नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के जन्मदिवस एवं जन्मशती के अवसर पर- - सार्वभौम शक्तिशाली भारत के स्वप्नद्रष्टा नेताजी

January 1998

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23 जनवरी, 1897 को एक स्वप्न मुस्कराया था। आज से एक शताब्दी पूर्व नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के जन्म के समय भारतमाता ने अपने अभ्युदय की आशाएँ सँजोयी थीं। भारत के राष्ट्रीय संघर्ष की ज्वालाएं उनके अस्तित्व में धधकती दिखाई दीं। वे सच्चे अर्थों में राष्ट्रपुरुष थे। उन्होंने राष्ट्रनिर्माण का स्वप्न देखा था। अपनी मनोभावनाओं को व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा भी मैं अपने सपनों से प्रेम करता है। इन सपनों से मुझे प्रेरणा और संकल्पशक्ति प्राप्त होती है। मेरा सपना है स्वतंत्र, विशाल, महिमाण्डित एवं गौरवशाली भारत का अभ्युदय।

नेताजी कहा करते थे- भारत विश्व प्रासाद की नींव का पत्थर है। हमारी धरती अति प्राचीन है और हमारी सभ्यता एवं संस्कृति भी महान और प्राचीन है। क्षितिज के उस पार, बल खाती हुई नदी के दूसरी ओर, लहराते हुए जंगलों के पार इन धूमिल पर्वतों की ओट में हमारी जन्मभूमि है। जिसके धरातल से आकर्षित होकर स्वर्ग के देवता उतर आये थे। यह हमारी जन्मभूमि है, जिसकी धूल में राम और कृष्ण घुटनों के बल चले थे। मातृभूमि की उसी चरण धूलि में हमने तुमने जन्म लिया है। इसी धूल में हमारे इन सुगठित शरीरों का निर्माण संभव हुआ है। हमारी नसों में, रगों में उसी जन्मभूमि का अकूत प्यार समाया हुआ है और संचरित हो रहा है। हमें यदि अपनी स्वर्गादपि गरीयसी मातृभूमि के लिए कष्ट सहने पड़ते हैं तो क्या यह प्रसन्नता का विषय नहीं है। मेरी मातृभूमि मेरी रग रग में सतत् समायी हुई है। मेरी कल्पना की आंखों के आगे हर क्षण मौजूद है। इस आन्तरिक निकटता में असीम आनन्द है। जन्मजात आशावादी होने के कारण अखण्ड भारत के प्रति मेरा आत्मविश्वास अभी भी दृढ़ है। गहन अंधकार के पश्चात् प्रकाश के दर्शन होते हैं। वर्तमान समय में भले ही हम लोग गहन तमिस्रा से गुजर रहे हों, परन्तु उदीयमान नवप्रभात अति सन्निकट है।

एक व्यक्ति की भाँति राष्ट्र के जीवन में भी विस्तार का नियम होता है। प्रत्येक राष्ट्र का अपना एक विशेष विश्वास या आदर्श होता है। इसी आदर्श में समस्त जीवनदायिनी शक्ति निहित होती है। भारत की यह जीवनदायिनी शक्ति आध्यात्मिकता है। यही कारण है कि भारत की सभ्यता और संस्कृति अगणित आघातों को सहने के बावजूद जीवन्त और प्रखर है। अन्धकार युग में भी यहाँ वैचारिक क्रान्तियाँ जारी रही। उपनिषद् युग से लेकर रामकृष्ण विवेकानन्द तक विविधता में एकता जीवन का आदर्श रहा है। इसी विविधतापूर्ण साँस्कृतिक परम्परा के आधार पर विशुद्ध भारतीय ढंग से संघबद्ध होकर भावी सभ्यता का आधार विनिर्मित होगा। भारतीय आदर्श युद्ध नहीं प्रेम है। यह प्रेम ही भविष्यत् सभ्यता के आधार का निर्माण करेगा। मेरा विश्वास है कि यह भगवद् इच्छा है कि भारत और भारतीयता उत्तरोत्तर अधिकाधिक जीवन्त और प्रखर हों। क्योंकि इसे विश्व की बहुत कुछ देना है और सिखाना है। अकेला भारत राष्ट्र ही है, जिसके पास दुनिया की भलाई का एक मिशन है। केवल यहीं पर अति मानव के आदर्श की अनुभूति सम्भव है। भारत की समस्या विश्व की समस्या है। विश्व की मुक्ति भारत पर निर्भर करती है। अतएव मैं कहता हूं कि भारत की रक्षा का अर्थ मानवता की रक्षा है। भारत की मुक्ति मानवता की मुक्ति है।

हम भारत का नव-निर्माण करना चाहते हैं, इसे सर्वश्रेष्ठ बनाना चाहते हैं, तो हमें अपने विचारों को बदलना पड़ेगा। विचार और रचनात्मक गतिविधि मूलतः जीवन की पहचान होती है। हमारे पास सद्विचारों की गौरवपूर्ण सम्पदा भारी मात्रा में है, आवश्यक है तो इसका घर-घर वितरण। सुनहरे भारत के भविष्य हेतु विपुल एवं सम्पूर्ण संसाधन हमारे पास विद्यमान हैं। अतः हमारा भविष्य निश्चय ही गौरवशाली है। आज हमें राष्ट्रीय जागरण की जरूरत है। इसी के बलबूते भारत अपनी विशिष्ट सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक संरचना को विकसित करने में सक्षम होगा। अपने देश को विश्व संस्कृति व सभ्यता में कुछ नया योगदान करना है। अतः राष्ट्र को एक ऐसी विचारक्रान्ति की आवश्यकता है, जो व्यक्ति और राष्ट्र को सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त करा सके और आत्मनिर्भरता और आत्माभिव्यक्ति की नूतन शक्ति प्रदान कर सके। हम सामाजिक बेड़ियों को तोड़ते हुए, मनुष्य की सृजनात्मक सक्रियता को विकास का अवसर प्रदान करने हेतु एक और बेहतर संसार का निर्माण करना चाहते हैं। इसकी जड़ एकमात्र मानव स्वभाव की गहराई में ही समाहित हैं। जिन्हें खाद-पानी दे सकना सिर्फ और सिर्फ विचार क्रान्ति से ही सम्भव है।

राष्ट्रनिर्माण निर्जीव माँसपेशियों की थिरकन भर नहीं है। मेरा विचार है कि रचनात्मक गति जीवन में आनन्द प्रदान करती है। नूतन राष्ट्र की कल्पना से ही मैं आत्मविभोर हो उठता है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी निजी क्षमता एवं प्रवृत्ति के अनुसार अपनी पूर्णता को प्राप्त करे, यही सम्पूर्ण राष्ट्र के जीवन में अध्यात्मिक अवनति, साँस्कृतिक अधः पतन नितान्त निर्धनता और राजनैतिक दासता की बेड़ियाँ टूटने ही वाली हैं। भारतवर्ष प्रखर एवं शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में अतिशीघ्र स्थापित होगा। आज का तमसाच्छन्न देश कल बाहर निकलकर आनन्द एवं ज्योतिर्मय प्रकाश से जगमगा उठेगा। ऐसे में हमारी राष्ट्रीय साधना है कि सभी शक्तिमान आत्माएँ भारत के गाँव-गाँव और घर-घर में उज्ज्वल भविष्य का सन्देश पहुँचा दें, तभी समूचे राष्ट्र में नव-जागरण एवं नये जीवन का संचार हो सकता है। ध्यान रहे राष्ट्र सेवा मात्र शरीर से ही नहीं आत्मा से भी की जा सकती है। आत्मा के आह्वान पर बलिदानों के रक्त से मातृभूमि की अर्चना और अभ्यर्थना करनी पड़ती है, आध्यात्मिक जाग्रति के बल पर ही भारत का पुनर्निर्माण सम्भव है।

सुभाष चन्द्र बोस भारत को अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे। उनके मानस पटल पर विशाल राष्ट्र का भव्य स्वरूप था और वे उसकी समग्रता के आराधक एवं उपासक थे। उनके अनुसार विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय, जाति या वर्ग के व्यक्ति राष्ट्रीय उत्थान का लक्ष्य लेकर चलें तो उनकी आस्था और विश्वास में कभी टकराहट नहीं पैदा होगी। राष्ट्र ही राष्ट्र धर्म होना चाहिए। इसकी व्याख्या उनके एक पत्र से स्पष्ट होती है- भारत के हिन्दुओं की यह अविच्छिन्न परम्परा रही है कि वह उन सभी समुदाय, जाति तथा वर्गों को समुचित सम्मान देकर प्रतिनिधित्व देते हैं, जो भारत को अपनी मातृभूमि मानते हैं। अपने राष्ट्र की जनता ने साम्प्रदायिकता के विरुद्ध लड़ाई लड़ी है, क्योंकि साम्प्रदायिकता की भावना विशुद्ध और निष्कलुष राष्ट्रीयता के विकास के लिए अत्यन्त घातक है।

सांप्रदायिक कठ्रता के विरोधी होते हुए भी धर्म-भावना उनके रोम-रोम में समायी थी। उनकी मान्यता थी कि धर्म व्यक्ति की आत्मा को बलिष्ठ और शक्तिशाली बनाता है और आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति ही सशक्त राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। आदमी केवल रोटी खाकर जीवित नहीं रहता, उसके लिए नैतिक और अध्यात्मिक खुराक की भी आवश्यकता है। किसी भी देश और किसी भी युग में केवल तप और त्याग के बल पर ही कोई समाज उन्नत और समृद्ध होता है। शाश्वत सिद्धान्त तो यही कि शहीद का खून ही गिरजाघर, मन्दिर, मस्जिद का बीज होता है। यह आत्मा की विधि है कि देश को जीवित रखने के लिए व्यक्ति को मरना पड़ता है। सुभाष के जीवन में स्वामी विवेकानन्द का गहरा प्रभाव पड़ा था। वे उन्हें अपना अध्यात्मिक गुरु मानते थे। उन्होंने राष्ट्रीय एकता के मंत्रदृष्टा स्वामी विवेकानन्द के विचारों से ही अपने मन की स्थिरता, राष्ट्रीय के प्रति अविचलता, संकल्पों की अडिगता और कर्मयोग की भावना प्राप्त की।

4 अप्रैल 1927 को अपने एक मित्र गोपाल ला सान्याल को लिखे गए एक पत्र में उनके अन्तर की अभिव्यक्ति झलकती है-जब तक हम अपना जीवन शत- प्रतिशत बलिदान करने को तैयार नहीं होंगे, तब तक हमारे लिए दृढ़ और अडिग खड़ा रहना सम्भव नहीं। मैंने अपना जीवन उस प्रार्थना के साथ प्रारम्भ किया था, तुम्हारी पताका लेकर चल रहा हूँ उसे वहन करने की शक्ति तुम्हीं देना। मुझे पता नहीं कि भविष्य के गर्भ में मेरे लिए क्या हूँ केवल अपने अन्तर को विकसित करते जाने में ही अनन्त आनन्द है। मुझे बाह्य नहीं आन्तरिक मानदण्ड प्रिय है। संसार मेरे जीवन को व्यर्थ समझे तो मेरी दृष्टि में वह व्यर्थ नहीं है और शायद मेरे ईश्वर की दृष्टि में भी इस संसार में सभी वस्तुएँ क्षण-भंगुर हैं, लेकिन विचार और आदर्श अवश्य अमिट हैं। हमारी आशाएँ आकाँक्षाएँ और एक आदर्श राष्ट्रीय जीवन को पत्थर की दीवार में कौन भला कैद कर सकता है।

मानवता सत्ता में निहित दैवीय प्रयोजन में मेरा सदैव विश्वास रहा है। मुझे कोई सन्देह नहीं कि मैं अपेक्षाकृत एक उत्तम, शुद्ध और आदर्श व्यक्ति के रूप में सामने आऊँगा, जो निर्द्वन्द्व और निः स्वार्थ भाव से स्वयं का महान लक्ष्य की सेवा में पूर्णतः समर्पित कर देगा। कष्ट सहन के लिए बिना मनुष्य अपने आध्यात्मिक लक्ष्य से एकीकृत नहीं हो सकता और सब तक वह इस अग्निपरीक्षा से होकर न गुजरे तक उसे अपने भीतर संचित असीम शक्ति के बारे में निश्चयात्मक बोध नहीं हो सकता। इस अनुभव का ही यह परिणाम रहा है कि मैं अपने आप को अधिक गहराई से जान सका हूँ और मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ गया हैं जिसका हृदय जितना विशाल होता है, उसकी पीड़ा भी उतनी ही विशद होती है। ईश्वर जिसे प्रेम करता है वे बार-बार दुःख और विपत्तियों का शिकार होते हैं।

राष्ट्र- निर्माण में आने वाले समस्त कष्टों को वे ईश्वरीय वरदान समझते थे। साथ ही वे राष्ट्र की युवा शक्ति के द्वारा ही भारत माता के सुनहरे भविष्य का स्वप्न देखते थे। युवा शक्ति का आह्वान करते हुए उनका स्वर था-ऐ युवाओं! तुम ही वह शक्ति हो, जिसके बल पर भारतमाता के अधिकारों की रक्षा सम्भव है। मत भूलो कि शक्तिहीनता सबसे बड़ा अभिशाप है। मत भूलो की असत्य और अन्याय से समझौता करना सबसे बड़ा पाप है। इस शाश्वत नियम को याद रखो यदि तुम जीवन प्राप्त करना चाहते हो, तो जीवन दे डालो और यह याद रखो कि अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करना जीवन का सबसे अहम् कर्तव्य है, उसके लिए चाहे कितना ही मूल्य क्यों न चुकाना पड़े। आज हमारी केवल एक इच्छा होनी चाहिए, मरने इच्छा, रखो ताकि शहीदों के खून से राष्ट्रनिर्माण का रास्ता तैयार हो सके। यदि तुम गुलाब के फूलों की सुरभि चाहते हो तो उसके तीखे कांटों से परहेज मत करो। यदि तुम भोर की अरुणिमा का आनंद उठाना चाहते हो तो उसके अँधेरे का तिरस्कार मत करो। यदि तुम राष्ट्रनिर्माण का वरदान चाहते हो तो उसका मूल्य चुकाओ और याद रखो यह मूल्य तप और त्याग।

हमारी निष्ठा केवल भारतवर्ष के लिए होनी चाहिए। आओ हम भारतमाता के लिए जिएँ और मरें। आओ हम समग्र शक्ति-संचय के साथ उत्सर्ग करें। दुनिया में ऐसी कोई ताकत नहीं जो सत्पथ पर बढ़ते हमारे कदमों को रोक दे। जो सत्य में विश्वास रखता है अन्त में उसी की विजय होती है॥ केवल सत्य और न्याय ही विजयी होता है। मैं उसे ही सच्चा वीर मानता हूँ जो आँखों में राष्ट्रीय अभ्युदय के सपने, हाथों में मौत के फूल और दिल में देशभक्ति का तूफान लिए होता है। हमारा आदर्श है अच्छी स्थिति की आशा करो और बुरी स्थिति के लिए तैयार रहो। महान सत्य यह है कि एक व्यक्ति का जीवन पूर्ण सत्य है और एक जीवति मनुष्य के लिए स्वतन्त्रता अभीष्ट है। यह अत्यन्त उदात्त आदर्श है जिसे आत्मसात और ग्रहण करना बहुत कठिन है। परन्तु हमारे युवाओं को इस आदर्श को ग्रहण करना होगा। जब एक राष्ट्र विनिर्मित होता है, तो यह निर्माण पूर्ण और समग्र होना चाहिए। इसके लिए ऐसा युवा रक्त चाहिए, जो इस पवित्र और पावन उद्देश्य के लिए अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर दे।

एक बार जब हमारे हृदय में देशप्रेम की इच्छा उदीप्त हो जाएगी तब वह अपनी पूर्ति के लिए स्वयं ही उपकरण की तलाश कर लेगी। इसके प्रभाव से बलिष्ठ शरीर, परिशुद्ध बौद्धिक और नैतिक बल के रूप में हमारा सम्पूर्ण जीवन नैतिक बल के रूप में हमारा सम्पूर्ण जीवन महान उपकरण बन जाएगा। जिसका हृदय एक नवीन और उच्चतर जीवन की प्राप्ति की आकाँक्षा से परिपूर्ण है, वह कभी परिस्थितियों की परवाह नहीं करता। एकमात्र देश के लिए बलिदान हो जाना ही हमारा ध्येय है। भीषण तूफान के पूर्वाभास के रूप में समय-समय पर हवा के झोंके आते रहे हैं और थोड़े-थोड़े अन्तराल में बिजली कड़क रही है। ऐसी विषम परिस्थितियों में हम जैसे यात्रियों का यही कर्तव्य है कि अपने लक्ष्य की ओर आंखें लगाए हुए अपने हृदय में आशाएँ, आकाँक्षाएँ और उत्कंठाएँ लिए राष्ट्र-निर्माण के आग्नेयपथ पर अग्रसर हों। इसका कोई महत्व नहीं कि भारतमाता के लिए जीवित रहेगा, कौन नहीं? हमारे लिए आत्मसंतोष की बात यह है कि हम भारतमाता के लिए अपना सर्वस्व समर्पण कर देंगे। मैं सर्वस्व चाहता हूँ, इससे कुछ कम नहीं।

यह मेरे स्मरणीय दिन है, जब मैंने सब सुख-सुविधाओं को तिलाँजलि देकर संघर्ष के क्षेत्र में कदम रखा, जिसके प्रति हर युग के युवाओं में मन में तीव्र आकर्षण रहा है। इसलिए हे युवाओं! मैं तुम्हें आह्वान करता हूँ, आओ अपने देश के लिए, अपनी माटी के लिए अनन्त बार मर मिटे। यहाँ तक कि अपने निष्कपट विचारों के लिए हमें मृत्यु का वरण करना पड़ सकता है। यद्यपि उस मृत्यु के कारण हम अमरत्व को प्राप्त करेंगे। अतएव हमें किसी भी आपातकाल के लिए कटिबद्ध रहना है। त्याग, कष्ट और कठिनाइयों के अभाव में क्या जीवन शुष्क और नीरस प्रतीत नहीं होगा। हमें तमाम बेड़ियों को तोड़ने के लिए कठोर प्रहार करना होगा। आओ हम स्वयं अपने तथा देशवासियों के मन में उज्ज्वल भविष्य की कामना को को जाग्रत करें। इससे मिथ्या मानदण्ड घिसे–पिटे रीति-रिवाज और प्राचीन प्रतिबन्ध ध्वस्त हो जाएँगे और राष्ट्र सुनहरे, भविष्य में प्रवेश करेगा।

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस राष्ट्र में एक ऐसे समाज के स्वप्नद्रष्टा थे, जहाँ जाति, वर्ग, धर्म, संप्रदाय और लिंग -भेद की असमानता न हो। उनकी समाजवाद की कल्पना वैदेशिक धारणाओं पर आधारित न होकर अनिवार्यतः भारतीय इतिहास और राष्ट्र-परम्पराओं पर आधारित विचार एवं कल्पना है। जिस समाजवाद के वे हामी थे उसका मूल भारत की संस्कृति और सभ्यता में सन्निहित है। वे अपनी पुस्तक ‘ इण्डियन स्ट्रगल’ में लिखते हैं, भारतवर्ष को अपने भूगोल और इतिहास के अनुसार समाजवाद का विकास करना चाहिए, जिसमें नवीनता और मौलिकता हो तथा वह सारे संसार के लिए लाभदायी हो। उनका मानना था, भविष्य में भारत अपने समाजवाद के स्वरूप को स्वयं विनिर्मित करेगा, जो समस्त संसार के लिए अनुकरणीय होगा। समाज-व्यवस्था में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन एवं एक सम्पूर्ण क्रान्ति की आवश्यकता है और और क्रान्ति का जन्म विचारों के व्यापक प्रसार से ही सम्भव होता है। इसीलिए विचार-क्रान्ति की मशाल महामशाल प्रज्वलित करने वाले वह समाज को एक नई दिशा दे सके।

राष्ट्रनायक सुभाष अपने समाजवाद का मूल स्रोत युगद्रष्टा स्वामी विवेकानन्द को मानते थे। उनका कहना था, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज से परे उसका आत्मपरितोष सम्भव नहीं है। व्यक्ति अपने उन्नयन और विकास के लिए उसी तरह समाज पर निर्भर करता है, जिस प्रकार समाज की निर्भरता व्यक्ति पर है। सम्पूर्ण समाज के लिए स्वतन्त्रता का अर्थ होगा- पुरुष के साथ स्त्री, की स्वतन्त्रता, उच्च जातियों के साथ दलितों का उत्थान, केवल धनवानों के लिए ही नहीं निर्धनों की भी स्वतन्त्रता, आबाल-वृद्ध सबके लिए स्वतन्त्रता। इस प्रकार स्वतन्त्रता में समानता अन्तर्निहित है और समानता से विकास ओर प्रगति की प्रतिध्वनि निकलती है। समाज में सबको शिक्षा और विकास के समान अधिकार प्रदान करना होगा। समाज में सबको समान अवसर, सामाजिक नियमों का विवेकसम्मत प्रचलन, कुरीति, अन्धविश्वास तथा जातिप्रथा का अन्त होना आवश्यक हैं समानता, न्याय, स्वतन्त्रता अनुशासन और प्रेम ही सामूहिक जीवन का आधार है। हमारा सम्बन्ध उस राष्ट्र और सामाजिक ढाँचे से है, जो मनुष्यता के चरित्र विकास में सहायक होगा और हमारे सामूहिक मानवता के स्वप्न को साकार करेगा।

वे इस बात को हिमायती थे कि भारतीय राजनीति में वे सभी तत्व समाहित हों जो जन-कल्याणकारी होने के साथ ही उदात्त भावनाओं से भी सम्पृक्त हों। नवम्बर 1944 में टोकियो विश्व-विद्यालय के छात्रों के सम्मुख व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा था-यदि कोई यह कहे कि किसी एक राजनैतिक प्रविधि में मानव प्रगति की अन्तिम सीमा सन्निहित होती है तो उचित नहीं है। मानव प्रगति कभी रुक नहीं सकती और संसार के पिछले अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि हमें किसी नयी राजनैतिक प्रविधि का प्रादुर्भाव करना पड़ेगा। देशभक्त नेताओं को निर्माण दमन, यातना, अवमानना और पीड़ा के माध्यम से होता है। इसलिए इन कठिनाइयों का हार्दिक स्वागत करना चाहिए। नेता को जनता का सेवक होना चाहिए। सार्वजनिक सेवा का जीवन संन्यास की तरह होता है। त्याग और सेवा को ही भारतीय राजनीति के सर्वमान्य मूल्यों के रूप में प्रतिष्ठित करना होगा।

इसके लिए हमारा सबसे पहला काम यह होना चाहिए कि हम इस प्रकार के स्त्री-पुरुषों का समूह संगठित कर लें जो अधिक से अधिक कष्टसहन करने और बलिदान देने के लिए तैयार रहें। हमें ऐसे लोग चाहिए जिन पर राष्ट्रसेवा का नशा चढ़ा हुआ हो और जो किसी असफलता या किसी प्रकार की कठिनाई से हतोत्साहित न हों। भारतमाता ऐसे लोगों के पुकार रही हैं, जो अपने जीवन के अन्तिम दिन तक अपने महान उद्देश्य की पूर्ति के प्रयत्न और कार्य करते रहने की प्रतीक्षा करें। जो केवल अपने देश को, केवल अपने इसी लक्ष्य के लिए समर्पित रहें।

मैं अपनी आंखों से भारत का पुनर्जन्म देख रहा हूँ। जहाँ नारी वर्ग में जीवन का नूतन स्पन्दन होगा और वही राष्ट्र को नवजीवन प्रदान करेगी। भारत की महान नारियों का इतिहास वैदिक युग की ही भाँति प्राचीन एवं महान है। हमारे देश में जब देववाणी संस्कृति का युग था, तभी से भारतीय नारी वर्ग की महानता का प्रादुर्भाव हो चुका था। प्राचीनकाल की ही भाँति आधुनिक युग में भी भारत की कोख से सर्वोत्तम वीराँगनाओं का जन्म होगा। उनके अदम्य साहस की कल्पना कल्पनातीत है। भारतीय नारी हर कार्य को बहुत कुशलता के साथ निर्विघ्न सम्पन्न कर सकती है। प्रतिकूल राजनैतिक-परिस्थितियों में भारत की राष्ट्रीयता को नष्ट होने से बचाने का श्रेय भारत की बेटियों को ही है। भारत माता पुत्रियों ने सदा-सदा भारतीयता और मानवीयता की रक्षा की है। नारी शक्ति ने राष्ट्रीय संकट में कैसे पुरुष वर्ग को सदैव बल प्रदान किया है। निश्चित रूप से भारत की नारी वर्तमान चुनौती को भी अपनी वीरता एवं सूझ-बूझ से अवश्य ही स्वीकार करेगी। नारियों में गाँव-गाँव जाने, भूख-प्यास, कष्ट-यातना सहने की अपार क्षमता और सहनशीलता है। उनके कोमल हाथों में हथियार चलाने की अद्भुत क्षमता है, तो लेखनी उठाने की अपार सामर्थ्य भी। भारतीय नारी उत्सर्ग और बलिदान की साक्षात मूर्ति है और उसमें असीम सम्भावनाएँ हैं। बस आवश्यकता है तो केवल जागरूकता और सक्रियता की।

अपने देश की नारियों में कष्ट से पीड़ित, दुःखी लोगों के प्रति सेवा का सुन्दर भाव है तो अनीति के प्रति संघर्षरत रणचण्डी का रूप भी। उनका हौसला और उत्सर्ग की भावना दुनिया के किसी भी देश से महान है। अब वह समय आ गया है जब उन्हें समाज तथा राष्ट्र में पुरुष के सहकर्मी के रूप में अपना स्थान पाने के लिए आगे आना चाहिए। राष्ट्रीय शौर्य की जाग्रत मूर्ति नेताजी का कहना था कि मैंने ईश्वर की और राष्ट्र की पूजा माँ के स्वरूप में ही की है। मातृत्व की कल्पना मनुष्य को पवित्र और शुद्ध बना देती है। इनसान हर हमेशा अपने जीवन में एक ऐसा स्थान तलाशता है जहाँ कोई तर्क-वितर्क न हो, काई विषाद, या आलोचना न हो, बुद्धिपूर्वक किया गया कोई मूल्यांकन न हो, हो तो बस अन्धभक्ति। माँ की सृष्टि का यही तर्क है। भारतमाता के रूप में मैंने यही पाया है। इसी भावना से मैं भारतमाता और उसकी पुत्रियों की पूजा करता हूँ।

राष्ट्रनायक सुभाष हर हमेशा उस शिक्षा के पक्षधर थे, जो राष्ट्रीय भावना से युक्त हो किसी राष्ट्र के निर्माण के लिए उसकी योजनाओं की अपेक्षा उसकी शिक्षा को सोद्देश्य रूप देना अधिक महत्वपूर्ण है। वे इस बात को गहराई से जानते थे। उनके शिक्षा सम्बन्धी विचारों को देखने से पता चलता है कि वे महान शिक्षाविद् और राष्ट्रीय शिक्षा के आदर्शवक्ता थे। उन्होंने हर स्तर के छात्रों के लिए उनके अनुकूल शिक्षा पर जोर दिया है। उनके अनुसार, प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ही छात्र-छात्राओं में राष्ट्रीय भावनाओं के प्रति रुझान उत्पन्न करना चाहिए। वर्तमान पाठ्यक्रम सम्मिलित किये जाएँ, जिनसे भारत की संस्कृति और उसकी गौरव-गरिमा का बोध हो। शिक्षा के द्वारा ही छात्रों में देशभक्ति पैदा की जा सकती है। शिक्षा ही विद्यार्थियों में राष्ट्रीय संवेदना को दृढ़ कर सकती है। इससे ऐसे नागरिक उत्पन्न हो सकते है। इससे राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान कर सकें। आज हमारे सामने निरक्षरता की समस्या कितनी ही भयानक क्यों न हो? किन्तु इसे सुलझाना यदि सरल नहीं तो असम्भव भी नहीं। आजकल हमारे पास बहुत बड़ी संख्या में पुरुष और महिलाएँ बेरोजगार है। इन सभी को शिक्षा के इस महान उद्देश्य में लगाने की विशद् योजना होनी चाहिए। इसके साथ ही देश तथा देशवासियों की आवश्यकता के अनुरूप राष्ट्रीय शिक्षा के स्वरूप को विकसित करने हेतु अन्य महत्वपूर्ण शिक्षा योजनाओं को क्रियान्वित करना आवश्यक है।

सन् 1924 में माण्डले जेल से सुभाषचन्द्र बोस ने कलकत्ता के अपने एक समाजसेवी मित्र हरिचरण बागची को शिक्षा के बारे में लिखा था-बच्चा अपनी समस्त ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से वस्तुओं को परखना चाहता है। अतः प्रकृति के इस नियम का पालन करते हुए बच्चों को उचित शिक्षा देनी चाहिए। छात्रों को केवल सैद्धान्तिक शिक्षा देकर ही संतोष नहीं कर लेना चाहिए, बल्कि उन्हें विभिन्न उद्योगों एवं कलाओं की शिक्षा देने की व्यवस्था भी करनी चाहिए। बच्चों की रुचियों को जाग्रत करने पर उनकी ज्ञानेन्द्रियाँ अधिक सतर्क हो जाएँगी और उनकी बुद्धि कुशाग्र होगी। शिक्षा के माध्यम से बच्चों की सृजनात्मकता, मौलिकता और व्यक्तित्व विकास के लिए सुअवसर प्रदान करना चाहिए। इस उम्र के विद्यार्थियों को अनुशासित, ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, जिससे वे शारीरिक और बौद्धिक रूप से बलिष्ठ हों। विकास त्रिकोणात्मक होना आवश्यक है अर्थात् हमारे शरीर, बुद्धि और भावनाओं का विकास इस प्रकार हो कि हम सन्तुलित मानव बन जाएँ। इस शिक्षा-पद्धति में शारीरिक श्रम का भी स्थान होना चाहिए।

सुभाषचन्द्र बोस राष्ट्रीय शिक्षा के फलस्वरूप भारत के छात्रों को चरित्रवान, आत्मनिर्भर, शक्तिशाली और देशभक्त के रूप में देखना चाहते थे। उनका मानना था कि विश्व-विद्यालय के छात्र समाज और देश के प्रति महान उत्तरदायित्व का निर्वाह कर सकते हैं। उनके विचारों से विद्यार्थियों की उपाधियों और स्वर्णपदक जैसी छोटी-छोटी चीजों के पीछे भागना उपहासास्पद है। ऐसे विद्यार्थियों का पाठ्य-पुस्तकों और परीक्षा भवनों के बाहर कोई जीवन नहीं होता। छात्र सच्चे अर्थों में शिक्षित तभी कहे जा सकते हैं। जब वे समाज और राष्ट्र के लिए कुर्बान हो सकें। उनका कहना था ‘ अपने राष्ट्र के सम्पूर्ण विकास के लिए समग्र शिक्षा की आवश्यकता है। पुलिस, मिलिट्री, उद्योग, व्यापार-व्यवसाय आदि की भी शिक्षा की व्यवस्था हो। यहाँ तक कि समाज- सेवा और राजनैतिक नेतृत्व के लिए भी प्रशिक्षण की व्यवस्था हो। यदि हमारे सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए शिक्षण, प्रशिक्षण की व्यवस्था सम्भव हो सके तो वे अच्छे ढंग से राष्ट्र की सेवा कर सकते हैं। इसके लिए अपने देश में चरित्रवान और उत्कृष्ट व्यक्तित्व वाले अध्यापकों की आवश्यकता है, जो छात्रों के प्रति सहज प्रेम और सहानुभूति के आधार पर शिक्षण दे सकें। शिक्षा की बुनियादी स्थितियाँ हैं। अध्यापक का व्यक्तित्व, अध्यापन विधियाँ ओर पाठ्य विषयों तथा पाठ्यपुस्तकों का चयन। इन सभी की उत्कृष्टता ही राष्ट्र में शिक्षा का ऐसा ढाँचा तैयार कर सकती है, जो राष्ट्रीय चेतना को नवजीवन प्रदान कर सके।

राष्ट्रनायक नेताजी को भारत के विचार का जनक माना जा सकता है। ‘ द इण्डियन स्ट्रगल ‘ में उन्होंने लिखा है कि भारत में साम्यवाद को नहीं अपनाया जाएगा, क्योंकि राष्ट्रवाद के साथ साम्यवाद की कोई सहानुभूति नहीं है और भारतीय आन्दोलन एक राष्ट्रीय आन्दोलन है। हालाँकि कम्यूनिस्ट सिद्धान्त ने आर्थिक विकास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया है। सुभाष बोस ने हरिपुरा में 1938 की 51 वें भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अधिवेशन में दिये गये अपने भाषण में इस बात को स्पष्ट करते हुए कहा था-राज्य के स्वामित्व तथा राज्य के नियंत्रण में औद्योगिक विकास की व्यापक योजना अनिवार्य होगी। हमें अत्यंत सावधानीपूर्वक इस बात पर विचार करना होगा और यह फैसला करना होगा किस क्षेत्र के गृहउद्योगों को आधुनिक फैक्ट्रियों की कड़ी प्रतियोगिता के बावजूद फिर से आरम्भ किया जाए तथा किन बड़े उद्योगों के उत्पादन को प्रोत्साहित किया जाय। चाहे हम आधुनिक औद्योगिकवाद को कितना ही नापसन्द करें, तब भी हम औद्योगिक पूर्व अवस्था में वापस नहीं लौट सकते। अतः ऐसा उपाय करें, जिससे उसकी बुराइयाँ कम हों तथा बन्द पड़े कुटीर उद्योगों को फिर से शुरू करने की सम्भावना बढ़े। इसके लिए प्रयास करने के साथ उत्पादन तथा वितरण के लिए एक ऐसी व्यापक योजना बनानी होगी, जिससे समस्त कृषि तथा औद्योगिक प्रक्रिया का धीरे-धीरे समाजीकरण किया जा सके।

भारत कृषि प्रधान देश है। अतः यहाँ पर कुटीर उद्योगों की, विशेष रूप से कृषि से जुड़े उद्योगों के विकास के लिए बहुत गुँजाइश है। भूमि से अधिक उपज मिल सके, इसके लिए कृषि को वैज्ञानिक आधार प्रदान करना होगा। पहले अपना ध्यान मूल उद्योगों पर देना होगा। पहले अपना ध्यान मूल उद्योगों पर देना होगा। मूल उद्योग वे हैं जो अन्य उद्योगों को सफलतापूर्वक चलाते हैं। आर्थिक योजना पर सर्वाधिक प्रभाव जनसंख्या का पड़ता है। उन्होंने इस बारे में कहा था, जिस देश में लोग गरीबी, भुखमरी और रोगों से पीड़ित रहते हों उसमें यह सहन नहीं किया जा सकता कि एक ही दशक में उसकी जनसंख्या करोड़ों बढ़ जाए। आबादी कुलाचें मारती हुई बढ़ती गयी, तो हमारी योजनाओं पर पानी फिर जायेगा। इसलिए मुनासिब यही होगा कि हम आबादी पर तब तक लगाम लगाए रखें, जब तक इस समय जी रहे लोगों के लिए अनाज, कपड़े और शिक्षा की व्यवस्था न हो जाए।

अपने जन्म के साथ ही नेताजी ने सार्वभौम, प्रभुसत्तायुक्त, शक्तिशाली और विश्ववन्द्य भारत का स्वप्न देखा था। उनके जन्म और जीवन का उद्देश्य अपने इसी स्वप्न को साकार करना था। जिसके लिए वह अपनी जिन्दगी के हर पल जूझते रहे। भविष्यत् की ओर उनकी आशाओं भरी भविष्य में भारत की साँस्कृतिक आर्थिक और राजनैतिक भूमिका सुदृढ़ और स्पष्ट होगी। भारतवर्ष मानवीय संस्कृति और सभ्यता को बहुत कुछ दे सकता है। धर्म, दर्शन, वास्तुकला, चित्रकला, नृत्य-संगीत तथा कला-कौशल के क्षेत्र में अपने देश की महान भूमिका रहेगी। वैज्ञानिक अनुसंधान और औद्योगिक विकास के क्षेत्र में भारतवर्ष बहुत कुछ उपलब्ध कर सकेगा। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस एक उत्कट देशभक्त थे। उन्होंने प्रारम्भ से ही अपने चिन्तन भावना एवं कर्म-साधना को राष्ट्र के सशक्त, समर्थ एवं जाग्रत बनाने के लिए उत्सर्ग किया था। उनकी जन्म-शताब्दी के अवसर पर उनके दस स्वप्न को साकार करने का दायित्व हममें से प्रत्येक उस शख्स का है, जो स्वयं को भारतीय कहने में गर्व की अनुभूति करता है।


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