महिलाओं के लिए कुछ विशिष्ट गायत्री साधनाएँ

January 1998

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पुराणों में उल्लेख है कि सुरलोक में देवताओं के पास कामधेनु गौ है। वह अमृतोपम दूध देती है, जिसे पीकर देवता लोग सदा संतुष्ट, प्रसन्न तथा सुसंपन्न रहते हैं। इस गौ में यह विशेषता है कि उसके समीप कोई अपनी कुछ कामना लेकर आता है तो उसकी इच्छा तुरन्त पूरी हो जाती है। कल्पवृक्ष के समान कामधेनु गौर भी अपने निकट पहुँचने वालों की सभी मनोकामनाएँ पूरी करती हैं।

यह कामधेनु कोई और नहीं, वरन् गायत्री ही है। इस महाशक्ति की जो कोई भी उपासना करता है, उसे किसी प्रकार का कोई भी अभाव नहीं रहता और न कोई किसी प्रकार कष्ट सहता। वह सदा आनन्दित रहता है तथा भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार की सम्पदाओं से परिपूर्ण रहता है। इसीलिए गायत्री को सर्वकामधुक अर्थात् समस्त कामनाओं को पूरा करने वाली कहा गया है। यह महाशक्ति मनुष्य के सभी कष्टों का समाधान कर देती है। गायत्री मंजरी में कहा भी गया है-

भूलोकस्यास्य गायत्री कामधेनुर्मता बुधैः। लोक आ आश्रायणों नामुँ सर्वं मेवाधिगच्छति॥

अर्थात्-विद्वानों ने गायत्री को भूलोक की कामधेनु माना है। उसका आश्रय लेकर हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं।

गायत्री उपासना मातृ उपासना है। इस उपासना में ईश्वर को माता मानकर उसकी आराधना की जाती हैं। संसार में जितने भी रिश्ते हैं, उन सब में माता का रिश्ता अधिक प्रेमपूर्ण तथा अत्याधिक घनिष्ठ है। ईश्वर को जिस दृष्टि से देखा जाता है, वह उसी तरह प्रत्युत्तर देता है। स्नेह, वात्सल्य, करुणा, ममता, दया, उदारता, कोमलता आदि तत्व नारी में नर की अपेक्षा स्वभावतः अधिक होते हैं। ब्रह्म का अर्द्धवामाँग ब्राही तत्व अधिक कोमल, अधिक आकर्षक तथा शीघ्र द्रवीभूत होने वाला है। इसलिए अनादि काल से ऋषि-महर्षि ईश्वर की मातृभावना के साथ उपासना-आराधना करते रहे हैं और उन्होंने प्रत्येक धर्मावलम्बी मनुष्य को इसी सुख्य-माध्य एवं शीघ्र सफल होने वाली साधना-प्रणाली को अपनाने का आदेश दिया है।

शास्त्रों में-हर किसी को अर्थात् बाल-वृद्ध एवं नर-नारी को बिना वर्ग-भेद, जातिभेद, वर्णभेद व लिंग-भेद के गायत्री उपासना की प्रेरणा दी गयी है। पुरुषों की भाँति नारियाँ भी गायत्री उपासना की समान अधिकारिणी हैं। साधना क्षेत्र में पुरुष-स्त्री का भेद नहीं, दोनों ही वर्ग ईश्वर की आँखों के तारे हैं, इस क्षेत्र में सभी आत्माएँ समान हैं। अतः गायत्री महाशक्ति की आराधना का अधिकार सभी को है, चाहे वे नर हों या नारी। जो लोग यह कहते हैं कि गायत्री वेदमंत्र होने से उसका अधिकार नारी को नहीं है, वे भारी भूल करते हैं। प्राचीनकाल में स्त्रियाँ मंत्रदृष्टा रही हैं। वेदमंत्रों का उनके द्वारा अवतरण हुआ है। गायत्री स्वयं स्त्रीलिंग है, फिर उनका अधिकार न होने का कोई कारण नहीं। नारी में पुरुष की अपेक्षा धार्मिक तत्वों एवं भाव-संवेदनाओं का बाहुल्य होता है। इसके साथ यह भी एक तथ्य है कि माता को पुत्र से कन्या अधिक प्यारी होती है। यह कारण है कि महाशक्ति गायत्री की उपासना-साधना पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के लिए अधिक सरल और अधिक फलदायिनी है।

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि गायत्री कामधेनु है और वह अपने उपासक की कामनाएँ पूर्ण करती है। माता का आँचल पकड़ने वाले नर ही नहीं, नारियाँ भी अपनी भौतिक व आध्यात्मिक उन्नति करती आयी हैं और साँसारिक सुख-समृद्धि की प्राप्ति तथा आपत्तियों से छुटकारा पाने की प्रसन्नता अनुभव करती रही हैं। गायत्री उपासना के द्वारा महिलाएँ अपने घर-परिवार के सदस्यों, बच्चों पर धार्मिक संस्कार अधिक अच्छी तरह से डाल सकती हैं और परिवार में स्वर्गीय वातावरण का निर्माण कर सकती हैं। यहाँ कुछ ऐसी साधनाएँ दी जा रही हैं जो हर आयु-वर्ग के लिए उपयुक्त हैं। गायत्री मंत्र वही है, परन्तु अन्तर भाव-क्षेत्र का है। माता को प्रसन्न करने के लिए उपासना के साथ-साथ आवश्यकता के अनुरूप भाव-साधना भी करनी पड़ती है। नौ दिन का पूर्ण अनुष्ठान होता है। तत्कालीन आवश्यकता के लिए इन्हें ही प्रयुक्त किया जाता है। इसके अतिरिक्त एक वर्ष का गायत्री उद्यापन सब कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। महिलाओं के लिए इसकी विशेष महिमा हैं। इसमें कोई विशेष कठिनाई भी नहीं है और न ही कोई विशेष प्रतिबन्ध है। सरलता की दृष्टि से यह स्त्रियों के लिए विशेष उपयोगी है।

प्रायः देखा गया है कि सधवा महिलाएँ, जिन्हें घर-गृहस्थी के कार्य में विशेष रूप से व्यस्त रहना पड़ता है अथवा जिनके छोटे-छोटे बच्चे हैं जिसके कारण वे उतनी स्वच्छता नहीं रख पातीं जितनी कि अपेक्षित है, उनके लिए देर में पूरी हो सकने वाली अनुष्ठानपरक साधनाएँ कठिन हैं। ऐसी स्थिति में वे संक्षिप्त साधनाओं से काम चला सकती हैं। जो पूरा गायत्री-मंत्र “द्ध भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् “ याद नहीं कर सकतीं, वे संक्षिप्त गायत्री पंचाक्षरी मंत्र-“ द्ध भूर्भुवः स्वः “ से काम चला सकती हैं। रजस्वला होने के दिनों में उन्हें विधिपूर्वक साधना बन्द रखनी चाहिए। कोई अनुष्ठान चल रहा हो तो उन दिनों में रोककर रजः स्नान के पश्चात फिर चालू किया जा सकता है। हाँ इस अवधि-में मौन मानसिक जप अवश्य कर लेना चाहिए। इसमें कोई दोष नहीं है।

गायत्री तंत्र में उल्लेख है-

अशुचिर्वा शुचिर्वापि गच्छन्तिष्ठन् यथा तथा। गायत्री प्रजपेद्धीमान् जयात् पापन्निवर्तते॥

अर्थात्-अपवित्र हो अथवा पवित्र हो, चलता हो अथवा बैठा हो, जिस भी स्थिति में हो, बुद्धिमान मनुष्य गायत्री का जप करता रहे। इस जप के द्वारा पापों से छुटकारा मिलता है। वशिष्ठ स्मृति में तो प्रायश्चित प्रक्रिया के लिए भी गायत्री जप का निर्देश देते हुए कहा गया है-मनसा भर्तुरभिचारे त्रिरात्रं यावकं क्षीरौदनं वा भŒनाऽघ शयति ऊर्ध्व

शिरोभिर्जुहूयात् पूता भवतीत विज्ञायते। “

अर्थात् यदि पत्नी के मान में पति के प्रति दुर्भाव आएँ तो उस पाप का प्रायश्चित करने के साथ 108 मंत्र गायत्री के जपने से वह पवित्र होती है।

निःसंतान महिलाएँ गायत्री साधना को पुरुषों की भाँति ही सुविधापूर्वक कर सकती हैं। अविवाहित या विधवा महिलाओं के लिए तो वैसी ही सुविधाएँ हैं जैसी कि पुरुषों को। जिनके बच्चे बड़े हो गये हैं। गोदी में कोई छोटा बालक नहीं है या जो वयोवृद्ध हैं, उन्हें भी उपासना में कुछ असुविधा नहीं हो सकती। साधारण दैनिक साधना में कोई विशेष नियमोपनियम पालन करने की आवश्यकता नहीं है। दाम्पत्य जीवन के साधारण धर्म-पालन करने में उसमें कोई बाधा नहीं। यदि कोई विशेष साधना या अनुष्ठान करना हो तो उतनी अवधि के लिए ब्रह्मचर्य पालन करना आवश्यक होता है।

विधवा बहने आत्मसंयम, सदाचार, विवेक, ब्रह्मचर्य-पालन, इन्द्रिय-निग्रह एवं मन को वश में करने के लिए गायत्री साधना को ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयोग कर सकती हैं। जिस दिन से गायत्री साधना आरम्भ की जाती है, उसी दिन से मन में शान्ति, स्थिरता, सद्बुद्धि और आत्मसंयम की भावना पैदा होती है। मन पर अपना अधिकार होता है, चित्त की चंचलता नष्ट होती है, विचारों में सतोगुण बढ़ जाता है। इच्छाएँ, क्रियाएं, भावनाएं- सीभी सतोगुणी, शुद्ध और पवित्र रहने लगती है। धीरे-धीरे उसकी साध्वी, तपस्विनी, ईश्वर परायण एवं ब्रह्मवादिनी जैसी सात्विक स्थिति हो जाती है। गायत्री के वेश में भगवान का उसको साक्षात्कार होने लगता है और ऐसी आत्मशान्ति मिलती है, जिसकी तुलना में सधवा रहने का सुख उसे नितान्त तुच्छ दिखाई पड़ता है।

गायत्री साधना में बैठने से पूर्व प्रातःकाल ऐसे जल से स्नान करें, जो शरीर को सह्य हो, अति शीतल या अति उष्ण जल स्नान के लिए अनुपयुक्त है। वैसे तो सभी के लिए, पर स्त्रियों के लिए विशेष रूप से असह्य तापमान का ठण्डा या गरम जल स्नान के लिए हानिकारक है। स्नान के उपरान्त उपासना के लिए बैठना चाहिए। पास में जल से भरा हुआ पात्र रहे। जप के लिए तुलसी की माला और बिछाने के लिए आसन या चटाई-कुशासन सबसे उपयुक्त रहता है। वृषभारूड़, श्वेत वस्त्रधारी चतुर्भुजी प्रत्येक हाथ में, माला, कमण्डल, पुस्तक और कमल पुष्प लिए प्रसन्नमुख प्रौढ़ावस्था गायत्री महाशक्ति का ध्यान करना चाहिए। ध्यान चित्त की चंचलता को दूर करने तथा सद्गुणों की वृद्धि के लिए बड़ा लाभदायक सिद्ध होता है। मन को बार-बार इस ध्यान में लगाना चाहिए और मुख से गायत्री महामंत्र का जप इस प्रकार करते जाना चाहिए, कि कण्ठ से कुछ ध्वनि हों, होंठ हिलते रहें, परन्तु मंत्र को निकट बैठा हुआ व्यक्ति भी भली प्रकार न सुन सके। प्रातः और साँय दोनों समय इस प्रकार का जप किया जा सकता है। एक माला तो कम से कम जप होना ही चाहिए। सुविधानुसार जितना अधिक किया जा सके, उतना ही उत्तम है। अस्वाद व्रत, सप्ताह में एक दिन-गुरुवार या रविवार को उपवास, मौनव्रत, इन्द्रिय संयम, स्वाध्याय, ज्ञानप्रचार जैसी तप-साधनाएं भी साथ में की जाएँ तो और भी उत्तम हैं।

कुमारी कन्याएँ अपने विवाहित जीवन में सब प्रकार की सुख शान्ति के लिए भगवती गायत्री की उपासना कर सकती हैं। पार्वती ने मनचाहा वर पाने के लिए नारद जी के आदेशानुसार विशेष पुरश्चरण किये थे और वे अन्त में सफल मनोरथ भी हुई थी। सीता जी ने मनोवाँछित पति पाने के लिए गौरी-पार्वती की उपासना की थी। वनदुर्गाओं में आस्तिक कन्याएँ भगवती की आराधना करती हैं। गायत्री उपासना सब के लिए सब प्रकार मंगलमयी है।

आशाप्रद भविष्य की साधना में गायत्री माता का चित्र, प्रतिमा अथवा मूर्ति को किसी छोटे आसन या चौकी पर स्थापित करके उसकी पूजा वैसे ही करनी चाहिए, जैसे अन्य देव प्रतिमाओं की की जाती है। प्रतिमा के आगे एक छोटी तश्तरी रख लेनी चाहिए ओर उसी में चन्दन, धूप, द्वीप, अक्षत, नैवेद्य, पुष्प, जल, भोग आदि पूजा सामग्री चढ़ानी चाहिए। मूर्ति के मस्तक पर चन्दन लगाया जा सकता है, पर यदि चित्र है तो उस पर चन्दन आदि नहीं लगाना चाहिए, जिससे उसमें मैलापन न आये। नेत्र बन्द करके ध्यान करना चाहिए और मन ही मन कम से कम 24 मंत्र गायत्री के जपने चाहिए। इस प्रकार की नित्य गायत्री साधना कन्याओं को उनके अनुकूल वर, अच्छा घर तथा अचल सौभाग्य प्रदान करने में सहायक होती है।

सधवाओं को अपने पतियों को सुखी, समृद्ध, स्वस्थ, व दीर्घजीवी बनाने के लिए गायत्री महाशक्ति की शरण लेनी चाहिए। इससे पतियों के बिगड़े हुए स्वभाव, विचार और आचरण शुद्ध होकर उनमें ऐसी सात्विक बुद्धि आती है कि वे अपने गृहस्थ जीवन में कर्तव्य-धर्म को तत्परता एवं प्रसन्नतापूर्वक पालन कर सके। इस साधना से स्त्रियों के स्वास्थ्य तथा स्वभाव में एक ऐसा आकर्षण पैदा होता है, जिससे वे सभी को परमप्रिय लगती हैं और उनका समुचित सत्कार होता है। अपना बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य, आर्थिक तंगी, दरिद्रता, बढ़ा हुआ खर्च, आमदनी की कमी, पारिवारिक क्लेश, मनमुटाव, आपसी राग-द्वेष एवं बुरे दिनों के उपद्रव को शान्त करने के लिए महिलाओं को गायत्री उपासना करनी चाहिए। पिता के कुल एवं पतिकुल दोनों ही पक्षों के लिए यह साधना उपयोगी है, पर सधवाओं की मंगलमय गायत्री उपासना विशेष रूप से पतिकुल कुल के लिए ही लाभदायक सिद्ध होती है।

प्रातःकाल से लेकर मध्याह्न तक यह मंगलमय उपासना कर लेनी चाहिए। जब तक साधना न हो तब तक भोजन नहीं करना चाहिए- हाँ जल पिया जा सकता है। शुद्ध शरीर, शुद्ध मन और शुद्ध वस्त्र से तैयार होकर पूर्व की ओर मुँह करके उपासना के लिए बैठना चाहिए। केशर डालकर चंदन अपने हाथ से घिसें और मस्तक, हृदय तथा कंठ पर तिलक छाप के रूप में लगावें। तिलक छोटे-से-छोटा भी लगाया जा सकता है। गायत्री मूर्ति या चित्र की स्थापना करके उसकी विधिवत पूजा करनी चाहिए। पूजन के सभी कार्यों में पीले रंग की सामग्री ही प्रयुक्त करनी चाहिए। प्रतिमा का आवरण पीले वस्त्रों का रखे। पीले पुष्प, पीले चावल, बेसन के लड्डू आदि पीले पदार्थों का भोग, गौ-घृत, गौ-घृत न मिले तो उसमें केशर मिलाकर पीला कर लेना, चन्दन का चूरा, धूप इस प्रकार पूजा में पीले रंग का अधिक से अधिक प्रयोग करना चाहिए।

पूजन के पश्चात नेत्र बन्द करके पीत वर्ण आकाश में पीले सिंह पर सवार, पीत वस्त्र पहने गायत्री माता का ध्यान करना चाहिए। पूजा के समय सब वस्त्र पीले न हों सके तो कम से कम एक वस्त्र पीला अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार पीतवर्ण गायत्री का ध्यान करते हुए कम से कम 24 बार गायत्री महामंत्र जपना चाहिए। जब अवसर मिले तो मन ही मन भगवती गायत्री का अध्ययन करती रहें। महीने के हर एक पूर्णमासी को व्रत रखना चाहिए। अपने नित्य आहार में एक चीज पीले रंग की अवश्य लें लें। शरीर पर कभी कभी हल्दी का उबटन कर लेना अच्छा है। यह पीतवर्ण साधना दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने के लिए परम उत्तम है।

जिनकी सन्तान बीमार रहती है, अल्पायु में ही काल–कलवित हो जाती है, केवल पुत्र या कन्याएँ ही होती हैं, गर्भपात हो जाते हैं, गर्भ स्थापित नहीं होता, बन्ध्यादोष लगा हुआ है अथवा सन्तान दीर्घसूत्री, आलसी, मन्दबुद्धि, दुर्गुणी, आज्ञा उल्लंघनकारी, कटुभाषी या कुमार्गमामी है, वे गायत्री महाशक्ति की शरण में जाकर इन कष्टों से छुटकारा पा सकती हैं।

ऐसे हजारों उदाहरण हैं, जिनमें महिलाओं ने वेदमाता गायत्री के चरणों में अपने आँचल फैलाकर संतान सुख माँगा है और भगवती ने उन्हें वह प्रसन्नतापूर्वक दिया है। माता के भण्डार में किसी वस्तु की कमी नहीं, उनकी कृपा को पाकर मनुष्य दुर्लभ से दुर्लभ वस्तु प्राप्त कर सकता है। वह कामधेनु है, कल्पवृक्ष है और सर्वकामधुक हैं। अतः ऐसी कोई वस्तु नहीं जो माता की कृपा से प्राप्त नहीं हो सकती फिर संतान-सुख जैसी साधारण बात की उपलब्धि में कोई बड़ी अड़चन नहीं हो सकती।

जो महिलाएँ गर्भवती हैं वे प्रातः सूर्योदय से पूर्व या रात्रि को सूर्यास्त के पश्चात् अपने गर्भ में गायत्री के सूर्य सदृश प्रचण्ड तेज का ध्यान किया करें और मन ही मन गायत्री महामंत्र का जप किया करें, तो गर्भ में पल रही उनकी संतान तेजस्वी, बुद्धिमान, प्रतिभाशाली, दीर्घजीवी एवं यशस्वी होती है। यह क्रम गर्भ ठहरने से लेकर प्रसव पूर्व तक नित्यप्रति पाँच से पन्द्रह मिनट तक अपनाने से सुख प्रदान करने वाली सुसंतति की प्राप्ति होती है-

ध्यान प्रक्रिया

प्रातः काल कटि प्रदेश में भीगे वस्त्र रखकर शांतचित्त से ध्यानावस्थित होना चाहिए और अपने योनिमार्ग में होकर गर्भाशय तक पहुँचाता हुआ गायत्री का प्रकाश सूर्य-किरणों जैसा ध्यान करना चाहिए। प्रातः उदीयमान सूर्य की सविता की स्वर्णिम किरणों में जो आभा रहती है। वही गायत्री का प्रचण्ड तेजस्वी ‘भर्ग’ है। सविता की शक्ति ही गायत्री है। इसी का ध्यान किया जाता है। ध्यान के समय आंखें बन्द रखें। यह साधना शीघ्र गर्भ स्थापित करने वाली है। कुन्ती ने इस साधना के बल से गायत्री के दक्षिभाग सूर्य भगवान को आकर्षित करके कुमारी अवस्था में ही कर्ण को जन्म दिया था। यह साधना कुमारी कन्याओं को नहीं करनी चाहिए।

साधना से उठकर सूर्य को अर्घ्य-जल चढ़ाना चाहिए और अर्घ्य से बचाकर एक चुल्लू अर्थात्-एक दो चम्मच जल सविता देवता का पुण्य-प्रसाद मानकर स्वयं पीना चाहिए। इस प्रयोग से बन्ध्याएँ गर्भधारण करती हैं, जिनके बच्चे मर जाते हैं या गर्भपात हो जाता है, उनका यह कष्ट मिटकर सद्गुणी संतान पैदा होती है।

प्राचीनकाल की नारियाँ इस तप साधना से ओत−प्रोत होने के कारण ही यशस्वी संतानों को जन्म देती थीं, तभी यह देश नर-रत्नों की खान हुआ करता था आज भी यह मार्ग सबके लिए खुला हुआ है, इसे अपनाकर हर कोई मनोवाँछित फल प्राप्त कर सकता है।

बच्चों के सुख-शान्तिमय एवं स्वस्थ जीवन के लिए गायत्री उपासना का संबल सदैव मंगलमय रहता है। जिनके बच्चे रोगी, कुबुद्धिग्रस्त, आलसी, चिड़चिड़े, अस्वस्थ रहते हों, उनकी माताएँ बच्चे को गोद में लेकर हंवाहिनी, गुलाबी पुष्पों से लदी हुई शंख-चक्र हाथ में लिए गायत्री का धन करें और मन ही मन गायत्री मंत्र का जप करें। माता के जप का प्रभाव गोदी में चढ़े बालक पर होता है ओर उसके शरीर तथा मस्तिष्क में आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है। छोटा बच्चा हो तो इस साधना के समय माता उसे दूध पिलाती रहे। बड़ा हो तो उसके सिर पर और शरीर पर हाथ फिराती रहे। बच्चों की शुभकामना के लिए गुरुवार का व्रत उपयोगी है। साधना से उठकर जल का अर्घ्य सूर्य को चढ़ा लेना चाहिए और थोड़ा-सा बचा हुआ जल बच्चे पर मार्जन की तरह गायत्री मंत्र बोलते हुए छिड़क देना चाहिए। इस प्रयोग से बच्चा दिन-प्रतिदिन स्वस्थ होता हुआ चला जाता है।

अपने ऊपर, अपने परिवार पर, परिजनों पर, प्रियजनों पर आई हुई किसी आपत्ति के निवारण के लिए अथवा किसी आवश्यक कार्य में आयी हुई किसी बड़ी रुकावट एवं कठिनाई को हटाने के लिए गायत्री साधना के समान दैवी सहायता के माध्यम कठिनाई से मिलेंगे। कोई विशेष कामना मन में हो और उसके पूर्ण होने में भारी बाधाएँ दिखाई पड़ रही हो, तो सच्चे हृदय से भगवती गायत्री को पुकारना चाहिए। माता जैसे अपनी प्रिय संतान की पुकार सुनकर दौड़ी आती है, वैसे ही गायत्री माता अपनी प्रिय पत्रियों-उपासिकाओं को अपनी अमित करुणा का प्रत्यक्ष परिचय देती और उनकी कष्ट कठिनाइयों को दूर करती है। आवश्यकता मात्र अपने भावभरे अन्तः करण से उन्हें पुकारने भर की है।


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