 2000 तक के समय को अत्यधिक महत्वपूर्ण बताते हुए साधनात्मक पुरुषार्थ को तीव्रतम नियोजित करने की प्रेरणा दी। इस संकट की घड़ी में उच्चस्तरीय चिन्तन ही हम सब को वरण करना चाहिए, ताकि हम गुरुसत्ता द्वारा सूक्ष्म व कारण जगत से भेजी जा रही आध्यात्मिक प्रेरणाओं को ग्रहण कर सकें

यही संदेश लेकर 1998 का यह वसन्त आया है। वसंत पर्व ज्ञान की देवी भगवती सरस्वती का जन्मदिन है। कहा जाता है कि सृष्टि के आदिकाल में मनुष्य को इसी पावन वेला में विद्या-बुद्धि का, ज्ञान-संवेदना का अनुदान प्राप्त हुआ था। जीवन जो जीवधारियों में, कृमि-कीटकों में व एक अंश में जड़ पदार्थों में भी है, किंतु मनुष्य को इन सबसे ऊँची स्थिति प्राप्त है, उसका एकमात्र कारण उसका क्रमबद्ध सोद्देश्य चिन्तन ही है। सोद्देश्य चिन्तन उल्लासभरी मनः स्थिति तथा विधेयात्मक दृष्टिकोण-ये कुछ ऐसी विभूतियाँ हैं जो मात्र मनुष्य को प्राप्त हैं। यही कारण है कि उसने उस धारा को वैभवसंपन्न और सुन्दर बनाने का प्रयास अपने आदिकाल से किया है। इसके पीछे माँ भगवती सरस्वती का अनुग्रह ही प्रत्यक्ष देखा जा सकता है, जो विवेक-सद्बुद्धि के साथ कलादृष्टि भी देती हैं व जीवन को उल्लास के साथ जीना सिखाती हैं।

प्रकृति इस समय विशेष पर अपने पूर्ण यौवन पर निखरकर आती दिखाई देती है। उसका आन्तरिक उल्लास उभर कर आता है, वृक्ष-हरीतिमा-पुष्पों पर यौवन के उन्माद के छाने के रूप में। पतझड़ की खण्डहरी कुरूपता समाप्त हो जाती है। एवं पुष्प-पल्लवों की शोभा-आभा से वृक्षावली लद जाती है। प्राणियों में भीतर ही भीतर एक अभिनव हलचल का संचार होता है। भ्रमर गूँजने लगते हैं एवं हर जीवधारी एक गुदगुदी अनुभव करने लगता है। चहुँओर उल्लास-अभिव्यक्तियों का बाहुल्य बिखरा पड़ा दीखता है। यह वसंत के ऋतुराज रूप में निरूपित किये जाने का विवरण कोई अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है। प्रकृति का कुछ विधान ही ऐसा है कि ऐसा लगने लगता है मानो कोई मधुर उन्माद जड़-चेतन में नई उमंगों-तरंगों की धारा लहलहाने में अदृश्य रूप से संलग्न है।

मनुष्य भी इससे अछूता नहीं हैं। उनमें भी यह अभिव्यक्ति सहज ही उभरती, उफनती दिखाई देने लगती है। ठण्ड में जितनी निष्क्रियता थी-वसंत के साथ उतनी ही सक्रियता आ जाती है। मनुष्यों के भीतर भी प्रकृति प्रेरणा ढर्रे से बाहर निकलकर कुछ कर गुजरने, ऊँचा उठने की स्फुरणा के रूप में प्रकट होती है। चेतनात्मक स्तर पर प्रगति करते रहने की प्रेरणा सतत् उसे मिलती रहती है और यही मनुष्य की सबसे बड़ी निधि है। वसंत पर्व की यही विशेषता है, जिसने हमारी गुरुसत्ता को आत्मावलोकन की प्रेरणा दी- आत्मिक प्रगति का निज के वास्तविक स्वरूप व उसकी चरम परिणति का पथ दिखाया, उनके स्वयं के जीवन को तो उल्लास से भर ही दिया- एक विराट गायत्री परिवार के संरक्षक-अभिभावक के रूप में उन्हें स्थापित कर दिया। वसंत, विज्ञ-समाज, कला, सौंदर्य व विद्या को जीवन में स्थान देने वालों का पर्व है। धनवान दीपावली को-शक्तिवान विजयादशमी को, विनोदी होली पर्व को- तपस्वी श्रावणी को तथा छात्र गुरुपूर्णिमा को अधिक मान-महत्व देते रहे हैं, पर जो विद्या की, कला की, जीवन जीने की कला की गरिमा जानते हैं वे सरस्वतीपूजन के इस पर्व को विशेष महत्व देकर उसकी प्रेरणाओं को भी उतारते हैं। यह अकारण नहीं था कि “गुरुदेव”नाम से प्रख्यात कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ टैगोर ने वसंत पर्व को ही सर्वाधिक महत्व दिया एवं विद्या-कला-संगीत के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थापनाएँ की।

परमपूज्य गुरुदेव के शिष्य हम सभी संजीवनी विद्या के-जीवनकला के उपासक-आराधक हैं-इसीलिए स्वभावतः सरस्वती पर्व को, वसंत पंचमी को हम सभी अपने मिशन का जन्मदिन मानते हैं- युगनिर्माण आन्दोलन का श्रीगणेश उसी पावन दिन जो हुआ था। युगसंधि का मंगलाचरण अगले दिनों यदि वसन्त पर्व को ही हुआ, जोकि सुनिश्चित है तो इसे स्वर्ण-सुयोग ही कहा जाएगा। इस पर्व की विशिष्टता के विषय में सभी को ज्ञात है, फिर भी नए पाठकों-परिजनों के लिए एक बार पुनः याद कर लिया जाय तो ठीक ही होगा।

(1) इसी पावन दिन वि. संवत् 1983 सन् 1926 की वसंत पंचमी की पावन वेला में गुरुदेव को उनके सूक्ष्म-शरीरधारी मार्गदर्शक, जिन्हें हम दादा गुरुदेव (स्वामी सर्वेश्वरानन्द जी) के नाम से जानते हैं, ने भागीरथी तपश्चर्या की प्रेरणा का उद्बोधन-आह्वान प्रस्तुत किया और तत्काल पूज्य गुरुदेव उन निर्देशों को शिरोधार्य करने के लिए उद्यत हो गए। उसी दिन जलाया गया अखण्ड दीपक आज भी सतत् जल रहा- शांतिकुंज से प्रकाश-प्रेरणा दे रहा है एवं उस दिन की बराबर याद दिलाता रहता है। चौबीस लक्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरणों की श्रृंखला इसी दिन आरंभ की गयी थी। इसी दिन मिशन के सूत्र-संचालन तंत्र पर दिव्यप्रेरणा की प्रकाश किरणों का अवतरण होता आया है, जो हर वर्ष के लिए एक नया सन्देश लेकर नवप्रभात की तरह पूज्यवर के अन्तरंग अन्तरिक्ष में आविर्भूत होता जा रहा है।

(2) अखण्ड-ज्योति पत्रिका का शुभारम्भ भी विधिवत सन् 1940 से उसी दिन से आरंभ हुआ।

(3) गायत्री तपोभूमि का शिलान्यास भी 1951 में इसी दिन हुआ।

(4) सहस्रकुंडी गायत्री महायज्ञ का संकल्प इसी दिन लिया गया जिसे कार्तिक पूर्णिमा 1958 में पूरा किया गया।

(5) वेदों के अनुवाद-भाष्य का क्रम इसी दिन आरंभ हुआ, जो पूज्यवर के हिमालय-प्रवास (1959-60) के साथ पूरा हो अपने समग्र रूप में सबके समक्ष आया।

(6) “युगनिर्माण योजना” का सूत्रपात इसी दिन हुआ-इसी दिन युग-निर्माण सत्संकल्प के रूप में विधिवत घोषणापत्र जारी किया गया, जिसे नवयुग के संविधान की संज्ञा दी गयी।

(7) “युगनिर्माण योजना” पत्रिका, युगशक्ति गायत्री तथा सभी अन्य भाषाओं में प्रकाशित पत्रिकाएँ इसी दिवस प्रकाशित होना आरंभ हुई।

(8) युगनिर्माण विद्यालय के रूप में बालकों के स्वावलम्बनतंत्र का निर्माण एवं उसका विधिवत शुभारंभ गायत्री तपोभूमि मथुरा में इसी दिन हुआ।

(9) विधिवत गायत्री परिवार का निर्माण-युगनिर्माण परिवार का शुभारम्भ एवं शान्तिकुँज का निर्माणकार्य इसी दिन आरंभ हुआ।

(10) महिला जागरण अभियान का शंखनाद इसी दिन हुआ।

(11) गायत्री नगर- गायत्री तीर्थ की मंगलमयी स्थापना भी इसी दिन हुई।

(12) विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय को संकल्पित “ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान” का शिलान्यास-विधिवत शुभारंभ इसी दिन हुआ।

(13) प्रज्ञापुराण के रूप में उन्नीसवें पुराण की-प्रगतिशील कथा शैली में जीवन-साधना के सूत्रों को गूँथकर प्रस्तुत किये जाने की योजना इसी दिन बनी है।

(14) गायत्री शक्तिपीठों, प्रज्ञा-संस्थानों, स्वाध्याय-मण्डलों के निर्माण की घोषणा इसी दिन की गयी, जो कि विस्तार लेती हुई सारे भारत व विश्व में फैलती चली गयी।

(15) सूक्ष्मीकरण साधना में प्रवेश तथा युगसंधि महापुरश्चरण की घोषणा का कार्य इसी दिन हुआ, साथ ही आगामी पाँच वर्षों में विशिष्ट कार्य कर अपने लीला-संदोह के पटाक्षेप की घोषणा भी इसी दिन हुई।

(16) वीडियो स्टूडियो का शुभारंभ-विधिवत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा क्रान्ति का सूत्रपात किये जाने की घोषणा इसी दिन की गयी।

(17) प्रवासी भारतीयों में प्रचार-प्रसार किये जाने हेतु विधिवत तंत्र का गठन इसी दिन हुआ।

(18) भारतव्यापी राष्ट्रीय एकता सम्मेलनों एवं सहस्रवेदीय दीप महायज्ञों का अगले दिनों संपन्न किए जाने की घोषणा उसह दिन की गयी।

(19) क्रान्तिधर्मी साहित्य के रूप में अपने जीवन भर के चिंतन का मंथन-नवनीत इसी दिन लिखना आरम्भ किया गया एवं एक वर्ष के अन्दर इसका सृजन कर पूरे राष्ट्र को भली-भाँति मथ दिया गया।

(20) वसन्त पर्व पर महाकाल के संदेश के साथ ही परमपूज्य गुरुदेव ने ब्रह्मकमल के रूप में विकसित अपने जीवन के अस्सी वर्ष (1990 में) पूरे होने एवं सुनिश्चित अवधि में स्थूलशरीर को समेट लेने की घोषणा की। ज्येष्ठ पूर्णिमा पर 6 स्थानों पर ब्रह्म दीपयज्ञों की रूपरेखा भी इसी दिन बनाई गयी थी।

ऊपर जिन बसी सोपानों का वर्णन किया गया है, वे परमपूज्य गुरुदेव की जीवनावधि के महत्वपूर्ण मील के पत्थर कहे जा सकते है। उनके 2 जून, गायत्री जयंती, 1990 को महाप्रयाण के बाद भी यही क्रम जारी रहता है एवं सभी महत्वपूर्ण घोषणाएं उसी पावन वेला में होती रही हैं, जिनमें भारतव्यापी शक्ति जागरण (अखण्ड जप प्रक्रिया) अभियान, शपथ समारोह-आश्वमेधिक दिग्विजय अभियान प्रथा प्रथम पूर्णाहुति की घोषणा भी सम्मिलित है। अनुयाज वर्ष की सक्रिय पुनर्गठन प्रक्रिया एवं संस्कार महोत्सवों के शुभारंभ की घोषणा भी इसी पावन घड़ी में की गयी थी। यह सब जो कुछ भी हुआ, अनायास आकस्मिक रूप से नहीं हुआ वरन् एक परम मंगलमयी शुभ घड़ी के रूप में प्रत्येक कार्य को मानकर उस वर्ष से उसे आरंभ किया गया। दैवीचेतना का बाहुल्य-प्रकृति की हर श्रेष्ठ कार्य के लिए अनुकूलता, युग-परिवर्तन के लिए महाकाल की स्फुरणा का प्रादुर्भाव जैसे अविज्ञात सूक्ष्म-कारण इसमें हो सकते हैं, जिनमें अब एक महत्वपूर्ण कड़ी परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीय माताजी की सूक्ष्म-कारण सत्ता का एकाकार हो एक बड़े विराट रूप में सक्रिय हो जाने के रूप में जुड़ गयी है।

‘अखण्ड-ज्योति’ सदस्य-युग-निर्माण गायत्री परिवार के परिजन अब एक देव परिवार के सदस्य हैं एवं अगले दिनों एक महती जिम्मेदारी उनके कंधों पर सौंपी जाने वाली है। वह आत्मशक्ति के उपार्जन द्वारा युगसंधि की प्रसवपीड़ा जैसी संकटापन्न स्थिति से विश्व-वसुधा को भी उबारना-स्वयं को भी इस घनघोर घटाटोप से निकाल कर नवयुग में प्रवेश कराना। इस हेतु शाँतिकुँज का संचालन-तंत्र सतत् सबको झकझोरता एवं साधना-पुरुषार्थ हेतु प्रेरित करता रहता है। नौ दिवसीय साधना-सत्रों में इसी निमित्त आह्वान किया जाता रहता है, ताकि ऊर्जा अनुदानों से कोई वंचित न रहने पाए।

इस वर्ष एक महत्वपूर्ण अवसर और आ पड़ा है-वह है वसंत पर्व से चैत्र पूर्णिमा तक हरिद्वार में इस शताब्दी का अंतिम महाकुम्भ। अगणित परिजन इसका लाभ उठाने आना चाहते हैं, अपने साथियों को लाना चाहते हैं, अपने साथियों को लाना चाहते हैं। इसके लिए जनवरी-फरवरी की सत्र श्रृंखला यथावत रख अब 1 मार्च से 30 जून की चार माह की अवधि पाँच-पाँच दिवसीय सत्रों की श्रृंखला आरंभ की जा रही है। प्रतिमाह छह के हिसाब से ये चौबीस की संख्या में सम्पन्न होंगे। पूर्वानुमति लेकर स्वस्थ-कुछ सोद्देश्य कार्य करने के इच्छुक परिजन इन सत्रों में भागीदारी कर सकते है। इस वर्ष संस्कार-महोत्सवों की श्रृंखला को आम चुनाव के कारण जून की बीस तारीख तक आगे बढ़ा दिया गया है। जुलाई में न्यूजर्सी (अमेरिका के पूर्वी तट पर) में विराट वाजपेय स्तर का संस्कार महोत्सव एवं 251 कुण्डी महायज्ञ संपन्न होगा। इसमें प्रायः 4 लाख भारतीय व अमरीकी नागरिकों के भाग लेने की आशा हैं सितंबर के अंतिम सप्ताह में शारदेय नवरात्रि से पुनः संस्कार-महोत्सव आरंभ होकर 22 जनवरी,1999 वसंत तक समाप्त हो जाएँगे। मूलतः ये उन स्थानों पर अधिक वरीयता के साथ सम्पन्न होंगे, जहाँ बड़े विराट आयोजन अभी तक नहीं हुए। पूर्ण विराम की तिथि पूज्यवर के निर्देशानुसार 22 जनवरी, 99 ही रखी गयी है। इसके बाद सारे भारत व विश्व में साधनात्मक पुरुषार्थ को तीव्रतम गति देने के लिए क्षेत्रीय साधना-सत्र केन्द्र के अतिरिक्त चलेंगे। 1999 का यह वर्ष आयोजन प्रधान नहीं- साधना प्रधान होगा, यह ध्यान रखा जाय ताकि सन् 2000 की पूर्णाहुति के लिए जन-जन की पात्रता विकसित हो सके, संव्याप्त प्रदूषण जो सूक्ष्म जगत में बढ़ता जा रहा है, मिट सके।

अभी इस वसंत से आगामी वसंत तक जिन सात समारोहों के द्वारा रचनात्मक क्रान्ति का तुमुलनाद किया गया था-उन्हें प्रान्तीय-क्षेत्रीय स्तर पर सम्पन्न किए जाने एवं जिले के स्तर पर ऐसे शपथ समारोह आयोजित करने की योजना अविज्ञात के गर्भ में पक रही है, जिससे संपूर्ण क्रान्ति की तैयारी हेतु एक करोड़ प्राणवान कार्यकर्ता तैयार किये जा सकें। विश्वास किया जाना चाहिए कि प्रत्येक परिजन इसमें बढ़-चढ़कर अपनी भागीदारी करेंगे- प्रतिभा रूप में प्राप्त अनुदान का सुनियोजन करेंगे एवं गुरुसत्ता के ‘इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य’ के स्वप्न को साकार करने हेतु पृष्ठभूमि बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रखेंगे। अगला अंक ‘युग परिवर्तन’ अंक है। इसमें प्रस्तुत वसंत के इन निर्धारणों को विस्तार से परिजन पढ़ सकेंगे। कभी न चूका जाय, ऐसा समय अब आ गया है। जरा-सा भी प्रमाद अन्यमनस्कता हमें वर्षों पीछे धकेल कर किन्हीं और से यह कार्य करा लेगी। श्रेय लेने वाले आदर्शवाद को घाटे का सौदा न मानकर आगे आयें एवं एक स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता का माहौल बनाएँ, यही सबसे अपेक्षा है।


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