अयमात्मा ब्रह्म का नाद

January 1998

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अन्नं ब्रह्मेते ............ अन्नेन जातानि जीवन्ति।

अन्न से ही प्राणि उत्पन्न होते हैं, अन्न से वे जीवित रहते हैं और अंत में मरकर अन्न में ही लीन जो जाते हैं तब निश्चय ही यह अन्न संसद प्राणियों की उत्पत्ति, पालन तथा प्रलय का मूल कारण है-तब .......... तब यह अन्न की ब्रह्म है? निदिध्यासन करते हुए भृगु के मन में यह विचार विद्युत प्रकाश की भाँति चमका।

कई मास पहले उन्होंने एक दिन जिज्ञासु भाव से अपने पिता वरुण ऋषि से जाकर पूछा था ‘-अधीहि भगवो ब्रह्मेति .... भगवन्। ब्रह्म क्या है, मुझे बतलाइये? अन्नं प्राणं चक्षुः क्षाोत्रं मनो वाचमिति....” अन्न प्राण, आँख, कान, मन और वाणी ये सभी ब्रह्म ज्ञान के द्वार अर्थात् उसके प्राप्ति के साधन है। यदि तुम्हें ब्रह्मवेता बनना है तो उसके लिए तप साधना करो, उसके लिए मन, वचन, कर्म से प्रयत्न प्रारंभ कर दो। हे पुत्र। तुम्हारी प्रबल जिज्ञासा और तप साधना एक दिन तुम्हें उस परम् सत्य का साक्षत्कार अवश्य करा देगी, जिसे ब्रह्म कहते हैं।

पिता द्वारा बतायी विधि से साधना करने के बहुत दिनों बाद उन्हें ऐसा अनुभव हो रहा था कि अन्न ही ब्रह्म है पर हृदय का संशय नहीं मिटा। तर्क बुद्धि ने उससे कहा, नहीं यह ब्रह्म नहीं है। संशय में पड़े-पड़े वह पुनः पिता वरुण के पास जाकर बोले-भगवन् मुझे उस ब्रह्म के बारे में बतलाइये।

“ तपसा ब्रह्म विंजिज्ञास्व ...... तपो ब्रह्मेति ......

जाओ ...... तप से ब्रह्म को जानों अभी तुम्हारे लिए तप ही ब्रह्म है। अपनी साधना में अविचल रहो वत्स। देखना श्रद्धा न डिगे-पथ पर चलते रहना ........ ब्रह्म ज्ञान मिलेगा। “ पिता ने आदेश दिया।

मास बीते-वर्ष बीत चला। एक दिन पुनः

भृगु को बोध हुआ, तब उसने निश्चय किया कि-प्राणों ब्रह्मेति..... प्राणेन जातानि जीवन्ति ....... जगत का जीवन यह प्राण ही ब्रह्म है। इस प्राण से ही जीव उत्पन्न होते, जीते और अन्त में इसी में लय हो जाते हैं। किन्तु उसको फिर भी शंका बनी रही। मानों उससे कोई कह रहा था कि ब्रह्म तो कुछ और ही है।

इसी उलझन वह फिर से पिता के पास गये और बोले -’ भगवन्। मुझे ब्रह्म के बारे में बताइये। “ ‘ पुत्र। तप से, साधना से वह जाना जाता है तुम अपनी साधना से ही उसे जानने की इच्छा करो, जाओ प्रयत्न जारी रखो ...... ब्रह्म आ मिलेगा। “ ब्रह्मवेता वरुण ऋषि ने वही शब्द फिर दुहराये।

भृगु चल पड़े ....... उनके बताये साधनों से तप करने। उनकी श्रद्धा अविचल थी। मन, वचन, कर्म से सम्पूर्ण शक्ति लगाकर वह वर्षों साधना करते रहे। कई वसन्त और पतझड़ आये पर भृगु को ब्रह्म का ज्ञान नहीं हुआ ...... किन्तु उनकी साधना चलती रही, अखण्ड-अनवरत रूप से। उन्होंने कभी यह भी नहीं सोचा कि आखिर जब पिता ब ब्रह्म ज्ञानी है तो वे बुद्धि से, विचारों से मुझे क्यों नहीं समझा देते?

मनो ब्रह्मेति ..... मनसा जतानि जीवन्ति ....... एक दिन वह साधना करते-करते बुदबुदाये-यह मन ही ब्रह्म है ...... मन से ही जीव उत्पन्न होते हैं-जीते हैं तथा अंत में मरकर उसी में समा जाते हैं। निश्चय ही यह ‘मन’ जगत की उत्पत्ति वृद्धि तथा लय का कारण है। फिर भी अभी भ्राँति बनी हुई थी। अंतर्द्वंद्व बराबर ज्यों का त्यों चल रहा था। वह निश्चय नहीं कर पा रहे थे कि ब्रह्म क्या है? और तब वह सिर को एक झटका देते हुए पिता के पास चल दिये ‘ न जाने कि उनका संशय नहीं मिट रहा था।

पिता श्री। मुझे ब्रह्म ज्ञान नहीं हुआ। आप मुझ पर दया करके बताइये-वह क्या है? अरे तुम लौट आये पर पुत्र वह तो तप से,साधना से ही जाना जाता है वह तप ही अभी तुम्हारे लिए ब्रह्म है अभी और साधना करो। पिता वरुण के वही इन्हें गिने पुराने शब्द थे।

भृगु सच्चे जिज्ञासु थे वह एक बार पुनः साधना में तल्लीन हो गये। उनकी निष्ठा और भय के प्रति एकाग्रता देखकर निराशा उलटे पाँव भागी-सचमुच उनकी वह साधना, वह लगन अद्भुत थी। कष्ट कठिनाइयों के झंझावातों में वह स्थिर रहे। वर्षा, आतप और धूप उनके सहयोगी सिद्ध हो चले उस तरुण तपस्वी के सिर पर प्रलय के मेघ घिरे, बरसे और वह केवल मुस्कुराते रहे मान अपमान दुनियादारों के उपहार-प्रलाप उसे पथ से विरत न कर सके। भूख प्यास उसे क्षुब्ध न कर सकी। मोह-ममत्व के फंदे उसे फाँस न सके। यौवन की भरी दुपहरी में उसकी इन्दियावत् स्थिर रहीं। हाँ अपनी अनवरत एकाकी साधना से वह ऊबे नहीं और ... कई वर्ष बीत गए।

वह सच्चे साधक थे और असफलता ही तो उनकी अपनी शक्ति की कसौटी थी वह साधना में तत्पर ही रहे। उनके रोम-रोम में एक ही ध्वनि उनके प्राणों में एक ही स्पन्दन, विचारों और भावनाओं की एक ही प्रति ध्वनि थी-ब्रह्म क्या है?

वह जान न पाये पर उनके प्रश्न का उत्तर बन कर धीरे-धीरे एक विशेषता, एक नई बात उनके चलने फिरने, उठने बैठने बोलने–चालने खाने पीने पहनने–ओढ़ने अर्थात् इच्छा, ज्ञान और कर्म के क्षेत्र में उतर रही थी, उनके मानवीय जीवन का चिरन्तन सत्य समन्वय बनकर। संसार के लिए अब वह अपरिचित नहीं रह गये थे। सर्वत्र उनकी ही चर्चा थी हर काई कहता था लग्न हो तो ऐसी, निष्ठा तो ऐसी, धुन हो तो ऐसी।

और एक दिन वर्षों बात सुनाई पड़ा, उत्तरापथ-दक्षिणापथ के कोलाहलपूर्ण जनपदों में आश्रमों और आरण्यकों में पण्य और कुटीरों में कि धन्य-धन्य। अरे वह तो लगता है कि साक्षात ब्रह्म रूप ही हो गया है ऐसा है उसका तेज वही भृगु वरुण ऋषि का पुत्र। आज वह अपने पिता के पास जा रहे थे, किन्तु पिछले चार-पाँच बार कि भाँति नहीं। आज तो दिव्य तेज से उनका भव्य ललाट चमक रहा था। प्रखर आत्म विश्वास की, सत्विवेक की स्निग्ध किरणें उनके स्तर नेत्रों से फुटी पड़ रही थी उनके रोम- रोम से देव दुर्लभ शान्ति और आनन्दश्रोत उफान में अयमात्मा ब्रह्म अनाहत नाद निनादित था। उन्होंने संसार को स्वयं पढ़ समझ लिया था उसकी ब्रह्म स्वरूपिणी चेतना को भी।

मन्दस्मित के साथ पुलकित हो वह पिता के चरणों पर झुका... और पिता वरुण उसके मुख को देखते हुए मुसकरा रहे थे पिता-पुत्र की इस मुसकान में अद्वैत था- सच्चा अद्वैत।

भृगु ने साधना के सूत्रों को यजुर्वेदीय तैत्तिरीयोपनिषद् की भृगुवल्ली में लिखा जो विश्व के समस्त साधकों को इस महामंत्र को बोध कराते हैं कि रोटी, प्राण मन तथा वानादि साधनों में तो सत्य का एक अंश मात्र है। यथार्थ सत्य तो इन बसे परे है। इसी परमसत्य के बोध में ही तो अयमात्मा ब्रह्म का नाद गुँजित होता है।


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