पृथ्वी से जोड़ें माँ जैसी सघन संवेदना

January 1998

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पृथ्वी क्या है? मिट्टी, पत्थर का बना जड़-पिण्ड। इसे ग्रह-गोलक भी कह सकते हैं, प्राणियों के लिए आहार जुटाने वाली आधार भी है यह। इसको मानव एवं मानवेत्तर जीवों का निवासस्थल कहने में भी हर्ज नहीं। इस प्रकार उसकी कितने ही प्रकार से व्याख्या-विवेचना की जा सकती है। इतने पर भी वैदिक अवधारणा में वह एक माँ है, और ममतामयी माता की सर्वोपरि विभूतियों से सम्पन्न है। ऋषियों की यह मान्यता कल्पनालोक की कोई उड़ान नहीं, न कोरी भावुकता है। यह वास्तव में दिव्य अन्तःकरण में प्रस्फुटित वह संवेदना है, जिसमें जड़ में भी जीवन की साक्षात अनुभूति होती है, इसलिए सूक्तकार ने उसे ज्यों-का-त्यों अलंकारिक वर्णन माना जाना चाहिए, न अत्युक्तिपूर्ण ही।

अथर्ववेद के बारहवें काण्ड का पहला सूक्त भूमि या पृथ्वीसूक्त कहलाता है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इसमें पृथ्वी के संदर्भ में कवि ने अपने उद्गार व्यक्त किये हैं। यहाँ एक बात स्पष्ट है, इसमें पृथ्वी के संदर्भ में कवि ने अपने उद्गार व्यक्त किये हैं। कि वैदिक कवि अर्थात् ऋषि द्रष्टा हुआ करते थे। वे सब कुछ अंतर्दृष्टि और अनुभूति के आधार पर लिखते थे। वर्तमान कवि काल्पनिक हैं। वे जो कुछ भी लिखते हैं, उनका आधार कल्पना, मान्यता, विचारणा होता है। सत्य-तथ्या से उसका सम्बन्ध हो-यह कोई जरूरी नहीं। ऐसी स्थिति में ऋषि की तुलना कवि से नहीं की जा सकती, न ही उनके कथनों का सीधा-सपाट अर्थ लगाया जा सकता है, उनमें निहित गम्भीर भावों को समझना पड़ेगा, तथा ऋषि की वास्तविक मनः स्थिति का अन्दाज लगाया जा सकता है, जिसमें रचना-कार्य सम्पन्न हुआ। भूमिसूक्त को पढ़कर ऐसा लगता है, कि ऋषि ने पृथ्वी से तदाकार कर लिया हो और तब जो अनुभूति हुई, उसे लिपिबद्ध किया हो। प्राचीन चीन में ऐसे चित्रकार हुआ करते थे जब उन्हें किसी वस्तु का, उपवन का चित्र बनाना होता, तो वे तब तक उसे प्रारम्भ नहीं करते, जब तक कि स्वयं उन्हें इसकी जीवन्त प्रतीति न होद जाए, अर्थात् ध्यान करते-करते जब उन्हें ऐसा स्पष्ट अनुभव होने लगता कि चित्र ऐसा स्पष्ट अनुभव होने लगता कि चित्र वे ही हैं, उपवन वे स्वयं हैं, तो ऐसी स्थिति में जो तस्वीर बनती, उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता, मानों उपवन को ही उठाकर कैनवास पर रख दिया हो। ऐसा वस्तु से एकाकार होकर ही सम्भव है। ऋषि ऐसे ही होते थे। उनकी रचनाओं में जहाँ कहीं भी इस प्रकार के वर्णन उपस्थित हुए हैं, उन्हें भावुक हृदय की अतिरंजना नहीं माना जाना चाहिए, वरन् एक सत्य के रूप में उसकी यथार्थता स्वीकार की जानी चाहिए।

रामकृष्ण परमहंस एक दिन दक्षिणेश्वर की अपनी कोठरी में बैठे हुए थे। सामने में मैदान से होकर एक व्यक्ति गुजरने लगा कि वे एकदम से तड़पने लगे। कुछ समय पश्चात् उनकी पीठ पर काले-नीले धब्बे पड़ गये। पूछने पर ज्ञात हुआ कि ऐसा उस व्यक्ति के मैदान पर चलने के कारण हुआ। उनकी सत्ता मैदान से किस कदर एकात्म हो गई थी, इस उदाहरण से यह समझा जा सकता है।

भूमिसूक्त के ऋषि कुछ ऐसी ही अभिन्नता अनुभव कर भावविभोर हो उठते हैं और अन्तःकरण गा उठता है-”माता भूमिः पुत्रों अहं पृथिव्याः” अर्थात् यह भूमि मेरी माँ है और विशाल हृदय का चरमोत्कर्ष। जिस समय पड़ के साथ ऐसा भाव और व्यवहार रहा हो, उस समय मानवी जीवन कितना उन्नत रहा होगा-यह विचारणीय है। सम्पूर्ण मंत्र पर यदि दृष्टिपात करें, तो ऐसा आभास मिलेगा, जैसे यह पृथ्वी मंत्र के रचनाकार को पहाड़, पर्वतों, नदी-नालों का भौगोलिक पिण्ड जैसी नहीं दीखती, उसमें उसको अपनी माँ की अनुभूति होती है, वह उसकी आत्मा से एकाकार हो जाता है और तब भावविह्वल होकर कहता है- यत् ते मध्यं पृथिवि यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्वः संबभूवु। तासु नो धेह्यभि नः पवस्व माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु॥

(12/1/12) अर्थात् हे पृथ्वी! हे माँ! यह जो तुम्हारा मध्य भाग है और जो उभरा हुआ ऊर्ध्व भाग है, यह जो तुम्हारे शरीर के विभिन्न अंग ऊर्जा से भरे हुए हैं, हे मातः! तुम मुझे अपने उसी शरीर में सँजों लो और दुलारो, मैं तुम्हारे पुत्र जैसा हूँ, तुम मेरी माँ हो और पर्जन्य का हम पर पिता जैसा संरक्षण बना रहे।

वास्तव में यह जीवन्त अनुभव ही ऋषिकाल में भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति का निमित्त था। आज जड़ तो दूर, प्राणियों के साथ भी जीवितों जैसा कहाँ बरताव होता हैं? इन दिनों जिस कदर मार-काट, हत्याओं और यंत्रणाओं का ताण्डव नृत्य चहुँओर हो रहा है, उसे देखते हुए कदापि नहीं लगता कि मनुष्य सृष्टि का मुकुटमणि प्राणी है और दूसरे जीवों से वह श्रेष्ठ है। उसकी वरिष्ठता का सर्वोपरि आधार भाव-संवेदना है। वह यदि शुष्क हो गई, तो मनुष्य और नरपशु में कदाचित् ही कोई अन्तर रह जाएगा। नरपशु अधम इसलिए है, कारण कि उसका प्रेम मोहजनित होता और परिवार-परिधि तक सीमित रहता है। मनुष्य को इस क्षेत्र में एक विशिष्ट विभूति मिली हुई है। वह समाज में जब कभी कष्ट-तकलीफ, आपदा-विपदा देखता है, तो उसकी करुणा छलक पड़ती है, वह उन्हें घटाने-मिटाने का प्रयत्न करता और ऐसी गतिविधियाँ अपनाता है, जिन्हें देखकर उसे परमात्मा का राजकुमार कहना सार्थक ही है। संकट तब उत्पन्न होता है, जब मानवी संवेदनाएँ सूख जातीं और अन्तराल छूँछ बन जाता है। अपना-पराया, छोटा-बड़ा, जड़-चेतन जैसी संकीर्ण मान्यताएँ इसी मनोदशा की देन हैं, अन्यथा जिनका अन्तः करण विकसित और विस्तृत हो गया हो, उनके लिए छोटा क्या, बड़ा क्या? जड़ क्या और चेतना क्या? सब एक ही सत्ता के विकास-विस्तार हैं, सब में उस एक की ही आभा और ऊर्जा संचरित एवं प्रकाशित हो हरी है। इस विकास की ही चरम परिणति ऋषियुग में भूमिसूक्त के रूप में सामने आई, ऋषि गा उठे-सा नो भूमिर्विसृजताँ माता पुत्राय में पयः (12/1/10) अर्थात् वह भूमि मेरे लिए उसी प्रकार दूध प्रवाहित करे, जैसे माँ अपने बेटे के लिए करती है। इस मंत्र में सूक्तकार ने भूमि के साथ माँ का सचमुच ही सम्बन्ध जोड़ लिया है और उससे शिशु की भाँति दूध की कामना कर रहे हैं।

आज के बुद्धिवादी इसे किसी अर्द्धविक्षिप्त मस्तिष्क का ही कथन मानेंगे, क्योंकि जिस भावभूमि में उसका सृजन हुआ है, उससे शायद ही वे परिचित हों। जिस अवधारणा में चन्द्र, सूर्य सहित समस्त ग्रहपिण्ड देवता स्वीकारे गये हों, उसमें पृथ्वी को माँ मान लेने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। भौतिक अनुदानों की दृष्टि से भी यदि विचार किया जाए, तो भी वह माँ से किसी प्रकार कम साबित नहीं होगी। मनुष्य इस भूमि पर जन्म लेता और उसकी मिट्टी में खेलकूद कर बड़ा होता है। पृथ्वी उसके आहार की व्यवस्था अपने धान्यों से करती है, अमृततुल्य शीतल जल वह अपना हृदय निचोड़कर देती है। इस क्रम में वह भले ही जलविहीन हो जाए, पर उसे देने में कृपणता नहीं बरतती। क्या इसे मातृहृदय नहीं कहेंगे? क्या यह मातृस्नेह से किसी प्रकार कम है? सम्पूर्ण जीवन भर आदमी उसी में आश्रय पाता और मृत्यु के उपरान्त पुनः उसी की गोद में समा जाता है। कवि भूमि में इन उपकारों से अभिभूत होकर कह उठता है-विष्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो निवेषनी। वैष्वानरं बिभ्रती भूमिरग्निमिन्द्र ऋषभा द्रविणेनोदधातु (12/1/6) अर्थात् समस्त संसार का निर्वाह करने वाली यह धरती धन से परिपूर्ण है, इसकी छाती सोने की है, सारा जगत उसमें प्रतिष्ठित है, सम्पूर्ण विश्व की यह क्षुधा तृप्त करती है। हमारी कामना है कि यह हमें समृद्धि से ओत−प्रोत करे।

कवि की वाणी यही नहीं रुकती, वह इस बात से भी चकाचौंध है कि किस प्रकार जल की अजस्र धाराएँ बिना किसी प्रामद के अहर्निश बहकर उसे वर्चस्व सम्पन्न बना रही हैं- यस्यामापः परिचराः समानीरहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति। सा नो भूमिर्भूरिधारा पयो दुहामथो उक्षतु वर्चसा॥ (12/1/9)

भूमि के अनुदानों से ऋषि-अन्तःकरण इतना भावप्रवण हो उठता है कि उसका उद्दाम वेग रोके नहीं रुकता, स्तुतिगान के रूप में वह फूट पड़ता है-यह वह पृथ्वी है, जिस पर अश्विनी कुमारों ने अपना रथ चलाता था, जिस विष्णु ने अपने पगों से लाँघा था, जिसे इन्द्र ने शत्रुहीन बनाया था। (12/1/10) यही वह पृथ्वी है, जहाँ प्राचीनकाल में ऋषियों ने अनेक प्रकार के काव्य लिखे थे- यस्याँ पूर्वे भूतकृत ऋषियो गा उदानृचुः (12/1/39)

धरती की अद्भुतता को निहारकर कवि इतना विस्मय-विमूढ़ हो जाता है कि उसे कुछ सूझता ही नहीं, आगे क्या लिखें, पर अन्दर का भावोद्वेग भी कोई कम नहीं, वह अन्तस् को मथने लगता है। कवि चाहता है कि पूरी पृथ्वी को कागज पर उतार दे, इसलिए भावदृष्टि के समक्ष जो कुछ आता है, उसी को लिखता चला जाता है-इसी पृथ्वी पर समुद्र हैं, नदियाँ हैं जल है-यस्याँ समुद्र उत सिंधुरापों (12/1/3), इसी पृथ्वी पर पत्थर और हिमियुक्त पर्वत एवं वन हैं- गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोऽरण्यं ते (12/1/11), इसी पर जीव-जन्तु विचरण करते हैं-मर्त्यास्त्वं बिभर्षि द्विपदस्त्वं चतुष्पदः (12/1/17), जिसकी सुगन्धि सूँघते हुए गंधर्व और अप्सराएँ नहीं अघाते-यं गंधर्वा अप्सरसष्च भेजिरे तेन मा सुरभि कृणु (12/1/23), इसी पर समस्त वृक्ष-वनस्पतियाँ खड़े हैं-यस्याँ वृक्षा वानस्पत्या ध्रवास्तिष्ठन्त (12/1/26), इसी भूमि पर चट्टानख् पत्थर और मृत्तिका है-शिला भूमिरष्मा पाँसुः सा भूमिः संधृता धृता। (12/1/26)।

पर अपने लाभ के लिए जब इस मिट्टी का धरती माता का उत्खनन करना पड़ता है, तो कवि-हृदय की पीड़ा घनीभूत हो उठती है। कवि सोचने लगता है-माँ! तुम रत्नगर्भा हो, तुममें कितने ही प्रकार के खजाने भरे पड़े हैं, पर माँ का पेट विदीर्ण कर डालने वाला बिच्छू बनकर उन्हें तुम्हारे गर्भ से कैसे खेद निकालूँ? यह कृतघ्नता नहीं होगी? क्या तुम्हारे उपकारों का बदला यही होना चाहिए? द्वन्द्व में फँसा कवि अन्ततः इससे उबरता है और भारी हृदय से प्रार्थना करता है- वह तो करना ही पड़ेगा, पर हे भूमि माँ! उससे तुम्हारे हृदय और मर्मस्थलों को पीड़ा न पहुँचे-यत् ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु। मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदययर्पिपम् (12/1/35)

उक्त मंत्र में ऋषि इतने करुणा-विगलित हो उठते हैं, मानो पृथ्वी का नहीं अपनी जन्मदात्री माँ का ही गर्भ काट रहे हों। जड़ और चेतना का यह कैसा अभिन्न संयोग है। दोनों सत्ताएँ तद्रूप हो उठती हैं। एकात्मता और एकरूपता की इतनी तीव्र अनुभूति का ही यह परिणाम था कि तब प्रकृति और पर्यावरण एकदम सुरक्षित थे। आज एकात्मता तो दूर, आदमी में सहृदयता भी नहीं रही। भौतिकवादी विचारधारा ने मानवी अन्तराल को इतना संवेदनशून्य बना दिया है कि उसे स्वार्थपरता के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। हर वस्तु के बारे में वह इस दृष्टि से विचार करता है कि उसका कैसा, कितना, किस प्रकार का उपयोग स्वयं के लिए लाभकारी होगा? भले ही उससे प्रकृति, पर्यावरण और समाज को अपार क्षति पहुँचे। यह एक प्रकार की चिन्तन-शैली है। जड़ के साथ किसी दूसरे प्रकार का भी बरताव हो सकता है, इसे आज का जनमानस अमान्य करता और कहता है कि जड़ के साथ जड़ जैसा ही आचरण हो सकता है। कदाचित इसी मनोवृत्ति और प्रवृत्ति के कारण वर्तमान लोग स्वयं भी जड़ीभूत हो गये हैं। भावनात्मक एकता, प्रेम, स्नेह, श्रद्धा जिन्हें पिछले दिनों तक प्राणी-प्राणी के मध्य का आदान-प्रदान समझा जाता था, वह भी अब कहाँ दिखाई पड़ते? जब जीव-जीव के बीच ही जड़ता को इसके उपयुक्त कैसे स्वीकारा जाता कि उसके साथ सद्भावना का व्यवहार हो सके। यही है जड़ और चेतन के मध्य का, मनुष्य और प्रकृति के मध्य का वर्तमान जीवन-दर्शन। इसी भोंडे तत्वदर्शन ने दोहन और शोषण को जन्म दिया। जड़ का दोहन और जीवन का शोषण-यह दो ऐसी अतिवादी गतिविधियाँ आरम्भ हुई, जिसने रही-सही मानवी संवेदना की अन्त्येष्टि कर दी। यही कारण है कि आजकल जीवन ही नहीं, जड़ ने भी प्रतिकार और प्रतिक्रिया दिखानी शुरू कर दी है।

पृथ्वी जड़ है-यह सत्य है, पर मिथ्या यह भी नहीं कि जड़ की भी पृथक एवं स्वतन्त्र सत्ताएँ होती हैं। जब वह कुपित होतीं, तो ऐसे अनर्थ खड़े करती हैं कि जीवन दूभर हो जाए। शालीनता-सज्जनता सबको प्रिय है, स्नेह-सौजन्य का वातावरण बना रहता है, तब तक प्राणी ही नहीं, प्रकृति भी सद्भाव दिखाती और सहयोग करती हैं लेकिन स्थिति बदलते ही प्रतिशोध के लिए कमर कस लेती है। इन दिनों यही हुआ है। पृथ्वी का जिस निर्दयता से दोहन चल पड़ा है, उससे उसके प्रकोप में अभिवृद्धि ही हुई है। विशेषज्ञ बताते हैं कि आज से सौ वर्ष पूर्व भूकम्पों और ज्वालामुखी विस्फोटों की विभीषिका इतनी विकराल नहीं थी, जितनी अब देखी जा रही है। यह वास्तव में और कुछ नहीं, क्रिया की प्रतिक्रिया है। वह अच्छी भी हो सकती है और बुरी भी। यह इस बात पर निर्भर है कि हम उसके साथ किस प्रकार का बरताव करते हैं। यह आदान-प्रदान जब तक चलता रहा, तब तक वैयक्तिक शान्ति बनी रही, उसके मिटते ही संकट गहरे होते चले गये।हम पृथ्वी से माँ जैसी स्नेह, संवेदना जोड़ें, वह हमें शान्ति, समृद्धि और सौभाग्य प्रदान करेगी।


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