एक समय एक व्यापारी ने व्यापार के सिलसिले में परदेश जाने का निश्चय किया जाने से पहले बारी-बारी से उसने अपने परिवार के सदस्यों से पूछा की परदेश से वह उनके लिए क्या लाये? सबने अपनी-अपनी इच्छा बता दी। अन्त में वह अपने दास के पास गया और उस पर कृपा करते हुए पूछा कि वह उसके लिए क्या लाए? दास ने बड़ी विनम्रता से कहा, मेरे लिए सुखफल लाइयेगा।
परदेश जाकर व्यापारियों ने बहुत-सा धन कमाया और अपने परिवार के लोगों के लिए बहुत-सा समान और तोहफे खरीदे। आखिरी दीन उसे अपने आज्ञाकारी दास की इच्छा का ध्यान आया और वह सुखफल का पता करने लगा।
सबने आश्चर्य प्रकट किया कि इस नाम का कोई फल नहीं होता। पहली बार यह नाम सुना था। अन्त में व्यापारी एक महात्मा से मिला। उनसे अपने दास की इच्छा बढ़ायी।
महात्माजी थोड़ी देर गम्भीरता से सोचते रहे, फिर बोले, आपको सुख किसमें मिलता है? जब चिन्ता न हो, पीड़ा न हो और जब भय न हो। सामान्य जीवन में तो ऐसे क्षण यदा-कदा ही आते हैं। इन्हें चिरस्थायी बनाना हो तो स्वयं शाश्वत स्वरूप की अनुभूति चाहिए। जिसे आत्मज्ञान कहा गया है। दास बहुत गहरी बात कही है। व्यापारी समझ गया।
घर आने पर उसने दास को सम्बोधित करते हुए कहा-जाओ मित्र, आज से हम तुम्हें दासत्व से मुक्त करते हैं, अब तुम महात्मा जी के शरण में जाओ, वे तुम्हारे सद्गुरु हैं। सद्गुरु की शरण में रहकर आत्मज्ञान ही इस लोक में सुखफल है, जिसका स्वाद पाकर फिर कभी दुख नहीं व्यापता।