एक द्वीप में नूतन सृष्टि का सृजन

January 1998

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इतना पता ही है कि यह द्वीप है, क्योंकि इसके चारों ओर समुद्र हिलोरें मारता है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई इतनी बड़ी है कि एक ओर से दूसरी ओर किनारे तक जाने में तीन दिन लग जाते हैं, उतना ही चौड़ा भी है। वैसे कभी किसी ने इसे अपनी लाठी से नापा नहीं है। कुछ लोग इसे गोल कहते हैं। लेकिन गोल हो या चौकोर, है बहुत अच्छा। ऊँचे-ऊँचे वृक्ष हैं और वे खूब घने हैं। सदा हरे-भरे रहते हैं। प्रायः वर्षा होती रहती है और जब बादल हटते हैं, धुले आकाश में चमकती धूप निकलती है। यहाँ दूसरे साधारण तथा भयंकर पशु भी बहुत हैं। शायद जो अच्छी भूमि होती है, वहाँ सभी रहना चाहते हैं। यहाँ कई झीलें हैं, निर्मल झरने हैं, फूलों से भरे सरोवर हैं और दो नदियाँ भी हैं। यहाँ के लोगों को अपने इस टापू पर गर्व है। उन्हें पूरा विश्वास है कि इससे अच्छी और कोई भूमि नहीं है। वहाँ के लोग नारियल के कच्चे फलों का पानी पीते हैं। पकने पर उसकी गिरी खाते हैं। नारियल का तेल उनके घरों की मुख्य वस्तु है। पके केले तो वे लोग खाते भी हैं, कच्चे भी उनके बहुत काम आते हैं। जैसे कच्चे केले की रोटी और केले का ही साग होता है। शायद ही अन्य किसी जगह ऐसा भोजन खाया जाता है।

गेहूँ की रोटी उबला चावल और दाल तो अब कुछ सालों से यहाँ के कुछ लोग सफेद मनुष्यों की देखा-देखी खाने लगे हैं। वैसे टापू के कुछ बुजुर्ग लोग युवकों को टोकते भी हैं। कि इन सफेद लोगों की हर बात में नकल करना अच्छी बात नहीं है। ये लोग तो ऊदबिलाव की भाँति मछलियाँ भी खाते हैं। ये उन्हें उबाल लेते हैं-इतने से क्या हो गया? पानी में चंचलता से घूमने वाली कोमल उज्ज्वल सुन्दर मछली, क्या पेड़ों पर फुदकने वाली मनोहर चिड़िया या वन में कूदने-दौड़ने वाले हिरन अथवा शशक की भाँति ही देखने में अच्छी लगने वाली और प्यार पाने योग्य नहीं है? क्या मनुष्य को चाहिए कि उसे दुख दे?

टापू के लोगों ने तो यहाँ तक सुना है कि ये सफेद लोग अपनी धुएँ वाली काली लाठी से दूर से ही चिड़िया को, मृग को बेचारे शशक को भी मार देते हैं और उन्हें भी खा जाते हैं। ये मायावी लोग है, इनके पास जाना, मेल-जोल बढ़ाना ज्यादा अच्छा नहीं है। इन लोगों ने टापू के कुछ लोगों को पता नहीं क्या-क्या खाना सिखा दिया है। नहीं तो जब से पृथ्वी बनी यहाँ के लोग पवित्र नारियल और केले का उत्तम आहार ही करते हुए हैं।

यदि आप इनके घर देखें, इनके घर भोजन करें दो इनको बड़ी प्रसन्नता होगी। ये सब तो इसे अपने ऊपर बड़ी कृपा मानते हैं क्योंकि यह तो इनका स्वभाव है कि ये तब तक भोजन नहीं करते, जब तक घर में एक नवीन अतिथि को भोजन न करा दिया जाय और यह तो सभी जानते हैं कि यह बहुत कठिन नियम है। कोई बहुत ही कृष्ण करता है, तब किसी के घर वह अतिथि बनकर पहुँचता है। भगवान ने वनों में इतने नारियल और केले लगा रखे हैं कि कोई किसी के घर को देखकर मन बरबस प्रसन्नता से छलक उठता है। उसने भी अभी इसी वर्ष नारियल के हरे पत्तों से अपने घर को बनाया है। ऊँचे लट्ठों पर उसने उसे इस प्रकार बनाया है, कि जब भी अतिथि आए, उन्हें कम से कम सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ें। उसके घर में केवल दस सीढ़ियाँ चढ़कर आप पहुँच जाएंगे। यद्यपि चीते तथा सर्प के चढ़ने का भय होता रता है, फिर भी अतिथि को कभी पुकारना न पड़े, इसलिए वह रात्रि को भी सीढ़ी को लटकता रहने देता है। उसे ऊपर नहीं खींचता। कोई भी उसके यहाँ पधारे यही पाएगा किस उसे छोटी-सी दुलारी कन्या अतिथि को देखते ही प्रसन्नता से किलकने लगेगी। यहाँ तक कि गाय भी हुम्मा-हुम्मा करके उसका स्वागत करेगी। वह बड़ी ही उत्तम गाय है। दोनों समय गृहस्वामी के बर्तन को भर देती है।

अतिथि का स्वागत करना भी उसने सीख लिया है। उसके जीवन में बदलाव का ज्वार तब आया, जब आज से कई वर्ष पूर्व एक सज्जन उसके घर अतिथि हुए थे। उस समय उसका निवास कुछ वैसी ही प्राकृतिक शैली का था, जैसा कि उसके पूर्वज हजारों वर्ष पूर्व अपनाते आए थे। अतिथि के रूप में पधारे सज्जन ने ही उसे यह ज्ञान कराना शुरू किया, कि वे सब के सब निहायत अपढ़, असंस्कृत और असभ्य हैं। कुछ ऊँचे लट्ठे भूमि पर गाड़कर पृथ्वी से दस-बारह फीट की ऊँचाई पर लकड़ियों तथा पत्तों से जो घर बनाने की प्रथा है। उसे तो निहायत गन्दा घोंसला ही कहेंगे। इस घोंसलेनुमा घर में भी ढेर सारे लोग। संयुक्त परिवार को प्रथा तो परिवार-प्रथा कम दासप्रथा ज्यादा है, ऐसा वे श्वेत वर्ग के अतिथि सज्जन कह रहे थे। बड़ी अद्भुत लगी उसे ये बातें, उसे उसी दिन उनसे मित्रता कर ली। उनके ही कारण पाश्चात्य जाति के लोगों से उसका परिचय हुआ। उन्हीं से जिन्हें टापू के सरे निवासी सफेद आदी कहकर जानते थे, परिचित थे।

उन्होंने ही उन सब को सभ्य आदमी बनाने का, शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। उनके पक्के मकान सहज ही नहीं बन गए। वनों को काटने में, वन-पशुओं का विरोध तथा प्राकृतिक कठिनाई इतनी अधिक नहीं थी जितनी कठिनाई अपने स्वजनों के विरोध से किसी प्रकार बचने में उठानी पड़ी। घर में किसी ने उसका साथ नहीं दिया। कोई भी अपनी प्राचीन प्रथा-परम्पराओं को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। उसे भी सब उसी पुराने बाड़े में रखना चाहते थे। इस क्रम में काफी वाद-विवाद हुआ। किसी प्रकार लड़-झगड़कर वह घर से भाग आया। घर से भागकर उन श्वेत सज्जन के कहने पर उसने अपनी इच्छा से एक श्वेत लड़की से विवाह कर लिया। बड़े भाई ने, पूरे परिवार ने उससे सम्बन्ध तोड़ लिया। उसने सोचा चलो अच्छा ही हुआ, क्योंकि नवीन समाज में उसे अब संकुचित लज्जित नहीं होना पड़ेगा कि उसका सम्बन्ध एक असभ्य असंस्कृत परिवार से है।

उसका द्वीप छोटा है, इसलिए यूरोप से आये उदार लोगों को अपना प्रभाव यहाँ फैलाने में बहुत समय नहीं लगा। यद्यपि वृद्ध लोग विरोध करते रहे और वे अब भी विरोध ही करते है किन्तु युवकों ने इस सभ्यता के प्रकाश का स्वागत किया। इस नये प्रभाव से द्वीप में प्रर्याप्त पक्के मकान हो गए, जो सुरक्षित ढंग से बनाये गये थे। जहाँ-तहाँ पादरी लोग शिक्षा देने लगे। उसने स्वयं इतना अभ्यास कर लिया कि पुस्तकें पढ़ लेता है। द्वीप में दो तीन चिकित्सालय भी चलने लगे।

आप उसके घर जाये तो यही देखेंगे कि वे यूरोप से बने वस्त्रों का पर्याप्त प्रयोग करने लगे हैं। यद्यपि केले के पत्ते लपेटने वाले लोग भी बहुत हैं, किन्तु अब इसे सभ्यता का चिन्ह माना जाने लगा है। उन सब ने मिलकर वनों को बहुत कुछ काटकर घटा दिया दिया है। धान की खेती भी करने लगे हैं। वन्य पशु तो आखेट के कारण स्वतः ही घट गए। उसका द्वीप धीरे-धीरे उन्नत होने लगा मछलियों का व्यवसाय उन्होंने अभी ही प्रारम्भ किया है और यह आर्थिक दृष्टि से काफी उत्तम भी साबित हुआ। उसने अपने घर के आस-पास फूल लगा रखे हैं और मुर्गियाँ, बत्तखें और खरगोश भी पाल रखे हैं। उसकी नजर में अब ये स्वादिष्ट भोजन के साधन हैं ही, अच्छी-खासी आमदनी भी इनसे हो जाती है।

उसके गाँव में सप्ताह में दो बार पादरी आने लगा। पादरी का ठहरना खाना भी उसी के घर होता। उसके उपदेश के प्रभाव से युगों पुरानी परम्पराएँ टूटने लगीं, क्योंकि अब तक उन्हें अन्धविश्वास माना जाने लगा था। यूरोपीय अतिथियों ने उन सब को यही सिखाया था कि जो कुछ भी तुम मानते हो, तुम्हारा है वह सब अंधविश्वास है- जो कुछ पश्चिम का है-वह सब का सब अनुकरणीय है, क्योंकि यह आधुनिकता है। आधुनिकता का यह प्रभाव उसे ही नहीं सारे द्वीपवासियों को अपने में लपेटने लगा।

इसी क्रम में दस वर्ष और बीत गये। वह उस कथा को दोहराना नहीं चाहता, जो विदेशियों के कारण उसके पास छोटे-से सुन्दर टापू पर घटी है। अत्याचार उत्पीड़न और शोषण की यही कहानी उससे कुछ भी भिन्न नहीं है, जो हमारे-आपके यहाँ घटित हुई। यदि हमारा आपका देश कभी इन पाश्चात्य लोगों की अधीनता में रहा है। यदि सौभाग्य से ऐसा नहीं है तो पुस्तकालय में किसी पराधीन देश का इतिहास देख लेना आपके लिए पर्याप्त होगा। उसकी पराधीनता एवं उसके उत्पीड़न का क्रम भी वहीं है, जो सदा सर्वत्र रहता आया है। अब इस सब इतिहास को दोहराने से क्या लाभ? वह तो केवल अपने लोगों की और अपनी बात सोचता है? शिकारी तो जाल फैलाता ही है और दाने भी डालता है उसमें, किन्तु खेद तो पक्षी पर है, जो नेत्र रहते भी उस जाल पर जा बैठता है। उसने, उन सभी ने शिक्षा प्राप्त की, स्वच्छता सीखी, सभ्यता सीखी और बहुत कुछ सीखा। उन्हें पक्के मकान मिले, कल-कारखाने मिलें, चमकते-दमकते वस्त्र मिले, बिजली मिली नवीनतम चिकित्सा एवं मनोरंजन के साधन मिले, रेल मोटर, वायुयान तथा सभी वैज्ञानिक उपकरण मिले, लम्बी लम्बी उपाधियाँ मिलीं, तितली सी पत्नियाँ मिली और इसी प्रकार बहुत-सी बातें मिली। लेकिन यह अधूरी रह जायेगी, यदि यह न कहा जाय कि इसी के साथ उसे और उसके साथियों को चोरी मिली, झूठ मिला, क्रोध मिला, अनाचार मिला, अविश्वास मिला, अश्रद्धा मिली, कलह मिला, आडम्बर मिला, विलासिता मिली, फिजूलखर्ची मिली और ऐसी ही यूरोपीय सभ्यता का वह सब प्रसाद मिला जो सभ्य देशों को प्राप्त होता है।

उन्होंने अपनी झोपड़ियाँ छोड़ दी कहने को सभ्यता छोड़ दी, केले के छिलके लपेटने छोड़ दिए, साभ ही भोलापन छोड़ दिया। इसी के साथ ही उसे अपनी शान्ति, अपना सुख, अपना आचार भी छोड़ देना पड़ा। उसे दया, क्षमा, सादगी, सरलता सब छोड़ देनी पड़ी। उसके समाज में जो आज नेता है, जो विद्वान हैं वे बार बार कहते हैं कि उन्हीं के सत्प्रयत्न से यहाँ के लोगों का जीवन स्तर इतना ऊँचा हुआ है, किन्तु उसे उनकी बात स्वीकार नहीं, उसे लगता है कि बाहरी जीवन-स्तर ऊँचा होने के साथ-साथ वास्तविक जीवन उसी क्रम से नीचा होता गया है और मानवता तो द्वीपवासियों से तो बहुत ही दूर जा पड़ी है। उसका टापू अब वैसा हरा- भरा कहाँ है? कहाँ हैं वे केले और नारियल के प्राकृतिक वन? केले और नारियल दिखाई तो अब भी पड़ जाते हैं, पर अब वे शोभा के लिए लगाये गये हैं। अब वे लट्ठों पर बनी पवित्र कुटीरें दिखाई ही नहीं पड़ती।

कहाँ है अब वैसे सरल, निष्कपट एवं स्वस्थ लोग? अब तो नियमित रूप से घरों में हर सातवें दिन डॉक्टर आता है। उसे रोज न आना पड़े, यह गृहपति के लिए सौभाग्य की बात है। अब दूसरों से व्यवहार करते समय यह मान लिया जाता है कि वह यदि मूर्ख नहीं है तो हमें ठगेगा और हमें उसको ठगना है। यह तो सामाजिक कर्त्तव्य है अतिथि सत्कार की चर्चा ही व्यर्थ है।

पाश्चात्य दुनिया ने उसे जो भी दिया है, उससे वह बेहद क्षुब्ध है। क्यों? इसका ठीक-ठीक उत्तर तो वह भी नहीं सोच पाता है। फिर भी उसका मानना यही है कि हमने जो किया है, उसका फल अब सामने है, तब भला क्षोभ क्यों होना चाहिए। अब तो उसका पुत्र भी उसकी बात नहीं मानता। वह भी अपने बड़े भाई से इसीलिए अलग हुआ था, क्योंकि संयुक्त परिवार उसे दासता नजर आ रहा था। बड़ों का स्नेह उसे काटने दौड़ता है। अब अगर उसी का पुत्र उसकी दासता को स्वीकार नहीं करता तो पुत्र का क्या दोष? पाश्चात्य दृष्टि से वह सभ्य है, शिक्षित है, फिर भला क्यों किसी की दासता स्वीकार करें? अब वह भी अपनी पसन्द की एक लड़की से विवाह करने जा रहा है, जब उसने अपने पुत्र को रोकना चाहा, तब पुत्र ने उसे स्पष्ट कह दिया मेरे व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करने का आपको कोई अधिकार नहीं। उसे मालूम है कि उस लड़की का आचरण अच्छा नहीं है। वह अच्छे खानदान की भी नहीं है हारकर उसे यही सोचना पड़ा, जो भी हो, उसके साथ जब मुझे नहीं, मेरे बेटे को पूरा जीवन व्यतीत करना है, तो मैं बीच में पड़ूँ क्यों मुझे क्या अधिकार? यही हाल उसकी लड़की का है? आखिर वह भी तो पाश्चात्य रंग में रंगी है। जब उसने उस दिन अपनी पुत्री से बड़े प्रेम से पूछताछ की तो वह क्रोध से लाल हो गयी। वह कहने लगी-आचार की ये रूढ़ियां हम स्त्रियों को गुलाम बनाने के लिए गढ़ी गयी हैं। पुरुषों की दासता मैं स्वीकार नहीं कर सकती। किसी को कोई अधिकार नहीं कि मेरे आने-जाने, मिलने-जुलने पर प्रतिबन्ध लगाये। मैं अपने सम्बन्ध में स्वयं विचार कर सकती हूँ। पुत्री का जवाब सुनकर वह चुप रह गया। ठीक ही तो है, जैसे पुरुष स्वतंत्र है, वैसे ही स्त्री भी स्वतंत्र है, पर शायद उसने स्वच्छन्दता को ही स्वतंत्रता समझ लिया।

यही तो पाश्चात्य संस्कृति की विशेषता है कि वे स्वच्छन्दता को ही स्वतंत्रता का प्रर्याय समझ बैठे हैं।

और उसकी पत्नी! अब यह कोई न ही पूछे तो अच्छा है। उसकी वह पत्नी जिसके साथ उसके अपने बुजुर्गों को ठुकराकर विवाह किया था, वह इस समय सातवाँ विवाह कर चुकी है। वैसे उसके भाग्य इस विषय में अच्छे हैं, क्योंकि उसकी दूसरी पत्नी ही उसके घर में अब तक है। हाँ यह बात अलग है कि उसकी वर्तमान पत्नी के लिए यह तीसरा पतिगृह है। वैसे यह गृह देवी संयोगवश ही उसे प्राप्त हुई और तब तक वह सीख चुका था कि अपनी रुचि और स्वतंत्रता का गर्व कितना कष्टदायी है। अब उसके घर में उसे छोड़कर शेष सब स्वतंत्रता हैं। केवल वह ही उसकी इच्छा का गुलाम है। सबके लिए धन कमाने का यंत्र बनकर रह गया है। जीवन में सिर्फ परिश्रम ही परिश्रम है, परिश्रम के पश्चात मिलने वाला विश्राम नहीं। क्योंकि जब विश्राम के स्थान पर जोकि ‘घर’ कहा जाता है, तब वहाँ इस प्रकार का स्वागत मिलता है कि उसे पाकर उसके घर का कुत्ता भी वहाँ दो क्षण बैठना न चाहेगा। नहीं, आप भ्रम में न पड़ें। उसका घर पाश्चात्य रीति-रिवाज से सुरक्षित और सभ्य है। उसके घर का कोई व्यक्ति समाज की सभ्यता, शिष्टता का अनादर कभी नहीं करता। उसका पुत्र, पुत्री और पत्नी कभी उसका अपमान नहीं करेंगी, यदि कोई तीसरा व्यक्ति वहाँ हो। उसकी दोनों संतानें प्रातः- साँय गुडमॉर्निंग- गुडइवनिंग कहना नहीं भूलते। उसकी पत्नी भी अब शिष्टाचार पूरे चुकाती है, जो एक सभ्य स्त्री को चुकाना चाहिए। पाश्चात्य जीवनशैली ले द्वीप निवासियों को याँत्रिक सभ्यता तो दी है। वह भी सोचता है कि हम यंत्र युग के प्राणी हैं, तब हमें क्यों न इस यंत्र के आचारों पर संतुष्ट हो जाना चाहिए। पर हृदय लेकिन क्या स्वयं उसने अपने पास हृदय को जीवित रहने दिया है? जब उसने स्वयं ही अपने हाथों अपनी भावनाओं का गला घोंट दिया, तब उसके न मिलने पर अफसोस क्यों। औरों की बात छोड़ दीजिए, स्वयं उसका अपना शरीर और मन है। वह श्रम करता है या कपट करता है, पर उसने सोने की ढेरी लगा दी है। इतने पर भी उसे सुख क्या मिला है? चिकित्सक कहता है कि उसे मधुमेय हैं उसका पेट खराब है। उसे सब मीठी वस्तुएं छोड़ देनी पड़ी हैं। रूखे उबले शाकों पर उसे रहना पड़ता है। कोई आमोद-प्रमोद का उसके लिए उपयोग नहीं। वह दौड़ नहीं सकता। चल नहीं सकता। कुछ दूर और तो और दो घण्टे बैठा भी नहीं रह सकता। मन की दशा और दयनीय है, क्रोध, ग्लानि, क्षोभ, विषाद, दुःख के अतिरिक्त वहाँ कुछ भी नहीं। अशान्ति, क्लेश, शोक-जीवन जैसे इन तीनों शब्दों से ही बना है।

अब उसका घर द्वीप की पुरातन शैली का नहीं है। घर का बगीचा द्वीप के सुन्दरतम उपवनों में है। घर का भवन बहुत बड़ा और कलापूर्ण सामग्रियों से सुसज्जित है। बड़ी तड़क भड़क से आने वाले का राजोचित सत्कार किया जा सकता है। किन्तु इस राजोचित ठाठ-बाट में हर कहीं एक गहरी हृदय शून्यता समायी है। यह खोखलापन ही तो पाश्चात्य आधुनिकता का प्रर्याय है। भौतिकवादी जड़ संस्कृति का अनुदान है।

इस घर में रहते हुए उसे कई वर्ष और व्यतीत हो चुके। उसका घर, अपने इस घर के बारे में जब वह स्वयं सोचता है, तब उसे कहीं अंतस् की गहराइयों में महसूस होता है कि उसका घर या भवन तथा उसकी जो भी सम्पत्ति है, सही मायने में तो वह समाज की थी। उसने तो सिर्फ छल, झूठ और कपट के व्यवहार के द्वारा समाज से उसे ठग लिया था। इससे इस सच्चाई में कोई अन्तर नहीं पड़ता कि आज के समाज में इसे नीतिपटुता प्रैक्टिकल होना या व्यवहार कुशलता का या फिर कोई दूसरा उत्तम नाम दिया जाता है। इससे भी कोई अन्तर नहीं पड़ता कि समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति ऐसा ही करते हैं।

समाज आज इस बटोरी गयी सम्पत्ति पर उसका स्वत्व मान चुका है, यह तो ऐसी ही बात है, जैसे हम चोर के पास जो चोरी की वस्तु है, उसे चोरी की न जानने के कारण चोर के स्वत्व की वस्तु मानते हैं। जैसे ही उसे इस सत्य का बोध हुआ, उसने अपनी सबकी सब सम्पत्ति सामाजिक कार्यों के लिए दे डाली। स्त्री पुत्र, और पुत्री के प्रति भी उसके कर्तव्य पूरे हो चुके थे। क्योंकि स्त्री को अपने लड़के के साथ रहना स्वीकार था और सन्तानों की शिक्षा पूरी हो चुकी थी। वे दोनों ही स्वतंत्रता रहना चाहते थे। जीवन के पूरे विचार आचार एवं उपार्जन सब में ही वे स्वतंत्रता थे। लेकिन उसे तो जैसे यह जिन्दगी बोझ लगने लगी थी। उसके बड़े भाई की उदारता सराहनीय थी। उसके वापस लौटने पर उन्होंने पूछा तक नहीं पिछली भूलों के विषय में। अब वे द्वीप निवासियों का पुराना जीवन व्यतीत करे रहें थे। अवश्य ही उनके लिए उनके झोपड़े में चावल या आलू उबाल लिया जाता था तथा रोटियाँ सेक ली जाती थीं। वैसे अभी भी वे स्वयं नारियल तथा केले के पुराने आहार पर ही रहते हैं।

इस वापसी पर कईयों ने कहा कि उसने सभ्यता छोड़ दी? हाँ, सभ्यता के नाम पर उसने कृत्रिमता अवश्य छोड़ दी, विज्ञान के दिये नये-नये उपहार भी छोड़ दिये। इसी के फलस्वरूप उसके शरीर को रोगों ने छोड़ दिया। अब वह बड़े मजे से केले और नारियल का संग्रह करता है, यथेष्ट चल भी चलता हैं, थोड़ा बहुत दौड़ने भी लगा है। इसी के साथ उसके मन नें भी बहुत कुछ छोड़ दिया है। अब शोक, क्लेश, क्षोभ उसे तंग नहीं करते। जैसे ही उसने द्वीप के पुराने जीवन को अपनाया, वैसे ही द्वीप ने उसे सुख शान्ति के अलौकिक उपहार दे डाले। यह बात ठीक है कि द्वीप का पूरा समाज पहले की स्थिति में नहीं लौट सकता। नारियल के वन जितनी सरलता से काटे गये थे, उतने शीघ्र नहीं लगाये जा सकते सबके हृदय की सर्वथा नहीं बदले जा सकते। लेकिन एक काम किया जा सकता है कि द्वीप के उस विशाल वृक्ष के नीचे देवता का वह जो छोटा-सा मन्दिर है उसे फिर से बनाया जा सकता है। सम्भवता द्वीपवासी देवता को फिर से अपना सकते हैं, और देवता को तभी अपनाया जा सकता है, जब सत्य, सदाचार तथा परिश्रम से पवित्र जीवन एवं पूजा सामग्री लेकर सब उस छोटे से देव-मन्दिर में जाएँ।

यह सोच और आप बीती अफ्रीका के एक छोटे से द्वीप में रहने वाले रुथ दुमन्तरा की है, जिसने पाश्चात्य जीवन शैली में दर्द भोगा, वैज्ञानिक कृत्रिमता के दुख झेले। आधुनिकता की हृदय-शून्यता अनुभव की। और यह वह फिर से अपने द्वीप को पुरातन सभ्यता की ओर लौट गया। उसका कहना है कि पुराना है वह सबका सब बुरा नहीं है। हमारी भाव-संवेदनाओं की गंगोत्री अतीत के गौरव में ही है। इसकी मौलिकता देव-मन्दिरों में ही कही है। इपने अनुभव के आधार पर वह सभी से पूछता है, मानवता क्या उस छोटे-से मन्दिर बनने के लिए देव मन्दिर की देव संस्कृति की ओर बढ़े बिना भी कोई दूसरा मार्ग मिल सकता है।


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