एक निस्पृह-जाँबाज दंपत्ति की जीवन-गाथा

January 1998

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वे दंपत्ति थे। पत्नी का नाम था, एनिटा, इटली के महान क्रान्तिकारी योद्धा गैरीबाल्डी उसके पति थे। पारिवारिक जीवन के साथ राष्ट्रीय जीवन में भी वे एक-दूसरे के सहचर थे। उन दिनों वे दोनों रायोग्रेड में रह रहे थे, जब गैरीबाल्डी को अपनी सेना सहित एक युद्ध में संलग्न होना पड़ा। उस समय उसकी पत्नी एनिटा उसके साथ ही अष्वारोहण करती हुई युद्ध में अविराम उसे सहयोग दे रही थी। वह एक निर्भय देशप्रेम में गपी वीर स्त्री थी। सुन्दरता, सौम्यता, शील, सौजन्य के साथ ही उसके चरित्र में शौर्य और साहस का अद्भुत मिश्रण था। जब संग्राम में सामने से शत्रु सेना की तोपें अग्निपिण्ड बरसा रही होतीं, तो उस समय वह खुले मैदान में तोपों की परवाह न करती हुई इटालियन फोज् के तोपची के रूप में गोले दाग रही होती।

उसका यह वीरोचित कर्म न केवल उसके पति गैरीबाल्डी, बल्कि उसकी पूरी सैन्य टुकड़ी को ऊर्जा-उत्साह और नव-स्फूर्ति प्रदान करता था। उस जैसी वीरान जंगल में अपने चार दिन के घास-फूस के झोंपड़े में जिस सुरुचि, श्रम और सहिष्णुता के साथ गृहस्थी का सजा-सँवरा रूप खड़ा करने में सक्षम थी, उसी उत्साह, सूझ-बूझ, साहस के साथ वह युद्ध, अनवरत संघर्षों तथा फरार जीवन के कष्ट, झेलने में अग्रणी थी। दुःखों, कष्टों, भूख, प्यास, थकान के बीच उसके मुख पर कभी हताशा या म्लानता नीं देखी गयी। पर पग पर चरितार्थ करती चलती थी कि जब उसका उसके पति का सम्पूर्ण जीवन स्वतंत्रता के लिए समर्पित है तो ये सब विषम परिस्थितियाँ उसके लिए उपहार ही हैं। घोर दुर्दिनों में कभी गैरीबाल्डी के सामने ऐसा कोई क्षण नहीं आया जब उसे एनिटा को धैर्य या सांत्वना देने का कोई मौका आया हो। उल्टे वही सब प्रकार के अभावों, संघर्षों तथा मुसीबतों में पति को तथा उनके संघर्षशील सहयोगियों को नवसाहस, संबल, शक्ति और नवस्फूर्ति प्रदान करती थी। वह गैरीबाल्डी के सभी साथी सैनिकों की माँ-बहिन सभी कुछ थी। कोई सैनिक उसे माता कहता तो कोई बहिन, कोई उसे अपना पथ-प्रदर्शक मानकर विश्वास जताता। भीषण-से-भीषण संकटों में भी वह हँसती रहती तथा अपनी प्रसन्नमुद्रा से गैरीबाल्डी की हारी -थकी सेना को प्रसन्नता प्रदान करने में जुटी रहती।

उस दिन युद्ध के बीच जब-वह तोपची के काम को वीरतापूर्वक अंजाम दे रही थी, शत्रु सेना की तरफ से यह अफवाह उड़ा दी गयी कि गैरीबाल्डी मारा गया। उस क्षण युद्ध खत्म हो चुका था तथा युद्ध में एनिटा अश्व मारे जाने से उसे कैछ किया जा चुका था। पति के रण में खेत रहने की खबर सुनकर उसने शत्रु शिविर से आग्रह किया कि मुझे अपने पति का शव खोज लेने दिया जाय। फलतः उसके साथ एक सैनिक निगरानी के लिए भेजकर उसे समराँगण से अपने मृत पति की लाश खोजने भेजा गया। शव तो न मिला, न मिलना ही था, क्योंकि गैरीबाल्डी जीवित था। एनिटा को लड़ाई के मैदान में अपने पति का ऊपरी चोगा मिला। वह उस आच्छादन को कन्धों पर ओढ़कर शत्रु सैनिकों के साथ लौटा रही थी कि एक स्थान पर कुछ मौका पाते ही वह फरार हो गयी।

बाद में जानकर लोगों को आश्चर्य हुआ कि पूरे चार दिन और चार रातों तक अविराम चलती ही रही। इस बीच उसने उस कण्टकमय वन्य और पर्वतीय पथ का साठ मील का फासला पैदल तय कर डाला। उस जंगल में कहीं शेर-बाघ दहाड़ते थे, तो कहीं अजगर लहराते थे, पर एनिटा उनके बीच निर्भीक भाव से पथ पारा करती गयी। पूरे साठ मील के सफर में उस बियावान में एक भी आदमी कहीं नहीं आया। बड़ा बीहड़ पथ था वह और वस्तुतः सच कहें तो पथ या पगडण्डी जैसे कोई चीज वहाँ थी नहीं। वह घास-काँओं के बीच ही रास्ता बनाती बढ़ती गयी थी।

कहीं-कहीं उसे जंगली बेरों की झाड़ियाँ मिलीं तो चार क्षण रुककर उसने उन बेरों से अपनी क्षुधा शान्त कर ली, किसी झरने से पानी पी लिया, पर सोना नहीं, विराम नहीं करना। अविराम चलकर पाँचवें दिन वह जब एक वन से गुजर रही थी, एक अज्ञात आदमी उसे मिला और उसके प्रति पूरी हमदर्दी जताते हुए उसने आग्रहपूर्वक अपना अश्व उसे दे दिया, ताकि इतनी थकावट और भूख-प्यास के बीच उसे यथाशीघ्र अपनी मंजिल मिल सके। आगे उसे कई नदियाँ मिलीं। उन्हें पार करते हुए उसे चार दिन अश्वारोहण करते चलना पड़ा, तब नौवें दिन उसे गैरीबाल्डी दिखाई दिया। गैरीबाल्डी ने देखा, विगत आठ दिनों की अनवरत यात्रा तथा भूख, प्यास व थकान ने एनिटा को जर्जर बना डाला है। उसने पीठ ठोंककर उसे इन बात के लिए शाबाशी दी कि ऐसे बुरे दिनों में भी उसने धैर्य नहीं खोया।

लेकिन विषमता तो जैसे उसकी अभिन्न संगिनी थी। एक दिन दोनों देश-प्रेमियों के जीवन में ऐसा आया, जब सागर में संतरण करते समय इनका जलयान आँधी-तूफान में फँसकर ध्वस्त हो गया जहाज छोटा ही था। साथी सैनिक उससे दूर छूट गए। यह घटना सान्टा केटिरिना के तट पर हुई। उस दिन तो एनिटा को जहाज का मात्र एक तख्ता ही नसीब हो पाया खड़े होने के लिए। उसी पर पाँव टिकाकर वह शत्रु सेना पर तोप के गोले बरसाती हुई तोपची का दायित्व पूरी सजगता से निभाती रही। शत्रु सेना जान ही नहीं सकी कि गैरीबाल्डी के तोपखाने की गनर एक स्त्री है।

संघर्षों के इन्हीं झंझावातों के बीच एनिटा ने एक बेटे को जन्म दिया। नाम रखा। मेनोटी। उसके जन्म के साथ ही गैरीबाल्डी को एक युद्ध में फँस जाना पड़ा। एनिटा फिर भी पीछे नहीं रही। आखिर एक तोपची के नाते उसे अपने समररत पति का साथ जो देना था। गैरीबाल्डी ने उसे टोका भी-”एनिटा! तुम हाल में ही प्रसवकक्ष से बाहर आयी हो। बेहतर होगा, अपने बच्चे की देखभाल करने शिविर में रुको, मेरे साथ मत चलो।” पर उसने कहा, “जब एक नया युद्ध मेरी परीक्षा लेने आया है, तो कोई भी मजबरी हमें शिविर में नहीं रोक सकती। मैं सेना के साथ ही रहूँगी और लड़ूंगी।” यह कहकर उसने अपने इकलौते बेटे को एक कपड़े में बाँधकर, उसे झोली की तरह गलें में लटकाकर सेना में आ मिला। इस बार तीन मास तक एनिटा और गैरीबाल्डी को सेना सहित युद्ध में व्यस्त रहना पड़ा। लास एनटास में हुए इस युद्ध ने बहुत भयावह रूप धारण कर लिया। लोगों ने उन कष्टों, अभावों की कभी कल्पना भी न की होगी, जो इन दोनों देशानुरागियों ने उन तीन महनों में झेले।

उस वन और समुद्री तट पर रोज भयंकर तूफान उठते थे, अंधड़ चलते थे, खूब शीत पड़ता था और उस शीत में वर्षा भी झेलते थे ये लोग। भेजन के नाम पर जंगली बेर। जड़ें और सूखा काष्ठ जलाने को न मिलने पर रात भर जागते बीतता। कई-काई दिन खाने को कुछ न मिल पाता। मिलता तव केवल पानी और उस स्थिति में भी चलना बीस-तीस मील। तब भी एनिटा गैरीबाल्डी को हँसाए बना न रहती। घोर संकट वेला में भूख-प्यास, थकान और शीत में काँपते रहकर हँसना ऐसे ही महाप्राणों के वष क है, जिनके चरित्र में देशहित, सर्वोपरि रहती है। उन दोनों के जीवन ऐसे ही संस्कारों से जगमग थे। सानजिबराइल के पथ पर कई नदियाँ पार करते समय अनेकों बार ऐसा हुआ कि झोली में पड़े नन्हे बच्चे को गैरीबाल्डी अपने गले में टाँगे और एनिटा के साथ अपने शस्त्रोस्त्रों को ऊपर उठाये ये दोनों जुझारू नहीं पार कर रहे थे।

उन्हें आगे का जीवन फरार बिताना पड़ा। अतः गैरीबाल्डी ने अपने सैनिकों को स्वतन्त्र कर दिया और उनसे कहा कि फिलहाल तुम लोग अपने मनचाहे स्थानों पर जा सकते हो। फिर मौका आया तो हम सब इकट्ठे होकर देश की स्वतन्त्रता के लिए लड़ेंगे। हमारा ध्येय कभी विस्मृत न हों। रायोग्रेड से चलकर वे दोनों मोंट वीडियो आए। इस यात्रा में भरण-पोषण के लिए उनके पास कुछ न था। एक दिन उन्होंने सोचा, क्यों न जंगलों-खेतों में सक्र्र्रय लोगों के गाय-बैल हम दोनों चरा लिया करें। अहो देशभक्ति! इटली के महान-क्रान्तिकारी सेनापति और उनकी तेजस्विनी पत्नी अपने लक्ष्य-सिद्धि के लिए चरवाहा बन गए। दिन-दिन भर गया-बैल, भेड़-बकरियों के रेबड को चराते हुए वे दोनों लोगों को जनक्रान्ति का संदेश दिया करते।

तभी पुनः युद्ध ने उन्हें पुकारा। हुआ यों कि ब्यूनसआयरिस और रोजस के बीच लड़ाई शुरू हो गयी। गैरीबाल्डी और उसकी पत्नी से लोगों ने सहायता माँगी। वे दोनों तत्पर हो गए। इसमें मिली सफलता के पश्चात् दोनों ने ही नए सिरे से राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिए फौज संगठित की। इसका ध्वज श्यामवर्णी था। मध्य में अंकित था एक धधकता ज्वालागिरि। इसका भावार्थ यह था कि उसका अपना देश संतप्त-शोकाकुल है तथा उसके अन्तर में दुःख का दावानल धधक रहा है। इन दोनों के ही प्रेरणा-गुरु मेजिनी थे, जो आजीवन जब तक देश पराधीन रहा उसकी स्मृति स्वरूप काले कपड़े ही पहनते रहे। गैरीबाल्डी के सैनिक लाल रंग की वर्दी पहनते थे। इस सेना में अपना घर-परिवार त्याग कर आए ऐसे युवक थे, जिनका एकमात्र जीवनोद्देश्य था-राष्ट्र को स्वतन्त्र कराना।

गैरीबाल्डी और उसकी पत्नी ऐसे जाग्रत जनों के सेनापति और संरक्षक थे। एनिटा उन लोगों से कहा करती-”तुम आज अपने हृदय पर हाथ रखकर सुनो तो कि तुम्हें अपने देशवासी पूर्वजों के रक्त का स्पन्दन सुनाई पड़ता है या नहीं, जिन्होंने अपने देश के लिए महान कार्य किए। आओ तुम भी शपथ लो कि कभी अपनी मातृभूमि का दूध नहीं लजाओगे और दुनिया को यह अपने जीवन में चरितार्थ कर दिखाओगे कि तुम्हारा जन्म देश की सेवार्थ हुआ है और हम अपने देश की सच्ची संतान है।” एनिटा की ओजस्वी वाणी सुनकर उनमें से हर एक शपथ लेता कि कैसा भी भयावह संकट घिर आए, हम अडिग होकर स्वतन्त्रता के लिए संघर्षरत रहेंगे।

वे दोनों ही कभी भी अपने जख्मी या युद्ध में पंगु हो जाने वाले सैनिकों की जना भी उपेक्षा नहीं करते थे। वरन् उनकी तीमारदारी व दवा-इलाज में खाना-सोना भूल जाते। युद्ध के बीच में भी वह अपने घायल साथी को स्वयं उठाकर लाते। प्रायः ऐसे क्षणों में स्वयं उसकी जान जाने का खतरा सामने आ खड़ा रहता। लेकिन वह अपने सैनिकों को सदैव ही ऐसी शिक्षा देते रहते कि अपना कोई भी सैनिक समराँगण में उपेक्षित न पड़ा रहे। इसके लिए सब ओर उनकी कीर्ति फैली थी। सैकड़ों मरणासन्न घायल एनिटा की सेवा ने बचा लिए थे।

देश की खुशहाली के दिनों में जब देश के शासन ने उसे जनरल की उपाधि दी, कहा कि आज से आपको प्रधान सेनापति बनाया जाता है, तो गैरीबाल्डी ने कहा-”पद मैं स्वीकार नहीं करता।” तब उसे राज्य द्वारा लाखों पाउण्ड देकर पुरस्कृत करने की चेष्टा की गयी। गैरीबाल्डी ने कहा, “देश की मुझसे जो भी सेवा बन पड़ी उसके लिए कोई भी धनराशि, पद या पुरस्कार मुझे स्वीकार नहीं।” और देखा यह गया उन दिनों वे पति-पत्नी भीषण अर्थाभाव व गरीबी झेल रहे थे। उनका बेटा रिकियो मेनोटी काफी बीमार था। डॉक्टर बुलाया गया तो पथ्य के नाम पर उनके घर में मात्र थोड़ा-सा कच्चा मटर था। न रोटी, न पनीर और न एक प्याला दूध उस बीमार बच्चे के लिए-और बच्चा अभी छोटा ही था। एनिटा भी प्रसूति और युद्ध के कारण काफी कमजोर हो गयी थी। उस डॉक्टर का दिल भर आया। गैरीबाल्डी और एनिटा से छिपाकर उसने यह स्थिति उनके मित्रों को लिख भेजी। तब उन्हें विवशतः यह सहायता स्वीकार करनी पड़ी।

आगे जब इटली के युद्ध मंत्री ने उन पर जोर डाला कि देश ने जो धनराशि आपके लिए सुनिश्चित की है, उसे यदि अपने लिए न लेना चाहे तो अन्य किसी कार्य में खपा दें। इस पर गैरीबाल्डी और एनिटा ने उनसे अनुरोध किया कि राज्य की ओर से उनको दी जाने वाली धनराशि रुग्ण तथा घायल सैनिकों में बाँट दी जाए। इस संदर्भ में उन्होंने इटली के युद्धमंत्री को जो ऐतिहासिक पत्र लिखा था, उसकी कुछ पंक्तियां प्रत्येक राष्ट्रभक्त के लिए हृदयस्पर्शी हैं-

महाशय! हम दोनों से देश की जो भी यत्किंचित् सेवा बन पड़ी, उसके बदले सरकार हमें जो भी प्रतिष्ठा-पुरस्कार तथा पद-गरिमा प्रदान करना चाहती है, यथार्थ में हम उसके हकदार हैं ही नहीं। अगर मैं सरकार से देश की लाड़ली सन्तानों के खून के बदले में कोई पुरस्कार, पद या प्रतिष्ठा खरीदूँगा तो वह मेरी आत्मा का पतन सिद्ध करेगी। जिस समय मैंने अपने देश-बन्धुओं में कुछ जाग्रति, उत्साह और साहस उत्पन्न करने की कोशिश की थी, उस वक्त मेरे मानस में यही भावना थी कि अपने देशवासियों को अत्याचारों और पीड़न से बचाऊँ, अतः आज अगर मैं उस सेवा के पुरस्कार स्वरूप कोई प-प्रतिष्ठा आदि स्वीकार करूं तो वह आत्मवंचना ही होगी। अमेरिकी संग्राम में भी उन्होंने इसी एक उद्देश्य से भाग लिया था कि उस युद्ध में मेरे देशवासी साथी निपुणता प्राप्त कर लेंगे। जिससे आगे वे देश की स्वतन्त्रता में अच्छी तरह भागीदार हो सकेंगे। इन्हीं दिनों की बात है जब गैरीबाल्डी एवं एनिटा मोंट वीडियो में थे। एक रात फ्राँसीसी नौसैनिक बेड़े का प्रधान उनसे भेंट करने आया। अभी तक गैरीबाल्डी और एनिटा ने शौर्य, सच्चाई, ईमानदारी आदि सद्गुणों से विश्व में जो कीर्ति अर्जित की थी, उसी से प्रभावित होकर वह उनसे मिलने को उत्सुक हुआ था। उसकी कल्पना थी कि ऐसा वीर सेनापति और उसकी पत्नी अवश्य काफी वैभव और ताम−झाम के साथ रहते होंगे। किन्तु उस समय वह अवाक् रह गया, जब उनके यहाँ जाने पर उसने देखा कि जिस एक मामूली से झोंपड़े में वे दोनों रह रहे हैं, उसमें दरवाजे तक नहीं है।

महज आड़ के लिए एक खुली-सी टट्टर है और वह भी कम जर्जर नहीं। फ्राँसीसी नौसेनाध्यक्ष जैसे ही उस टट्टर को हटाकर घुसने को हुए कि वह गिरते-गिरते बचे, क्योंकि टट्टर को अन्दर से बन्द समझकर उसमें जरा धक्का दिया थाँ। उस टट्टर में था क्या? वह जरा से धक्के में ही अलग जा गिरी और एडमिरल महोदय वहाँ रखी एक कुर्सी से टकरा गए। उनके मुख से अनायास यह क्षेभ मुखर हो उठा, ऊफ क्या आवास है कि प्रधान सेनापति गैरीबाल्डी से जो आदमी मिलने जाए, उसे अपनी जान की जोखिम जरूर उठानी पड़े। वाह भाई वाह!

गैरीबाल्डी को क्या पता कि उस अँधेरे में उससे मिलने कौन आया है। आवाज और आहट सुनकर उसने अवश्य पत्नी से पूछा, “एनिटा! क्या बात हैं।”

वह बोली, “क्या तुमने सुना नहीं दरवाजे पर कोई कुछ कह रहा है।” गैरीबाल्डी ने कहा, “तो कुछ हो तो उजाला कर लो न!”

एनिटा ने कह दिया, “क्या जलाऊ! मोमबत्ती है न कोई लैम्प। एक सेण्ट भी नहीं कि मोमबत्ती मँगवा लूँ।”

गैरीबाल्डी ने शान्त, धीर और ठण्डे स्वर में कहा, “हाँ तुम ठीक कहती हो एनिटा, इसमें झूठ क्या है?” उसके शब्दों में दार्शनिकता तटस्थता का भाव था।

तब तक फ्रेंच नौसेनाध्यक्ष अन्दर आ गया, पर वे परस्पर पहचानें कैसे अँधेरे में। अन्दाज से ही गैरीबाल्डी ने स्वागत करते हुए कहा, “आइए महोदय! चले आइए।”

वह आ तो गया ही था, अपना परिचय स्वयं देने लगा तो गैरीबाल्डी कह उठा, “ओह! एडमिरल! छरअसल मैंने एक वार्त्ता निश्चित तो की थी मोंटवीडियो रिपब्लिक के साथ, किन्तु जब सूची बनी तो उसमें मैं नाम लिखना भूल गया। अब यहाँ यह है कि एक मोमबत्ती भी नहीं और जैसा कि एनिटा कह रही है, एक सेण्ट(1/100 डालर यानि तत्कालीन भारत के दो पैसे) भी घर में नहीं कि वह मोमबत्ती मँगा सके। खैर अँधेरा रहने दो। उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। मेरा ख्याल है कि आप मुझसे बात ही करना चाहेंगे। देख तो आपने होगा ही।” होता क्या, उस अंधकार में ही दोनों बातें करते रहे। फिर गम्भीर मौन धारण किए एडमिरल सीधे युद्धमंत्री जनरल-ओविस के पास पहुँचा, उससे गैरीबाल्डी का रहन-सहन जैसा देखा था, बताया। युद्धमंत्री ने तत्काल 200 पौण्ड अपने आदमी के जरिए गैरीबाल्डी के घर भिजवा दिए।

गैरीबाल्डी ने सारी रकम एनिटा को दे दी। एनिटा ने उसमें से तीन पेंस मात्र रखकर शेष धन अपने सेना के मृत सैनिकों की विधवाओं में बँटवा दिया, उन तीन को अपने हाथ में लिए एनिटा मुसकराते हुए अपने पति से कहने लगी, इससे हम लोग मोमबत्तियाँ खरीद लाएँ, ताकि फिर कभी कोई नौ सेनाध्यक्ष आए तो उसे कुर्सी से टकराना पड़े। अपने घरेलू कामों में उस दंपत्ति ने उन रुपयों से एक पाई भी नहीं खर्च किया। मानव-चरित्र की यह बुलन्दी क्या आज भी किसी समाज के लिए प्रेरणादायक नहीं?

इतने बड़े सेनापति के झोंपड़े में दरवाजा बिना सिटकनी का और वह भी दरवाजे की जगह एक निर्बन्ध चला आए और जब चाहे चला जाए। द्वार खोजने और बन्द करने का कोई झंझट नहीं। जब -जब उस झोंपड़े में खुली हवा का झोंका आता गैरीबाल्डी और एनिटा कह उठते, “सच में घर में द्वार बिना किवाड़ों का ही ठीक है। वर्षा और वायु दोनों ही दृष्टियों से बड़ा लाभप्रद और सुविधाजनक है। खूब खुली हवा आती है और फिर मेहमानों के लिए भी कोई बाधा नहीं।”

पता नहीं गरीबी के इन गौरव वचनों से कितने लोग अपनी सहमति रख पाएँगे किन्तु इन महान देशभक्त दंपत्ति का यह रहन’-सहन उन्हें आज के युग में जहाँ पद-प्रतिष्ठा, प्रलोभन ही चरम उपलब्धियाँ हैं, कुछ सोचने पर विवश करेगा। एक दिन फ्राँस के प्रधान सेनापति पेशे कोई ओविस को इन महान क्रान्तिकारी दंपत्ति के जीवन के प्रति भरे हृदय से यह कहना पड़ा कि ये दोनों ही एक जैसे हैं। इन महान विभूतियों ने उस देश के खजाने से एक सेण्ट भी नहीं लिया, जिसकी उन्होंने अपना रक्त बहाकर रक्षा की और जो अनवरत उसकी स्वतन्त्रता के पहरुए उसी उत्साह से बने रहे।

यह गैरीबाल्डी का ही काम था कि उसने दो-दो राज्य जीतकर विक्टर इमानुएल को दे डाले। उन राज्यों की विजय पर उसे ‘युवराज के केलेटा किसी ‘ तथा ‘द ग्र्रान्ड क्रास ऑफ एननषिएटा ‘ जैसी उपाधियाँ प्रदान की गयीं, परन्तु उसने उन्हें कभी नहीं स्वीकार किया। फिर उसे पाँच लाख फे्रंक सालाना आमदनी का एक पुरस्कार प्रदान किया और शासकों से कहा, जिस सेना ने देश को विदेशी दासता से मुक्त कराया, उसे याद रखिएगा। इतना कहकर वे दोनों एक ऐसे पथरीले द्वीप पर चले गए जिस के परेरा कहते थे। आखिर वे निर्वासित क्रान्तिकारी थे। उस टापू पर उन्होंने एक गरीब और साधनहीन किस्म की जिन्दगी बसर की। अपने हाथों से वे उस कंकरीली जमीन पर खेती करते। उन्हें सन्तोष और सुख था तो यह कि उसने अपने देश को लाखों लोगों को, गुलामी के चंगुल से आजाद कराया, उन्हें एकता प्रदान की।

क्रान्तिकारी जीवन होता ही ऐसा है। मृत्यु उसे पग-पग पर खोजा करती है, अनन्त कष्ट उसके जीवन को ग्रस लेते हैं। गैरीबाल्डी की पत्नी एनिटा केपरेरा से बाहर आते ही लम्बे सफर के कारण बीमार पड़ गयी। फिर भी वे दोनों एक साथ रहे। कहीं घोर दलदल पड़ता तो कहीं भयंकर मरुस्थल। एक जगह पैदल चलते हुए एनिटा ऐसी गिरी कि लगा अब उठेगी नहीं। चारों ओर आस्ट्रियन फौज इन्हें सूँघती-खोजती फिर रही थी। आग लामसड्योला ग्राम आया, जहाँ पहुँचकर एनिटा की दशा अत्यधिक बिगड़ गई। उसे गैरीबाल्डी ने एक दयालु किसान के जर्जर झोंपड़े में लिटा दिया। उसकी नाड़ी टटोली तो समझ गया कि अब वह अन्तिम विदा ले रही है। उसका हाथ छूकर वह बोला-

“एनिटा जाओ! तुम्हें भी अपनी पूर्व मृत बेटी की तरह देश के चरणों में न्योछावर करता हूं।” एनिटा की झील-सी गहरी आँखें उसकी ओर उठी-वह कांपते स्वर में बोली- “मुझे पहले वचन दो, देश को पूर्णतया स्वतन्त्र कराने का मेरा स्वप्न अवश्य पूर्ण करोगे।”“ऐसा ही होगा एनिटा!” गैरीबाल्डी भर्राए गले से बोला, मरते दम तक मेरा संघर्ष जारी रहेगा, यह मेरा तुमसे वायदा है। गाँव के उसी झोंपड़े में उस वीर क्रान्तिकारिणी ने संसार से विदा ली। गैरीबाल्डी भी मृत्युपर्यन्त अपने राष्ट्रीय संघर्ष में लगा रहा। उसकी राष्ट्र भक्ति विश्व के प्रत्येक राष्ट्र कि सच्चे सेवक के लिए अनुकरणीय आदर्श है, जिनके जीवन की चादर सदा बदाग ही जिन्होंने ज्यों की त्यों धरि दीन्ही चदरिया।


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