सत्यकार्य के प्रति समर्पण

January 1998

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सत्यकार्य के प्रति समर्पण ही तुम्हें धरती की आत्मा को रफ्तार के साथ चल सकने की सामर्थ्य देता है। निठल्ला होना तो मौसम की बहारों के लिए अजनबी बन जाना है और जीवन की उस शोभायात्रा से अलग-थलग हो जाना है, जो अनन्त को शानदार समर्पण करती हुई अपने समूचे ऐश्वर्य एवं आन-बान के साथ निकल रही है।

कार्य करते हुए तुम वह बांसुरी बन जाते हो, जिसके हृदय से समय की साँस गुजरती है और संगीत में बदल जाती है। आखिर तुम में से कौन है, जो गूँगी और खामोश नरकुल बने रहना चाहेगा, उस वक्त, जब सारा संसार एक ही बाँसुरी के स्वरों में शामिल हो रहा है? तुमसे हमेशा कहा गया है? कि कर्म एक अभिशाप है और श्रम है दुर्भाग्य। किन्तु मैं तुमसे कहना हूँ कि जब तुम कर्म करते हो, तब तुम धरती के प्राचीनतम स्वप्न के एक अंक को पूरा करते हो, जिसका दायित्व तुम्हें तभी सौंपा गया, जब वह स्वप्न जन्मा था। सत्कर्म में डूबे रहना ही सही अर्थों में जिन्दगी से प्यार करते रहना है। जिन्दगी को कर्म के माध्यम से प्यार करना ही उसके अन्तरंग रहस्यों को बारीकी से जान लेना है, किन्तु यदि तुम अपने कष्टों से घबराकर यह कहने लगे कि तुम्हारा जन्म एक विपत्ति है और हाड़-माँस की बनी काया का पोषण तुम्हारे माथे पर लिखा हुआ अभिशाप है, तो मेरा उत्तर यही है कि तुम्हारे माथे के पसीने के अलावा और कुछ नहीं है, उस लिखे हुए अभिशाप को धो सके। तुमसे यह भी कहा गया होगा कि जीवन अंधकारमय है। मैं भी कहना कि जीवन सचमुच अंधकारमय है, यदि आकाँक्षा न हो। सारी आकांक्षायें अन्धी हैं। यदि ज्ञान न हो। सारा कर्म खोखला है, दि प्रभु-प्रेम न हो। जब तुम प्रभु-प्रेम से प्रेरित होकर कर्म करते हो, तब तुम विश्व- मानवता के लिए स्वयं को अर्पित करते हो, क्योंकि विश्वात्मा का साकार रूप ही तो यह विश्व है। प्रभु प्रेम से प्रेरित कर्म क्या होता है? यह अपने हृदय से खींचकर काते गए सूत से कपड़ा बुनना है, मानो स्वयं प्रभु ही पहनने वाले हो उसे। यह इतने प्यार से भवन निर्माण करना है, मानो सर्वेश्वर स्वयं ही रहने वाले हों वहाँ। यह इतनी कोमलता से बीज बोना और इतने आनन्दित होकर फलों का संचय करना है। मानो स्वयं प्रभु ही खाने वाले हों वे फल। यह अपने हाथों किये गये प्रत्येक कर्म को अपनी दिव्यता की ऊर्जा से भर देना है और ऐसा महसूस करना है, मानो समस्त निर्जीव सत्ताएँ तुम्हारे आस-पास खड़ी तुम्हारे कर्मों को निहार रही हों। पवन जो संवाद शाह बलूत से करता है, वह उसकी अपेक्षा अधिक मीठा नहीं हो सकता, जो वह घास के तिनकों से करता है। केवल वहीं व्यक्ति महान है जो अपने कर्म से पवन के स्वरों को एक गीत में बदल देता है और अपने भगवतम से उस गीत की मिठास को प्रगाढ़ कर देता है। प्रभु को दृष्टिगोचर बना देना ही सत्कर्म है।


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