प्रतिभा पुरुषार्थ के बल पर अर्जित की जाती है

January 1998

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विज्ञान अर्थात् विशिष्ट ज्ञान। इस अर्थ की सार्थकता विगत पौने दो शताब्दी से भी अधिक समय तक विज्ञान सिद्ध करता रहा है और नये-नये क्षेत्रों में ऐसी जानकारियाँ उपलब्ध कराता रहा है, जिससे कि उनमें कितने ही क्रान्तिकारी परिवर्तन सम्भव हुए, रूढ़ियां टूटीं और यथार्थता सामने आई। अब ऐसा लगता है कि क्षेत्रवाद और नस्लवाद के कुचक्र में पड़कर वह अपना वास्तविक अर्थ एवं दायित्व खोता जा रहा है तथा समाज और संसार को पुनः उन्हीं अन्धमान्यताओं की ओर धकेल रहा है, जिनसे उबरने में सदियों बीत गए।

ज्ञान की दो धाराएँ हैं, एक को दर्शन और दूसरे को विज्ञान कहते हैं। फिलॉसफी या दर्शन ज्ञान का वह विभाग है, जिसमें आकृतियों, मुद्राओं, प्रतीकों, गुणावलियों के माध्यम से वस्तु में छिपे गूढ़ भावों, प्रेरणाओं, शिक्षाओं की जानकारी मिलती है, जबकि विज्ञान किसी भी वस्तु या क्रिया के सम्बन्ध में उसके पदार्थपरक बोध को कहते हैं। उदाहरण के लिए यज्ञ को लिया जा सकता है। यज्ञ का विज्ञान उसका वह पहलू है, जिसमें वह वातावरण-परिशोधन और स्वास्थ-सम्वर्धन सम्बन्धी भूमिकाएँ निभाता है। यह वैज्ञानिक अध्ययन एवं विश्लेषण का विषय है। इसके द्वारा उस दौरान बनने वाली गैसों और तत्वों की पड़ताल कर यह सिद्ध करना पड़ता है कि शरीर और वातावरण में इनकी कब, कैसी, किस प्रकार की प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप उक्त प्रक्रियाएँ सम्पन्न होती हैं। इसका दर्शनपक्ष इस बात की प्रेरणा देता है कि हमारा जीवन यज्ञीय होना चाहिए, अर्थात् हमें परमार्थ-परायण होना चाहिए इस प्रकार दर्शन किसी भी वस्तु या क्रिया में निहित भाव को अभिव्यक्त करता है और विज्ञान उसके पदार्थ परक प्रक्रियाओं को बतलाता है। यह वास्तव में ज्ञान और चिन्तन की दो प्रणालियाँ हैं। इनसे विकास में सहायता मिलती है। मध्ययुग में चिन्तन की दार्शनिक प्रणाली में अनेक प्रकार की त्रुटियां आ गई और उसमें इतनी विसंगतियों एवं कुरीतियों का समावेश हो गया कि व्यक्ति और समाज उन्नति के स्थान पर अवनति की ओर मुड़ चले। वे प्रगतिशील न होकर प्रतिगामी बनने लगे। इससे उबारने का काम विज्ञान ने, चिन्तन की वैज्ञानिक प्रणाली अपने जिम्मे लिया। उसने तर्क, तथ्य और प्रमाणों के आधार पर परम्पराओं तथा मान्यताओं में घुसी रूढ़ियों की बेड़ियाँ तोड़नी प्रारम्भ कीं और यह स्थापित किया कि ओछा तत्वदर्शन अपनायें रहने वाला उठ सकता। यही कारण है कि पिछले दिनों के पिछड़ेपन की अविकसित स्थिति से उबरकर आज हम अपेक्षाकृत अधिक उन्नत और अधिक ऊँचा नहीं उठ सकता। यही कारण है कि पिछले दिनों के पिछड़ेपर की अविकसित स्थिति से उबरकर आज हम अपेक्षाकृत अधिक उन्नत और अधिक ऊँची अवस्था में पहुँच सके। यह विज्ञान और वैज्ञानिक चिन्तन की उपलब्धि है। दुर्भाग्य की बात है कि अब वही विज्ञान रूढ़िवाद को जन्म दे रहा है।

विगत कुछ वर्षों में अनुसंधान के नाम पर ऐसे शोध-निष्कर्ष प्रकाशित किये गए हैं, जो पूरी तरह पक्षपातपूर्ण लगते हैं। कभी हिटलर ने जर्मनी को विशुद्ध आर्य बताया था और उस विशुद्धता के अक्षुण्ण रखने के नाम पर भी जर्मनी के इतिहास में एक काला अध्याय बना हुआ है। विज्ञानवेत्ताओं के वर्तमान प्रयास वैसे तो नहीं, पर इन दिनों वे जिस प्रकार के वितण्डावाद में फंसे हुए हैं, उसे घृणित अवश्य कहा जाएगा, उससे हिटलर जैसी नस्लवादी मानसिकता की बू आती है। विज्ञान का सहारा लेकर वे यह सिद्ध करने की कोशिश में है कि मनुष्य में बुद्धि-कौशल जाति, क्षेत्र और शारीरिक संरचना पर निर्भर है। उसे सत्य ठहराने के लिए वे तरह-तरह के अध्ययनों और सर्वेक्षणों की मदद ले रहे हैं।

पिछले दिनों चार्ल्स मरे और रिचर्ड हरन्स्टीन ने संयुक्त रूप से एक पुस्तक लिखी, नाम था- ‘दि बेल कर्व’। उक्त पुस्तक में लेखबद्ध ने विभिन्न प्रकार के तर्कों और अध्ययनों के आधार पर यह मान्यता स्थापित करने का प्रयास किया है कि मनुष्य में बौद्धिक क्षमता जन्मजात एवं आनुवंशिक होती है। अपने इस दावे की पुष्टि में उन्होंने अमरीकी समाज में काले-गोरों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है और प्रतिपादित किया है कि श्वेत, अश्वेतों में बौद्धिक क्षेत्र में काफी बढ़-चढ़े एवं प्रखर हैं। इस प्रखरता का श्रेय उनने उनमें विद्यमान उत्तम किस्म के जीनों को दिया है। इतना ही नहीं, गरीब, पिछड़े, और अभावग्रस्तों को बुद्धिहीन बताया और कहा है कि उनके विकास के निमित्त होने वाले प्रयास अनावश्यक ही नहीं निरर्थक भी हैं।

वैज्ञानिकों का यह निष्कर्ष उनके बौद्धिक दिवालियापन को दर्शाता है, कारण कि दुनिया में आज तक कोई ऐसा राष्ट्र और जाति नहीं देखी गई, जिसके सारे लोग बुद्धिमान हों। इसी प्रकार ऐसा भी कोई देश या समुदाय प्रकाश में नहीं आया, जहाँ सम्पूर्ण लोग बुद्धिहीन हों। वास्तव में हर समाज और समुदाय में दोनों प्रकार के व्यक्ति देखे जाते है। वहाँ यदि बुद्धिसम्पन्न लोग होते है, तो बुद्धिहीनों की भी कमी नहीं होती। अस्तु, बुद्धि के संदर्भ में ‘जीन’ को जातिगत नहीं, व्यक्तिगत विशेषता माना जाना चाहिए। आइन्स्टीन को ‘सापेक्षवाद का सिद्धान्त’ प्रतिपादित करने वाला विलक्षण मस्तिष्क माना गया, पर हर यहूदी आइन्स्टीन है-ऐसा सोचना बालबुद्धि होगा। इस सिद्धान्त के बारे में ऐसा कहा जाता है कि इसे भली-भाँति समझने वाले दुनिया में तीन ही व्यक्ति हुए है, जिनमें से एक स्वयं आइन्स्टीन थे। अब जबकि वह सिद्धान्त संदेह के घेरे में आ गया है और उस पर उँगली उठाने वाला वैज्ञानिक भारतीय है, तो उसके बुद्धि-कौशल की अद्भुतता का अनुमान लगाया जा सकता है, पर इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि प्रत्येक भारतवासी वैसी ही विलक्षण मेधा का मालिक है। इसे उसकी निजी विशिष्टता माननी पड़ेगी। यदि बौद्धिक तीक्ष्णता के लिए जीन को जिम्मेदार मानें, तो यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि शुरू से है ही वह सक्रिय अवस्था में नहीं होता, वरन् निष्क्रिय और निस्तेज दशा में पड़ा रहता है। उसकी निष्क्रियता उभारनी पड़ती है, तभी वह स्थिति प्रस्तुत होती है, जिसमें व्यक्ति को अद्वितीय बुद्धिसम्पन्न कहा जा सके। आइन्स्टीन का जीवन स्वयं इस तथ्य की पुष्टि करता है। अपने स्कूली जीवन में वे एकदम साधारण विद्यार्थी थे। यदा-कदा इसके लिए उन्हें प्रताड़ना के कारण उनकी बुद्धि पर जो पड़ा और सम्बद्ध जीन उत्तेजित हो गया, फलस्वरूप उस सिद्धांत का जन्म हुआ, जिसे आज ‘सापेक्षवाद’ के नाम से लोग जानते हैं।

इसी प्रकार का मत अमेरिकी समाज-विज्ञानी एन्ना फोर्ड ने व्यक्त किया है। उनका कहना है कि बुद्धिमत्ता पर विचार करते समय वैज्ञानिकों ने परिस्थिति और परिवेश की उपेक्षा कर दी। यह उचित नहीं है। वे यह मानती हैं कि बुद्धिमत्ता वस्तुतः जीनों और अवसरों का सम्मिलित परिणाम है। अकेला जीन इसके लिए पर्याप्त नहीं। उसे सक्रिय बनाने वाला कारक भी जरूर है। बच्चों के पालन-पोषण के स्तर में यही भूमिका सम्पन्न करता है। उनके अनुसार किसी के बौद्धिक स्तर में परिवर्तन इस बात पर अवलम्बित है कि उसे उसकी न्यून बुद्धि की जानकारी कराने वाली घटना कितनी मर्मस्पर्शी है। डाँट, फटकार, अपमान, उपहास आदि प्रसंग ऐसे हैं, जो कई बार व्यक्ति को भीतर से झकझोर देते और कठोर निर्णय लेने के लिए मजबूर करते हैं। यही वह बिन्दु है, जो बौद्धिक स्तर में बदलाव के लिए निर्णायक मोड़ साबित होता है। ऐसे अवसरों पर तत्सम्बन्धी जीन अचानक क्रियाशील हो उठता और व्यक्ति को कहीं-से-कहीं पहुँचा देता है। वैज्ञानिकों द्वारा उक्त जीन को जातिगत वैशिष्ट्य घोषित किया जाना और उस आधार पर उस जाति की बौद्धिक वरिष्ठता प्रमाणित करना-इसे पूर्वाग्रहर्ण ही तो कहेंगे, जबकि जीवविज्ञानियों का मानना है कि जाति अथवा नस्ल का न तो कोई प्राणिशास्त्रीय आधार है, न जीन नस्लीय भेद करने में सहायक है। ऐसी स्थिति में क्या वैज्ञानिक रूढ़िवाद नहीं कहलायेगा?

ऐसे ही बुद्धि को जन्मजात विभूति के रूप में अंगीकार करने वालों को इन बातों पर भी विचार करना पड़ेगा कि भेड़ियों के झुण्ड में पलने वाला बालक भेड़ियों जैसा आचरण क्यों करने लगता हैं? उसके खान-पान, आदत, व्यवहार और यहाँ तक कि दो पैरों से चलने की मूल-प्रवृत्ति में परिवर्तन क्या हो जाता है तथा क्यों वह चौपायों की तरह चलने लगता है? यदि सचमुच उसे जन्मजात बुद्धि मिली है, तो फिर उसके आधार पर पशु-झुण्ड में अपनी मौलिकता को बनाये रख पाने में वह सफल क्यों नहीं हो पाता एवं किसी कारण स्वयं को उनसे पृथक पहचानने में असफल सिद्ध होता है? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनका जवाब देकर ही शोधकर्ता अपने को तथ्यपूर्ण साबित कर सकते हैं। उत्तर के अभाव में इस निष्कर्ष पर पहुँचना असम्भव हैं कि मनुष्य, जन्म से ही बुद्धिमान होता है। सच्चाई तो यह है कि जन्म से हर आदमी। की बुद्धि एक जैसी होती है यह तो प्रयास, पुरुषार्थ और परिस्थितियाँ हैं, जो उसको पैना और प्रखर बनाते हैं। हीरे खदानों में बिखरे पड़े रहते हैं, किन्तु जौहरी उसे तराशकर जब सुन्दर-सुगढ़ बनाते हैं, तब उसकी कीमत आँकी जाती है। लोहे को अपने वर्तमान स्वरूप में आने से पूर्व कई प्रकार के अग्नि-संस्कारों से होकर गुजरना पड़ता है। यही बात बुद्धि के साथ भी लागू होती है। अनुभव और प्रयोग द्वारा जो उसे जितना निखार लेता है, उसमें उतनी ही कुशाग्रता आ जाती है। उपयोग और उपभोग से पुर्जे घिसते एवं शक्ति क्षीण होती है-यह नियम सार्वभौम नहीं है। बुद्धि के सम्बन्ध में बात उलटी है। उसकी जितनी रगड़ाई तथा घिसाई होगी, आयुध की तरह वह उतनी ही तेज होती जाएगी। अतएव अनुसंधानकर्त्ताओं का यह कथन अमान्य हो जाता है कि मानव जन्मजात रूप से बुद्धिमान होते है।

जहाँ तक निर्धनों का सवाल है, तो शोधकर्मी वैज्ञानिकों की यह धारणा कि वे बुद्धिरहित होते हैं, उतना ही हास्यास्पद है, जितना कि पूर्ववर्ती यूनानी मान्यता कि स्त्रियों में आत्मा होती ही नहीं। इस प्रकार के चिन्तन को वैज्ञानिक कहने में लज्जा अनुभव होती है। यह तो किसी सनकी मस्तिष्क की उपज है, अन्यथा दिमागी प्रखरता का धन से भला क्या सम्बन्ध हो सकता है? यह समझ से परे है। अभावग्रस्तता भौतिक विकास को तो अवरुद्ध कर सकती है, लेकिन बौद्धिक तेजस्विता को वह कैसे प्रभावित करेगी-यह तो विज्ञानवेत्ता ही जाने। दुनिया भर में ढूँढ़ने पर ऐसे अनेकों उदाहरण मिल जाएँगे, जहाँ विपन्नता में जीकर भी व्यक्ति ने अपनी बौद्धिक समर्थता के आधार पर उत्कर्ष को प्राप्त किया। लालबहादुर शास्त्री कितनी गरीबी की अवस्था में पले, यह सर्वविदित है, पर वे भारत के प्रधानमंत्री जितने शीर्ष पद तक भी पहुँचे। क्या इसमें उनका बुद्धि-कौशल नहीं मानना चाहिए? विवेकानन्द ने संन्यासी जीवन में जिस निर्धनता को ओढ़ा था और जिस प्रकार के अर्थाभाव से उस दौरान वे गुजरे थे, ऐसी विकट परिस्थितियाँ यदा-कदा ही किसी के सामने उपस्थित होती हैं। इतने पर भी प्रचण्ड तर्कशीलता के आधार पर अपनी बातों का लोहा मनवाने में वे अनुपम थे। शिकागो धर्म महासभा में उन्होंने जिस प्रकार भारतीय संस्कृति का झंडा गाड़ा उसे भी उसकी महामेधा का परिचायक ही कहना पड़ेगा। फिर अनुसंधानकर्ताओं की इस उक्ति को सही कैसे ठहराया जाए कि अर्थहीनता और बुद्धिहीनता एक-दूसरे की सहचरी हैं? वास्तविकता तो यह है कि सरस्वती कभी लक्ष्मी की अनुगामिनी नहीं होती, न वह उसके आश्रित होती है। वह अपना स्वतन्त्र विकास स्वयं करती है। अस्तु, अभावग्रस्तता और मूर्खता का परस्पर रिश्ता जोड़ना बुद्धिवादियों द्वारा पिछड़ों के प्रति रची गई दुरभिसंधि नहीं तो और क्या है? इसे सम्पन्न समुदाय द्वारा विपन्नों पर बौद्धिक धाक जमाने की कुचेष्टा ही कहनी चाहिए।

मानवी प्रजातियों पर मानसिक भिन्नता के आधार पर बौद्धिक श्रेष्ठता साबित करने का यह कोई प्रथम प्रयास नहीं है। इससे पूर्व स्वीडन के प्रकृतिविद् कार्ल वान लीने ने ऐसा प्रयत्न किया था। उनने एशिया के निवासियों को कुटिल, अकर्मण्य, दीर्घसूत्री, द्वेषी एवं मंदमति घोषित किया, जबकि यूरोपवासियों को स्फूर्तिवान, बुद्धिमान, सरल सहकारी और खोजी प्रवृत्ति वाला बताया था। वे किस आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचे, इसका कोई उल्लेख नहीं किया। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह मात्र उनके जातिप्रेम और क्षेत्रप्रेम की ही परिणति है, इससे अधिक और कुछ नहीं। यदि सचमुच ही एशिया के निवासी मन्दबुद्धि और आलसी प्रकृति के होते, तो समस्त एशियाई देशों को अविकसित ही होना चाहिए था, जबकि एशिया में जापान और चीन दो ऐसे राष्ट्र हैं, जिन्हें अब विकसित की श्रेणी में सम्मिलित कर लिया गया है। भविष्यविज्ञानियों के कथनानुसार, भारत इक्कीसवीं सदी में सुपर पॉवर बन जाएगा। यदि इन राष्ट्रों में यथार्थ में बुद्धि की कमी रही होती, तो इनकी प्रगति अवरुद्ध ही बनी रहनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जापान के तकनीकी उत्कर्ष की दुनिया में कोई बराबरी नहीं और चीन ने पिछले कुछ दशकों में कृषि से लेकर रक्षा-अनुसंधान के क्षेत्र में स्वयं को जितना उन्नत बनाया और जनसंख्या की निर्बाध गति को जिस ढंग से नियंत्रित किया है, उसे कोई निर्बुद्धि राष्ट्र कैसे सम्पन्न कर सकता था? निश्चय ही रूढ़िवादी जमाने में विश्व को धकेलने का तथाकथित विज्ञान का यह षड़यंत्र है।

यदि नस्ल ही बुद्धि का तात्विक आधार होती और जगत का कुछ भाग मेधाहीन बना रहता तो वहाँ के निवासियों को बौद्धिक वर्चस्व का अधिपति नहीं, अधीन बनना पड़ता, लेकिन विश्व पटल में जो दृश्य दिखाई पड़ रहा है, वह इसके विपरीत हैं पश्चिम के कितने ही देशों में एशियाइयों और अफ्रीकियों ने अपने बुद्धि कौशल का जो वर्चस्व स्थापित किया है, उसे अप्रतिम ही करना पड़ेगा। आज ब्रिटेन और अमेरिका की अनेक शोधशालाओं में अगणित भारतीय वैज्ञानिक कार्यरत हैं। उनकी उपलब्धियाँ भी कोई कम स्तर की नहीं। अमेरिका में रहकर अनुसंधान करने वाले भारतीय वैज्ञानिक का डॉ. हरगोविन्द खुराना को जीन संबन्धी शोधकार्य पर विज्ञान का सम्मानित नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त रमन्स इफेक्ट नामक प्रकाश सम्बन्धी शोधकार्य पर भौतिकी का नोबेल पुरस्कार एक अन्य भारतीय वैज्ञानिक सी.वी.रमण को मिला। साहित्य सम्बन्धी नोबेल पुरस्कार ‘गीतांजलि’ काव्य पर रवींद्र नाथ ठाकुर ने प्राप्त किया। इसके अलावा कितने ही छोटे-बड़े अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव भारतीयों को प्राप्त हुआ। अमेरिका के अन्तरिक्ष कार्यक्रम में कई प्रतिभावान भारतीय

विज्ञानवेत्ताओं का योगदान रहा है। वे आज भी अपनी बौद्धिक क्षमताओं के बलबूते कई देशों में शिक्षा, राजनीति विज्ञान, साहित्य, सेना और शासन के सर्वाच्य पदों पर आसीन हैं। इतने पर भी दुनिया के कुछ देश अपनी बौद्धिक वरिष्ठता की दुँदुभि बजाकर स्वयं को इसका पितामह घोषित कर दें, तो इसे विद्वेष से उपजी घृणा का परिणाम ही कहना चाहिए।

इसका एक ताजा उदाहरण दृष्टव्य है। विगत दिनों एक वरिष्ठ भारतीय वैज्ञानिक ने रूबी नामक रत्न पर प्रकाश सम्बन्धी प्रभावों का विशेष अध्ययन किया। इससे जो परिणाम प्राप्त हुआ, वह चौंकाने वाला था। प्रयोग से पूर्व उसे असम्भव माना जाता था। शोधपत्र को अमेरिका की एक विज्ञान-अनुसंधान पत्रिका में प्रकाशनार्थ भेजा गया। प्रकाशक ने उसे आद्योपान्त पढ़ने के उपरान्त यह कहकर छापने से इनकार कर दिया कि भारत जैसे साधनहीन और प्रतिभाहीन देश में इस प्रकार का अनुसंधान कैसे संभव है।

जबकि वहीं के एक वैज्ञानिक ने सत्यता जानने के लिए जब उस प्रयोग को दोहराया तो उसे सही पाया। अब इसे क्या कहा जाये? क्या यह रूढ़िवादी विचार धारा नहीं है? कोई देश अविकसित हो सकता है, वहाँ साधनों की भी कमी हो सकती है, किन्तु इससे वहाँ के वैज्ञानिकों की बुद्धि कुन्द तो नहीं हो जायेगी? विज्ञान और विज्ञानवेत्ताओं को इस विचार धारा से उबरना पड़ेगा, तभी हम राष्ट्र विश्व और स्वयं विज्ञान को भी विकास की दिशा में प्रवाहमान रख सकेंगे, अन्यथा प्रतिगामी विचारों के पुनः उसी चक्रव्यूह में जा फंसेंगे, जिससे निकालने में एड़ी-चोटी का पसीना बहाना पड़ा। ऐसा इसलिए कारण कि विज्ञान लगातार उसी दलदल में धंसता चला जा रहा है, जिससे मुक्त करने का कभी उसने बीड़ा उठाया था।

हाल में हुए अनुसंधानों से ऐसा ही प्रतीत होता है। अब तक विज्ञानवेत्ता क्षेत्र के आधार पर बौद्धिक श्रेष्ठता को सिद्ध करते रहे थे, पर अब उससे भी दो कदम आगे बढ़कर शरीर-सौष्ठव और सुन्दरता के आधार पर बौद्धिक वरिष्ठता की वकालत कर रहें हैं, अर्थात् जिसकी शरीर-रचना आकर्षक सुडौल और सुगठित होगी, वह बुद्धिमान होगा और अनाकर्षक और कुरूप दिखने वाले, अपंग और अपाहिज बुद्धिहीन। यह निष्कर्ष अमेरिकी शरीरशास्त्रियों का है।

लंदन के ‘संडे टाइम्स’ में छपे समाचार के अनुसार कुछ समय पूर्व अमेरिकी विज्ञानविदों ने शारीरिक समरूपता (सिमेट्री) पर किये गये दो पृथक-पृथक अध्ययनों के आधार पर इस बात का दावा किया है कि जिन लोगों के शरीर का दांया हिस्सा बिल्कुल समान है, जिनके दोनों भाग अपेक्षाकृत कम समरूप या असमरूप हैं। इस आशय का निष्कर्ष विगत दिनों सम्पन्न हुए अमेरिकन एसोसियेशन फॉर दि एडवान्समेन्ट ऑफ साइंस’ की बैठक में प्रस्तुत किया गया। प्रस्तुतकर्ता थे डॉ. रैण्डी थोनेक्लि।

अमेरिका के न्यू मैक्सिको विश्वविद्यालय में प्राणिशास्त्र के प्राध्यापक डॉ. थोर्नबिल न उक्त अध्ययन लगभग ढाई सौ नर-नारियों पर किया। उनने कैलिपर की मदद से प्रत्येक व्यक्ति के सिर से लेकर पैर तक दोनों हिस्सों को बारीकी से नापा। इसके पश्चात उनकी बुद्धि की परीक्षा ली गयी। उनके अनुसार जिन व्यक्तियों के दाँये-बाँये दोनों खण्ड समरूप थे उनकी बुद्धि कुशाग्र पायी गयी।

ब्रिटेन के शरीर शास्त्री इस अवधारणा से असहमत हैं। उनका कहना है कि शरीर का, मेधाशक्ति से सम्बन्ध जोड़ना बेतुका और अवैज्ञानिक है। इससे अन्धमान्यता को बल मिलेगा एवं समाज दिग्भ्रान्त होगा। यह सच है कि सुगठित शरीर, सुन्दरता और आकर्षक साज-सज्जा का सामने वाले पर अच्छा प्रभाव पड़ता है, पर इससे उसकी बुद्धि का अनुमान लगाना गलत है। ढूँढ़ने पर कितने ही ऐसे सौंदर्यसम्पन्न मिल जाएँगे, जो बिल्कुल जड़बुद्धि होते हैं। इसके विपरीत ऐसे अगणित लोग भी हैं, जो काले-कलूटे लूले-लँगड़े, काने-कुबड़े, पैनेपन को देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। अब्राहम लिंकन कुरूप थे, किन्तु वे अमेरिका जैसे समृद्धशाली देश के राष्ट्रपति थे। विश्व के किसी अतिविकसित राष्ट्र का राष्ट्राध्यक्ष बुद्धिहीन या अल्पबुद्धि वाला होगा-यह कैसे स्वीकार किया जाए? अष्टावक्र की काया आठ स्थानों से टेढ़ी थी, लेकिन अल्पायु में ही उसने जिस प्रकार की बौद्धिक प्रखरता और ज्ञान का परिचय दिया, उससे राजा जनक के दरबारी दंग रह गए। स्टीफनहॉकिंस इंग्लैण्ड के मूर्धन्य खगोलवेत्ता हैं। उन्होंने ब्लैक होल सम्बन्धी ऐसी खोजें कीं और सिद्धान्त दिये, जिसे खगोल विज्ञान को एक नई दिशा दी है। इन सब का वर्णन उनने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘हॉकिंस यूनीवर्स ‘ किया हैं बौद्धिक कुशाग्रता की दृष्टि से वे आइन्स्टीन के समकक्ष माने जाते हैं। इतने पर भी वे अपाहिज हैं, उनकी दोनों टाँगे बेकार हैं और पहियेदार कुर्सी पर चलते हैं।

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि बुद्धि की तीक्ष्णता रूप लावण्य पर निर्भर नहीं। ऐसी बात होती, तो विश्व की समस्त सुन्दरियाँ विलक्षण मेधा की स्वामिनी होतीं, लेकिन ऐसा कहाँ देखा जाता है? बुद्धि सम्पन्नता की सहचरी है-यह मत भी स्वीकार्य नहीं। उस पर किसी जाति या क्षेत्र का एकाधिकार भी नहीं माना जा सकता। यहाँ तक कि पिता की बौद्धिक विरासत पुत्र में प्रकट ही हो जाए-इसकी भी कोई गारण्टी नहीं। यह सब आनुवांशिकता के नियम के अधीन है। इतने पर भी यदि विज्ञानवेत्ता जोड़-गाँठ करके किसी जाति अथवा क्षेत्र की बौद्धिक वरिष्ठता प्रमाणित करें, तो यह विज्ञान जैसे प्रामाणिक शास्त्र के लिए दुःख और दुर्भाग्य की बात है। कहीं ऐसा न हो कि वह अपनी इस प्रवृत्ति के कारण हमें सैकड़ों वर्ष पीछे के अंधवादी अन्धकार युग में धकेल दे। हममें से हरेक को इससे सावधान रहना चाहिए।


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