सूक्ष्म में समायी असीम शक्ति-सामर्थ्य

January 1998

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ज्यादा का असर प्रभावशाली होता है और कम उपेक्षणीय प्रभाव डालता है-यह कथन सर्वत्र लागू है- यह कथन सर्वत्र लागू नहीं होता। सूक्ष्म की सामर्थ्य सर्वविदित है। यदि उसका उपयोग सही समय पर, सही ढंग से किया जा सके, तो परिणाम चौंकाने वाला होता है।

पत्थर का एक बड़ा पिण्ड वह काम नहीं कर सकता, जो अदृश्य जैसी स्थिति में रहने वाला परमाणु-कण। परमाणु क्या है? विद्युत-बिन्दुओं का संघात मात्र। इन्हीं में शक्ति का अजस्र स्रोत छिपा है और उसी से विश्व का अतिसामर्थ्य युक्त क्रिया-कलाप चह रहा है।

कायिक गड़बड़ियों को दुरुस्त करने में होम्योपैथी के जनक हैनिमैन ने औषधि की सूक्ष्मशक्ति को महत्व दिया है। आयुर्वेद भी इसी सिद्धान्त पर आधारित है। उसमें रस-भस्मों को घोंट-पीसकर जितना बारीक बनाया जाता है, उसकी शक्ति उसी परिणाम में बढ़ती जाती है।

शरीरशास्त्रियों का कहना है कि नमक एवं अन्यान्य लवणों की बड़ी मात्रा खाने पर तो वह भार बन जाती है और मूत्र एवं पसीने के सहारे व्यर्थ निकल जाती है। जीवकोषों द्वारा ग्रहण किये जाने के लिए तो उनकी बहुत छोटी मात्रा ही पर्याप्त है।

विषविज्ञानियों ने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया है कि स्वस्थ शरीर पर किंग कोबरा के विष का जितना घातक असर पड़ता है, उसका सौवाँ भाग भी वैसा ही प्रतिफल उत्पन्न करता है।

दूध में पाये जाने वाले लोहाँश को बहुत सराहा जाता है और कहा जाता है कि दूध की उपयोगिता उसकी लौह पोषक शक्ति से सम्बन्धित है। यह लौह दूध में कितना होता है? एक पाव में एक ग्रेन का छह लाखवाँ हिस्सा। मात्रा की दृष्टि से यह अत्यन्त उपहासास्पद है, पर चूँकि वह जीवकोषों में घुलने लायक इसी स्थिति में उपयुक्त होता है, इसलिए लाभ उचित अनुपात में घुली हुई मात्रायुक्त दूध से हो सम्भव होता है। यदि इस अनुपात से अनेक गुना बढ़ाकर लौह मिश्रण दिया जाए, तो उससे लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होगी।

शरीर के तापमान पर हजार भाग पानी में एक भाग हाइड्रोक्लोरिक एसिड घुला हो, तो दालों के प्रोटीन और माँस के फाइबर को आसानी से पचा देगा, किन्तु हाइड्रोक्लोरिक अम्ल की मात्रा अधिक हो, तो उससे पाचन क्षमता बढ़ेगी नहीं, घट ही जाएगी।

काया में लाल रक्ताणुओं की शक्ति उसके लोहाँश पर निर्भर है, पर उस अंश की मात्रा कितनी स्वल्प होगी-यह भी जाना जरूरी हैं एक घन इंच के 120 लाखवें हिस्से से बड़ा एक रक्ताणु नहीं होता। एक छोटी-सी रक्त-बूँद में इस प्रकार के प्रायः तीस लाख लाल करण होते हैं। इतनी छोटी इकाई कितना कम लोहाँश अपने में लादकर लिये फिर सकती है, यह कल्पना की जा सके, तो प्रतीत होगा कि शक्ति के लिए उपयुक्त अनुपात कितना स्वल्प हो सकता है।

मनुष्य की मूलसत्ता कितनी छोटी है, इसका अनुमान लगाने के लिए अमें जानना चाहिए कि शुक्राणु डिम्ब के साथ मिलकर भ्रूण में परिणत होता है, यह मूलतः एक क्यूब मिलीमीटर का दस लाखवाँ भाग होता है। इतनी छोटी सत्ता में मनुष्य का पूरा शारीरिक और मानसिक ढाँचा समाया रहता है।

क्वार्ट्ज क्रिस्टल कितना छोटा कण है, पर वह अपने वेगवान कम्पन से ‘डिजिटल डिवाइसेज’ को क्रियाशील बनाये रखता है। उसके स्थान पर यदि उसका बड़ा टुकड़ा रख दिया जाए, तो आकार का बड़प्पन यहाँ निरर्थक साबित होगा।

लेजर और गामा रेज अदृश्य स्तर की किरणें हैं पर यदि निमिष मात्र के लिए भी किसी पर उनकी बौछार की जाए, तो प्राणी और पदार्थ क्षण मात्र में ही जलकर राख हो जाएँगे। दृश्य स्तर की किरणों में यह सामर्थ्य कहाँ है?

20 -20000 हर्ट्ज की ध्वनियाँ श्रव्य मानी गयी हैं। इस सीमा से नीचे की ध्वनियाँ इन्फ्रासोनिक और ऊपर अश्रव्य की अल्ट्रासोनिक कहलाती है। यह अश्रव्य स्तर की होती हैं और असाधारण क्षमतावान् होती हैं। अल्ट्रासाउण्ड गर्भस्थ शिशु का लिंग और स्वास्थ्य की जानकारी उपलब्ध कराने में समर्थ होती है। इससे आगे की उच्च आवृत्ति पर यह इतनी खतरनाक हो जाती है कि किसी भी प्राणी और इमारत को पल भर में धराशायी कर दे। श्रव्य ध्वनियों में यह क्षमा नहीं होती।

कस्तुरी की शीी को बार-बार धोते रहने पर भी उसकी गंध आती रहती है। इससे प्रतीत होता है कि सूक्ष्मता का प्रभाव उससे कहीं ज्यादा है, जितना कि आम लोग समझते हैं।

कितने ही जीवाणु-विषाणु अत्यन्त सूक्ष्म एवं अगोचर स्तर के होते हैं, पर वही रोगाणु जब स्वस्थ एवं सुदृढ़ शरीर में प्रवेश करते हैं, तो उसे देखते-देखते खोखला बनाकर व्यक्ति को मौत के मुँह में धकेल देते हैं। मजबूत शरीर मूक दर्शक बना अपनी बरबादी देखता रह जाता है। क्या यह लघुतम की महत्तम पर विजय नहीं है।

पानी जब तरल अवस्था में होता है, तो तृषा-निवारण से लेकर कृषि कार्य तक अनेक प्रयोजन पूरे करता है। ठोस बनकर वह बर्फ की माँग भर की पूर्ति करता है, पर भाप अपनी अद्भुत सामर्थ्य के कारण विशालकाय इंजनों को घसीटने लगती है। यह कार्य बर्फ और पानी के बूते की बात नहीं।

स्थूल संसार,, स्थूल जीवन को मोटी दृष्टि से देखने पर सब कुछ जाना-पहचाना घिसा-पिटा, मामूली महत्वहीन और ढर्रे का दिखाई पड़ता है। उसमें न कुछ विशेषता है, न महत्ता, पर जब गहराई में उतरने और अधिक खोजने, समझने और प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है, तो यहाँ सब कुछ अद्भुत और रहस्यमय दिखलाई पड़ने लगता है। भौतिक जगत में भी। गहराई में उतरना ही शक्ति को खोजने और प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। उस उपाय को भौतिक क्षेत्र में प्रयुक्त करना विज्ञान कहलाता है और आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रयोग करना योगसाधना-तत्वदर्शन। इससे हमें दोनों ही क्षेत्रों में एक-से एक बढ़कर उपलब्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं।

दृश्य का अदृश्य में तौर अदृश्य का दृश्य में बदल जाना वस्तुतः विश्व का चमत्कार है, पर यह है सरल, सहज और स्वाभाविक। शक्ति-पदार्थ में प्रकट होती है और पदार्थ का शक्ति में लय होता है। ब्रह्म माया में परिणत होता है और माया ब्रह्मसत्ता में लीन होती है। कैसा अबूझ और अद्भुत खेल है, पर विज्ञान एक के बाद के रहस्यों की परतें खोलता चला जा रहा है। और हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचा रहा है कि निर्जीव स्थूल के भीतर प्रचण्ड सम्पन्न सूक्ष्म सन्निहित है। जड़ में भी संव्याप्त चेतना के दर्शन हमें इस आधार पर ही हो सकते हैं। विज्ञान क्रमशः अध्यात्म के सिद्धान्तों का समर्थन करने की दिशा में आगे बढ़ता चला जा रहा है।

भौतिक विज्ञान को दो हिस्सों में बाटा जा सकता है- (1) पदार्थ, (2) ऊर्जा। पदार्थ उन वस्तुओं को कहते हैं, जो हमारे चारों ओर बिखरी पड़ी हैं, जिन्हें हम देखते या अनुभव करते हैं, जिन्हें तौला जा सकता है, वे ठोस, तरल, गैस के रूप में रहते हैं और एक स्थिति से दूसरी स्थिति में परिस्थिति के के अनुसार बदलते रहते हैं।

ऊर्जा उस विभाग को कहते हैं, जिसमें ताप, विद्युत, चुम्बकत्व, प्रकाश आदि की गणना आती है। इन्हेँ तौला तो नहीं जा सकता, फिर भी उन्हें तरंगों के रूप में गतिशील देखा जा सकता है। और उनकी सामर्थ्य को अनुभव किया जा सकता है।

ठोस पदार्थों के रूप-परिवर्तन बिना किसी बाहरी दबाव के बिना नहीं होता। उनके परमाणुओं में घनिष्ठता होती है और परस्पर आबद्धता भी। तरल पदार्थों के अणुओं में उतना आकर्षण और आबद्धता नहीं होती, इसलिए वे बहने लगते हैं, जिस पात्र में रखे उसी की आकृति ग्रहण कर लेते हैं। गैसें के अणुओं में परस्पर कोई बंधन नहीं होता, वे सब दिशाओं में फैलते हैं। जरा-सी गैस एक बड़े कमरे में भर सकती है, तीन स्थितियाँ एक होते हुए भी परस्पर बहुत भिन्न हैं, तो भी ऊर्जा की थोड़ी-सी हलचल उन्हें कुछ से कुछ बना देती है। तापमान 100 डिग्री से. से अधिक घट जाने पर पानी बर्फ बन जाता है और 100 डिग्री से. से अधिक बढ़ जाने पर भाप बन जाता है।

पदार्थ जिन परमाणुओं से मिलकर बनता है, वे निरन्तर गतिशील रहते हैं। यह गति तापमान से प्रभावित होती है। गति बढ़ने से पारस्परिक सम्बन्ध-सूत्र में परिवर्तन होता है और वे अपनी संघबद्ध आकृति बदलने लगते हैं। अत्यधिक ठण्डा करने पर लोह रेत की शक्ल में बदल सकता है। ऊर्जा का हेर- फेर वस्तुओं का इतना अधिक परिवर्तित कर सकता है कि उनके पूर्व रूप की कल्पना तक पर विश्वास करना कठिन पड़ेगा।

जो कुछ हम आंखों से देखते हैं, वह वस्तुतः वैसा ही नहीं होता। आकाश हमें नीला दिखाई पड़ता है, गहरे पानी का रंग भी नीला होता है, पर क्या सब सत्य है? नहीं इसे आँखों का धोखा कहना चाहिए। न आकाश में नील घुला है, न पानी नीला है। वास्तविकता तो यह है कि दोनों ही बिना रंग के हैं। आकाश और समुद्र का गहरा जल-यह दोनों ही प्रकाश की नीली किरणें अवशोषित नहीं कर पाते, अतः नीले दिखाई पड़ते हैं। वृक्ष-वनस्पतियाँ हरे इसलिए प्रतीत होते हैं, कारण कि वे बाकी सभी रंग की किरणों को अवशोषित कर लेते हैं। केवल हरी-प्रकाश-किरणों को छोड़ देते हैं। इस कारण पादप हरे दिखाई पड़ते हैं। सच तो यह है कि संसार में किसी भी पदार्थ अपना कोई रंग है ही नहीं।

देखने में हर चीज स्थिर दिखाई पड़ती है पर उनके भीतर अणुओं की भारी भाग-दौड़ मची रहती है। समतल दिखाई पड़ने वाले भी वस्तुतः खुरदुरे और छिद्रयुक्त होते हैं। मेज की सतह को आंखों से देखकर या हाथ से छूकर समतल ही कहा जा सकता है, पर माइक्रोस्कोप से देखने पर उसमें असंख्य छिद्र दिखाई पड़ेंगे। ब्लेड की धार स्पर्श से और आंखों से सीधी दिखती है, लेकिन सच यह है कि वह लहरदार होती है। पानी में मोल भासती नहीं है, किन्तु चीनी जब उसमें घोलते हैं फिर भी आयतन नहीं बढ़ता, तो पता चलता है कि उसके अणुओं में मोल मौजूद थी। रेत को पानी में डालने से आयतन बढ़ता है पर नमक डालने से नहीं। इसे स्पष्ट है कि पानी के अणु नमक या चीनी को अपने भीतर भर लेने के लायक जगह पहले से ही रखे हुए थे, यद्यपि रेत के कण भिन्न स्तर के होने के कारण उसमें घुल नहीं पाते।

परमाणु पदार्थ की सबसे छोटी इकाई है ओर उसे ठोस समझा जाता है, पर वस्तुतः उसमें भी 90 प्रतिशत स्थान पोला होता है। संसार में यह असंख्य पदार्थ हैं, उनकी गणना नहीं हो सकती लेकिन जिन तत्वों से वे बने हैं उनकी संख्या अब 109 गिनी जा सकी है। इन्हीं कणों के मिलने-बिछुड़ने एवं अनुपात घटने-बढ़ने से तरह-तरह की आकृति प्रकृति वाले पदार्थ बनते-बिगड़ते रहते हैं।

अब पदार्थों का ऊर्जा में ओर ऊर्जा का पदार्थों में परिवर्तन सम्भव हो गया है। प्रकृति में यह खेल चलता ही रहता है।

वह कभी पदार्थ को ऊर्जा में बदलती है, कभी ऊर्जा को पदार्थ में, कभी निराकार साकार बनता है, और कभी साकार का निराकार में विलय हो जाता है। हमारे चूल्हे, बायलर यही उलट-पुलट करने में लगे रहते हैं।

हमारी इन्द्रियाँ भी कितनी विलक्षण हैं। समीपवर्ती क्षेत्र में चल रहे इलेक्ट्रान स्पन्दनों की सूचना अपने-अपने तंत्रों द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचाती हैं। बस इतनी भर नगण्य घटना को मस्तिष्क शब्द, रूप, रस गंध, स्पर्श के मीठे-कडुए अनुभवों के साथ अनुभव करता है और उनमें प्रिय- अप्रिय की प्रतीति होती है। यदि दिमाग में रसानुभूति की विशेषता नहीं होती ओर वह ऊर्जा-अंकन यंत्र मात्र रहा होता, तो जो अनुभूतियाँ हमें होती है, उनमें से एक भी न होती। मात्र अणुओं की हलचलें नोट होती रहती और उनका प्रभाव उतना ही होता जितना कि समीपवर्ती तरंगों के साथ जुड़ा होना। रसानुभूति जैसी कोई स्थिति इस संसार में नहीं है। हमारे दिमाग की विलक्षण संरचना ही है, जो हमें कभी हर्ष, कभी विषाद-कभी प्रिय और कभी अप्रिय अनुभव कराती है। कभी हम रोते हैं, कभी गाते हैं। इसका घटनाओं से नहीं, मात्र अपने निज के अनुभूति तंत्र से ही सम्बन्ध है।

प्रकृति और पुरुष का, जड़ और चेतन का, स्थूल और सूक्ष्म का यह अद्भुत समन्वय अज्ञानी को सामान्य और ज्ञानी को असामान्य प्रतीत होता है। मोटी दृष्टि से यहाँ कुछ कूड़ा-करकट भरा पड़ा है, पर तत्वदर्शी देखता है कि कण -कण में शक्ति का अनन्त भण्डार भरा पड़ा है। भावना की प्रत्येक तरंग में अमृत-कलश छलक रहा है। वस्तुतः यहाँ सब कुछ निरर्थक है और सार्थक भी। सामान्य में असामान्य के दर्शन हो सकते हैं और पाषाण में भगवान प्रकट हो सकते हैं, पर इसके लिए सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता है। गहराई में हम जितने उतरते हैं, उतने ही चकित करने वाले चमत्कारों के दर्शन करते हैं। दर्शन की यह सामर्थ्य यदि हमारे अन्दर हो, तो छोटे कण में भी हम इतनी ओर ऐसी महानता को देख सकते हैं, जो जीवन की दिशाधारा ही बदल दे, किन्तु यह योग्यता न हो, तो अच्छाइयों का विशाल पुँज भी हम पर कोई असर न डाल सकेगा। इसीलिए ‘ अधिकस्य अधिकं फलम् ‘ जैसे सूत्र को सर्वत्र लागू होने वाला नहीं माना जा सकता।


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