परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी- - गायत्री महाविद्या एवं उसकी साधना

January 1998

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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियो, भाइयो! यहाँ इस शिविर में आपको गायत्री साधना करने के लिये बुलाया गया है। इस समय आपको घूमने-फिरने के लिया नहीं, शुद्ध रूप से साधना करने के लिए हमने आपको निमंत्रण दिया था। साधना करने के उद्देश्य से जो आयें है, उनको ठहरना चाहिए। घूमने-फिरने के लिए हरिद्वार आना बहुत व्यर्थ ही रहता है। शुद्ध रूप से इच्छा होनी चाहिए। साधना किसकी, गायत्री की। गायत्री की साधना के सम्बन्ध में आपको क्यों बुलाना पड़ा? इससे पहले भी हम आपको कई बार साधना की करा चुके हैं, आपको बता चुके हैं, फिर क्या जरूरत पड़ गई इस साधना को सिखाने की-इस साधना को बताने की। मित्रो! बहुत समय से हम आपको गायत्री उपासना का कर्मकाण्ड एवं क्रिया-कलाप समझाते रहे हैं कि पावन गायत्री मंत्र क्या होता है ओर गायत्री उपासना कैसे की जा सकती है? कर्मकाण्ड तो कलेवर मात्र है। यह उपासना का शरीर मात्र है, जिसे अभी हमने आपको बताया।

शरीर किसे कहते हैं? शरीर उसे कहते हैं जो दिखायी पड़ता है, जो देखा जा सकता है, जो अनुभव में लाया जा सकता है। हमारा शरीर आपके सामने बैठा हुआ है, कैसा है? उसमें उँगलियाँ हैं, हाथ हैं, नाक है, कान हैं, दाँत हैं, बाल हैं। इसे हम देखते हैं। छू भी सकते हैं इस शरीर को, लेकिन इसके भीतर एक ऐसी विशेषता छिपी हुई है, जिसे आप देख भी नहीं सकते और सुन भी नहीं सकते। केवल अपने गहन अनुभव के द्वारा ही इसको जाना जा सकता है। आपका प्राण कैसा है- बताइये। साहब, प्राण दिखायी तो नहीं पड़ता, कितना शक्तिशाली हैं मालूम नहीं पड़ता। कितना ज्ञानवान हैं- मालूम नहीं पड़ता, कितना चरित्रवान है- मालूम नहीं पड़ता। आँखों से मालूम नहीं पड़ सकता, दिखायी नहीं पड़ सकता। केवल विचारणा के द्वारा आप यह जान सकते हैं कि आपके शरीर में कोई प्राण होगा। फिर आप उससे भी गहराई में जानना चाहें तो यह जान सकते हैं कि आचार्य जी का प्राण कितना शक्तिशाली होगा कितना सामर्थ्यवान, कितना महत्वपूर्ण होगा, कितना विकसित होगा। आप ज्यादा खोजबीन करेंगे तो ही आपको यह मालूम पड़ेगा। ज्यादा खोजबीन नहीं करेंगे तो आपको केवल हमारा शरीर दिखाई पड़ेगा। आप यहां हमारा दर्शन करने के लिए आये हैं, अच्छा साहब क्या देख करके आयें? हमारा शरीर देखकर आये। तो क्या फायदा हुआ-इससे कुछ भी फायदा नहीं हुआ। बूढ़ा आदमी था, बैठा हुआ था, चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ीं हुई थी, सफेद बाल वाला था। हमने देखा तो माला पहना दी। क्या फायदा कर लाया? कोई फायदा नहीं हुआ।

दर्शन का मर्म समझें

वस्तुतः दर्शन करने, सुनने की चीज नहीं। असल में जो फायदा उठाना चाहते हैं वह किससे मिल सकता हैं? जीवात्मा के आशीर्वाद से। शरीर का कोई आशीर्वाद नहीं है। हमारा आशीर्वाद हमारी भावनाओं में जुड़ा हैं-हमारे स्नेह में जुड़ा हुआ है, हमारे सिद्धान्तों में जुड़ा हुआ है, हमारे में मन में जुड़ा हुआ हैं। अगर स्नेह के साथ तुम्हें कोई आशीर्वाद दे या परामर्श दे दे तो उसका कोई असर शरीर पर पड़ेगा क्या? शरीर पर कोई असर नहीं पड़ सकता। गायत्री उपासना-गायत्री साधना के क्रियापरक कर्मकाण्ड की तुलना शरीर के कलेवर से की जा सकती है। शरीर और चेतना दो भिन्न चीजें हैं। इससे शरीर का लाभ है क्या? शरीर का भी लाभ है। हम क्या सेवा कर सकते हैं, हाथ से? हम आपके लिए पानी पिला सकते है, हजामत बना सकते हैं और क्या कर सकते हैं? पैर दाब सकते हैं, हाथ-पाँव से यही सेवा कर सकते हैं, लेकिन हम अपने ज्ञान के द्वारा आपका कायाकल्प कर सकते हैं और अपनी ज्ञान की भावनाओं के द्वारा कोई आशीर्वाद देना चाहें तो आपके जीवन का विकास कर सकते हैं। शरीर की अपेक्षा प्राण बहुत बलवान है। शरीर हमारा वैसे भी कमजोर है, छोटा है। लेकिन प्राण की शक्ति असीमित है। इसी तरह गायत्री उपासना का कर्मकाण्ड परक क्रियाकृत्य भी है। आप लोगों ने बहुत समय से सीखा है ओर जाना है। एक खस बात मैं समझता हूँ कि इतना लाभ तो जरूर हुआ होगा कि मन की एकाग्रता हुई होगी। गायत्री उपासना आप बहुत दिनों से करते रहे हैं फिर क्या लाभ हुआ होगा? अपनी दिशाएँ अस्वस्थ हो तो प्रगति रुक गी होगी उससे। और क्या लाभ हुआ होगा- और कोई खास लाभ तो नहीं हुआ होगा, क्योंकि आपकी उपासना क्रिया-कलाप तक सीमित थी, कलेवर तक सीमित थी। यह भजन था उसका, कलेवर था, शरीर था जो कि बहुत दिनों से आपको हम सिखाते हुए चले आ रहे थे। उसमें क्रियाएँ करनी होती थीं। किससे? शरीर से अब तक अपने कलेवर सीखा होगा। उसमें क्रियाएँ करनी पड़ती थीं।

क्रियाएँ क्या करनी पड़ती थीं? कैसी क्रियाएँ करनी पड़ती थीं? शरीर से करनी पड़ती थीं, जैसे माला घुमानी पड़ती थीं, किससे घुमानी पड़ती थी? हाथ से-अँगुलियों से घुमानी पड़ती थी। किसकी माला? लकड़ी की। लकड़ी की माला चमड़े की अँगुलियों से घुमानी पड़ती थी। हेराफेरी उपासना की जिसको हम भजन कहते हैं, कलेवर कहते हैं। अब तक जो आप उपासना करते रहे हैं, जिसको मुख से उच्चारण करना पड़ता था, जीभ से उच्चारण करना पड़ता था, वह किस चीज की बनी है? चमड़े की। चमड़े की जीभ क्या बोलती थी? गायत्री मंत्र बोलती थी, ॐ नमः शिवाय बोलती थी, राम-राम बोलती थी। अभी तक जो उपासना धूपबत्ती के माध्यम से, चन्दन के माध्यम से, अगरबत्ती के माध्यम से, चावल के माध्यम से आप पूजा-उपासना जो करते रहे हैं, सब भजन था। उस भजन-उपासना का लाभ उतना ही बन सकता है, जितना कि हमारे शरीर और हमारे कान के बीच अन्तर है, वही अन्तर भजन और उपासना में है।

चलें उच्चस्तरीय शिक्षण की ओर

अब इस समय हम यह मान लेते हैं कि आपको पौराणिक कबूतर वाली कहानी की कोई जरूरत नहीं रहीं। अब आपको सुन्दरता का प्रोनउन्येशन बताना चाहिए, उच्चारण बताना चाहिए। अब आपको बालकों की गोलियों की विशेष आवश्यकता नहीं रहीं। अब किन्डर गार्टन के माध्यम से आपको अक्षरों का लिखना बताया जाएगा। हम समझते हैं कि आप रोज तो क्या, जिन्दगी भर किन्डर गार्टन के द्वारा अक्षर सीखते हरे। अब हमें आपको अक्षर सिखाना चाहिए, आपको लिखना सिखाना चाहिए, अब हमें आपको बोलना सीखना चाहिए। अब हमें आपको उच्चस्तरीय शिक्षा देनी चाहिए। दूसरी बातें बतानी चाहिए, ताकि उसका वास्तविक लाभ उठा सकें, अब आपको वास्तविक लाभ उठाने के लिए हमने इस शिविर में बुलाया है। वह उपासना जो आदमी को समर्थ बना सकती है, वह उपासना जो आदमी को शक्तिवान बना सकती है, वह उपासना जो आदमी को सिद्धपुरुष बना सकती है, वह उपासना जो इस भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही जीवनों में आदमी को उठाकर कहीं से कहीं ले जा सकती हैं। उसका मूल उसका प्राण हम आपको सिखाएँ, यही उद्देश्य है इस शिविर का। यह गायत्री का प्राण, साधना का प्राण है। चलिए हमारे साथ-साथ गहराई में डुबकी लगाइए, ताकि आपको गायत्री की बाबत अब तक जो जानकारी है, उसकी अपेक्षा अधिक जानकारी मिलें।

साधना का अर्थ कर्मकाण्ड मात्र पूरा कर लेना नहीं है और न ही गायत्री कोई देवी है। नहीं साहब, वह देवी होती है जो हंस पर सवारी करती है जो फर्र से इस पेड़ पर उस पेड़ पर चली जाती है। आप जानते हैं गायत्री कहाँ रहती है? हाँ! महाराज जी अपने समझाकर तो भेजा है। एक हाथ में पानी का कमण्डलु लेते हैं। बेटे, हाथ में पानी का थरमस लेकर चलती है। पानी का गिलास छोड़ जाएगी तो कैसे काम चलेगा। एक हाथ में किताब लेती है। कौन-सी किताब लेकर चलती है? अखण्ड-ज्योति की किताब लेती है, दूसरी किताब नहीं लेती है। नावेल पढ़ने के लिए नहीं है। रास्ते में किताब नहीं पढ़ती तो बेचारी को कैसे याद होगा- और सवारी? कौन-सी सवारी करती है। रिक्शा, साइकिल की जरूरत नहीं है, मोटर की जरूरत नहीं है। गायत्री जाती हैं तो हंस पर सवार होकर जाती हैं। मोटर-पैट्रोल खर्च करा लेती है, बहुत सारा खर्चा करा लेती है। गायत्री माता ने मोटर दूसरी तरह की खोज ली है। वह हवाई जहाज का भी काम कर सकती है और जमीन पर भी चल सकती है। किसकी सवारी है? वह हंस की है, वह सिर्फ हंस पर सवारी करती है। पैट्रोल भी नहीं खाता है। ड्राइवर भी नहीं हैं। लगाम भी नहीं है। गायत्री माता कह देती है भाई चल हरिद्वार की तरफ, तो चल देता है। गायत्री बड़ी विचित्र है, छोटी-सी गायत्री है, ऐसी गायत्री है जैसे तुम बच्चों की होनी चाहिए। रानी गायत्री की पूजा और भजन कैसा है? वैसा ही जैसा कि बाराती गाते हैं फूल चढ़ा देते हैं, चावल चढ़ा देते हैं, अक्षत चढ़ा देते हैं। गायत्री मंत्र बोल लेते हैं। यह क्यों है? बेटे! बालकों की गायत्री है, बालकों की साधना है। अब हम आपको जवानों की, फिलॉसफरों की, दार्शनिकों की विचारशीलों की गायत्री समझाना चाहेंगे अब आपको साहसियों की विचारशीलों के, तपस्वियों की साधना सिखाना चाहूँगा। मैं समझता हूँ कि अब आप बच्चे नहीं रहे, वरन् जवान हो गए हैं, इसलिए जवानों से जवानों की सी बात कहनी चाहिए। बच्चों को बच्चों की सी बात कहनी चाहिए। जवानों को गायत्री की शिक्षा क्या है? भाइयों! मैं क्या कह सकता हूँ आपसे, गायत्री की कितनी शिक्षाएँ हैं। आज मैं पहले यही बताना चाहूँगा आपको कि गायत्री की शिक्षाएँ और प्रेरणाएँ क्या है। फिर गायत्री उपासना और साधना के रहस्य समझाऊँगा। यह सारे के सारे रहस्य इस शिविर में बताते हुए चला जाऊंगा, जिसके लिए मैंने आपको बुलाया है।

गायत्री का पौराणिक पक्ष क्या है

अब मैं आपको चलिए यह समझाने की कोशिश करता हूँ कि गायत्री क्या है? तीन पौराणिक कथाएँ हमारे सामने हैं। इनके माध्यम से हम आपको यह आसानी से समझा सकते हैं कि गायत्री माता क्या हो सकती है पौराणिक कबूतर, पौराणिक खरगोश के माध्यम से हम आपको बताएँगे कि गायत्री माता क्या है? एक पौराणिक कथा आती है राजा विश्वामित्र की। वे गुरु वशिष्ठ के आश्रम में गये, गुरु वशिष्ठ का आश्रम जंगल में था। छोटी-सी जरा-सी झोंपड़ी थी। अकेले में रहते थे, बिना किसी समान के। कमण्डलु में खाना खा लेते थे और अपने वस्त्रों को बिछाकर गुजारा कर लेते थे। बड़े संतोषी ब्राह्मण थे। गुरु वशिष्ठ के आश्रम में सम्पन्न राजा विश्वामित्र गए। वे जंगल में किसी काम से सेना समेत गये थे। उन्होंने आवश्यक समझा कि गुरु वशिष्ठ के पास चलें और प्रणाम कर आयें। राजा विश्वामित्र प्रणाम करने गए। गुरु वशिष्ठ ने पूछा- दुपहरी में आप लोग यहाँ कैसे आयें? महाराज जी! हम लोग रास्ता भूल गये हैं और सेना के साथ यहाँ पर आ पहुँचे। आप लोगों ने खाना भी नहीं खाया होगा। कहाँ पर खाना खाते, महाराज जी! यहाँ पर पात्र भी नहीं है, भोजन का सामान भी नहीं है। भोजन का समान पीछे रह गया है यहाँ पर भटक गए हैं, पानी मिल जाए वही बहुत है। वशिष्ठ ने कहा- हमारे यहाँ दरवाजे पर आप आए हैं, अतः आप हमारे अतिथि हुए, इसलिए अतिथि का सत्कार करना, स्वागत करना हमारा कर्त्तव्य है। आप भूखे भी हैं और प्यासे भी हैं। हम चाहते हैं कि आपके भोजन का प्रबन्ध करें। अरे, महाराज ही अकेले से क्या फायदा, इतनी बड़ी सेना भी साथ है, इसके भोजन का आप प्रबन्ध जब तक नहीं करेंगे तब तक बात कैसे बनेगी? अच्छा तो चलिए अभी हम करते है। उनके पास एक नन्दिनी नाम की गाय थी। कामधेनु की बेटी नन्दिनी। उन्होंने कहा-नन्दिनी हजारों की संख्या में आए हुए हैं मेहमान। उनके भोजन का प्रबन्ध होना चाहिए। नन्दिनी ने सिर हिला दिया, ठीक है अभी होता है। राजा से कहा गया कि आइए आप सबको भोजन करा ले जाइए। सब लोग बैठ गए।

पौराणिक खण्ड की यह कहानी अभी खत्म नहीं हुई। मित्रों, कहानी में एक और बात शामिल होती है। जब सब लोगों ने भोजन कर लिया तब विश्वामित्र ने पूछा-महाराज जी ये सब आपने कहाँ से पाया? सामान तो था नहीं, आपके पास, इतना दही, भोग, इनता चमत्कार, इतनी सिद्धि, इतना धन इतनी विशेषताएँ कहाँ से पा लीं। उन्होंने इशारा किया नन्दिनी की ओर। ये नन्दिनी है। नन्दिनी के पास सब कुछ है। यह कामधेनु है। इसकी छाया में बैठकर हर चीज प्राप्त हो जाती है सभी कामनाओं को पूरा करती है, इसलिए इसके कामधेनु कहा गया है। विश्वामित्र ने कामधेनु को छीनना, हड़पना चाहा और बोले-यदि कामधेनु हमें मिल जाए, तो कितना अच्छा हो। गुरु वशिष्ठ बहुत नाराज होते हैं, पौराणिक कथा के मुताबिक। उन्होंने कहा-हमारी गाय को आप नहीं ले जा सकते। राजा विश्वामित्र ने कहा-हम आपकी गाय को अवश्य ले जायेंगे। अच्छा तो आप लेकर दिखाइये। विश्वामित्र गाय को जबरदस्ती लेने के लिए चले। तो गुरु वशिष्ठ ने नन्दिनी को आज्ञा दी-इन सबकी अक्ल ठिकाने कर दो। नन्दिनी ने अपनी सींगों से मार-मारकर सारी सेना को परास्त कर दिया। सेना भग खड़ी हुई और राजा भी भाग खड़ा हुआ। विश्वामित्र ने इस धारणा पर विचार किया कि क्या गाय इतना धन और वैभव इकट्ठा कर सकती है? एक गाय इतना युद्ध कर सकती है? यह गाय बड़ी जबरदस्त है। इस गाय को प्राप्त करने के लिए हमको प्रयत्न करना चाहिए। गुरु वशिष्ठ ने जिस तरह प्रयत्न किया तो, बस उसी तरह विश्वामित्र अपना राजपाट घर वालों को दे करके जंगल में आ गए और उसी नन्दिनी की कृपा पाने के लिए प्रयत्न करने लगे। विश्वामित्र ने कहा-’धिक बलम् छत्रिय बलम् बह्मम तेजो बलम् बलम्’। भौतिक बल, साँसारिक बल जिसमें धन भी आता है, रूप भी आता है, बुद्धि बल भी आता है, ये सारे के सारे है, जिनको हम भौतिक बल कहते हैं। धिक अर्थात् छोटे हैं- नगण्य-नाचीज हैं। ब्रह्म तेजो बलम् बलम् अगर कोई श्रेष्ठ बल है, तो वह है ब्रह्म बल, आत्मा का बल। इसे ही प्राप्त करना चाहिए।

सब गाथा खत्म हो गयी। पौराणिक कहानी खत्म हो गई। क्या अर्थ निकला? प्रायः पौराणिक कहानियों को लो इतिहास मान लेते है। गलती तो गलती है, मैं क्या कह सकता हूँ। वास्तव में यह अलंकार हैं। अलंकार की दृष्टि से ऋषियों ने बड़े महत्वपूर्ण विषयों को समझाने की कोशिश की हैं। सारे आर्ष ग्रंथों, अठारह पुराणों के मैंने भाष्य किए है। पुराणों को लोग इतिहास मान बैठते हैं और फिर यह कहते हैं कि पुराणों में गप्पें लिखी हैं। लेकिन बेटे पंचतन्त्र की किताबों में भी गप्पें लिख रही हैं, जैसे कौवे से लोमड़ी ने कहा-अरे भाई साहब! गाना गा दीजिए अच्छा तो मैं गाना गाता हूँ, रोटी का टुकड़ा मुँह में से गिरा और लोमड़ी लेकर के भाग गई। क्यों साहब, लोमड़ी की बातचीत कौवा सुन सकता है? नहीं! तो क्या कौवे की बातचीत लोमड़ी समझ सकती है? नहीं बेटे! ये झूठ नहीं है। बालकों को आकर्षक ढंग से पहेली के ढंग से, प्रिय बुजुर्गों के ढंग से उनको महत्वपूर्ण बात समझा देती है तो क्या हर्ज है। उसमें मनोरंजन भी रहता है, आकर्षण भी रहता है। इसी तरह का शिक्षण है पुराणों में। कोई क्या समझे-पुराणों में विचित्र कहानियाँ हैं। कहानियों के माध्यम से लोगों को शिक्षण देने की कोशिश की है। बताने की कोशिश की है, बड़े महत्वपूर्ण विषयों को, जो साधारणतः समझ में नहीं आती हैं, कठिन विषयों, जटिल विषयों, फिलॉसफी को समझाने के लिए कथानकों का माध्यम लिया गया है। यह कथा जो मैं अभी-अभी आपको सुना चुका हूँ इसका क्या अर्थ होता है। आत्मबल, आत्मशक्ति संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। इसे प्राप्त करने के लिए गायत्री का, ऋतंभरा-प्रज्ञा का अवलम्बन लेना होता है

गायत्री है ऋतम्भरा प्रज्ञा-

गायत्री का ही दूसरा नाम ऋतम्भरा-प्रज्ञा है। ऋतम्भरा-प्रज्ञा, इसका नाम गायत्री है। कितनी शिक्षाएँ इसमें हैं? नन्दिनी की तरह यह भी काम कर सकती है। एक काम यह कर सकती है- जो पाप, ताप, शोक और संताप, कष्ट और अभाव जो हमारे जीवन में हैं, उन्हें यह उसी तरह सींगों से मारकर भगा सकती है जैसे कि विश्वामित्र और उनकी सेना को जो गुरु वशिष्ठ को हैरान करने और नन्दिनी को हैरान करने के लिए आए थे, तो नन्दिनी ने उसको मार गिराया और सफाया कर दिया था। इसी तरीके से अपने जीवन की मौलिक कठिनाइयाँ और बाधाएँ जो हमको रास्ते पर चलने में रुकावट डालती है, उन सारी-की सारी कठिनाइयों को हमारी भ्रामक मनः स्थितियों को भ्रामक यश-लिप्सा को ऋतंभरा-प्रज्ञा मार कर भगा सकती है। इस कहानी का यही अर्थ है कि यह मनुष्य की भौतिक और आत्मिक सफलताओं का द्वार खोल सकती है। हालाँकि आध्यात्मिक शक्ति, आन्तरिक शक्ति हमारे पास है- अक्ल की शक्ति का चमत्कार तो आपने देखा ही है। अक्ल आपके पास हो तो अच्छी नौकरी मिलेगी। कहाँ तक पढ़े हैं? मैट्रिक पास हैं। अच्छा साहब, दो सौ रुपया तनख्वाह मिलेगी। आप क्या पास हैं? बी.ए.पास हैं तो आपको साढ़े तीन सौ रुपये तनख्वाह मिलेगी। एम.ए. पास हैं तो पाँच सौ रुपये से आपकी स्टार्ट करेंगे। पी-एच.डी. हैं तो जिस तरह से आपकी जानकारी होगी उसी तरह से आपको पैसा मिलता जाएगा। यदि आप कमजोर हैं तो एक रुपया रोज मिलेगा। पहलवान हैं और वजन ढोने वाले हैं तो चले जाइए ढकेल पर और पल्लेदारी कीजिए, बाईस रुपया रोज देंगे। अक्ल की ताकत देखी है आपने? हाँ देखी है। धन की ताकत देखी है? बैंक में रुपया जमा कर दीजिए, ब्याज पर ब्याज मिलता चला जाएगा। यह तो हुई धन की ताकत। अब आप आध्यात्मिकता की ताकत को देखेंगे, जो दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है, इसके मुकाबले दुनिया के परदे पर कोई नहीं है, क्योंकि ये चेतना की ताकत है। जड़ की ताकत सीमित है। जड़ क्या है? जड़ हमारा शरीर है। जड़ क्या है? जड़ हमारा पैसा है। जड़ क्या है? जड़ हमारा व्यापार है। दिमाग भी हमारा जड़ पदार्थ का बना है, जिसे ज्ञानेन्द्रिय कहा जाता है, ये भी जड़ है। पदार्थ की सीमा है। पैसे की शक्ति, बुद्धि की शक्ति सब शक्तियाँ जड़ है। जड़ के द्वारा जो फायदा मिल सकता है, चेतना के द्वारा उससे हजारों गुना फायदा हो सकता है। लाखों गुना ज्यादा फायदा हो सकता है। चेतना की शक्ति अगर हमारे पास हो जिस हम ब्रह्मबल कहते हैं और आत्मबल कहते हैं तो फिर उसका कहना ही क्या?

मित्रो! मैं कहानी का अर्थ समझाना चाहूँगा आपको, ताकि गायत्री की परिभाषा समझ में आ जाए कि गायत्री क्या हो सकती है एवं क्यों उसका दूसरा नाम ऋतम्भरा-प्रज्ञा है। एक कहानी सावित्री और सत्यवान की है। एक लड़की बड़ी रूपवती, बड़ी कुलवती, बड़ी सुन्दर, ऐसी सुन्दर जिसकी ख्याति संसार भर में फैल गयी। सभी राजकुमार उसे देखकर यही कहते कि यह तो बड़ी सुन्दर राजकुमारी है। यदि यह हमको मिल जाती तो अच्छा होता। लड़की के पिता के सामने सभी राजकुमार हाथ पसारने लगे और कहने लगे कि इसे हमको दीजिए। लड़की ने अपने पिता से कहा कि हमको अपनी मर्जी का दूल्हा चुनने दीजिए। अच्छा तो आप चुन ले ठीक है, रथ पर सवार होकर सेना को साथ लेकर सावित्री रवाना हुई। रवाना होते-होते वह सारे देशों के राजकुमारों से मिली और पता लगाया कि हमारे लिए कोई दूल्हा है क्या? कोई भी दूल्हा उसको पसन्द नहीं आया। जंगल में एक दिन निकल कर जा रही थी सावित्री रथ समेत। उसने एक लड़के को देखा। वह एक लकड़हारा था। लकड़हारा बड़ा तेजस्वी मालूम पड़ता था और चेहरे पर उसके यशस्विता भी टपक रहा था। सावित्री ने उसको रोका और पूछा-लकड़हारे, तुम कौन हो और कैसे हो? उसने कहा लकड़हारा तो इस समय हूँ, पर पहले लकड़हारा नहीं था। हमारे माता-पिता अन्धे हो गए हैं। यहाँ जंगल में जाकर तप करते हैं, उन्हीं की रक्षा करने के लिए हमने यह आवश्यक समझा कि उनको भोजन कराने से लेकर सेवा करने तक के लिए हमको कुछ काम करना चाहिए और जिम्मेदारी को निभाना चाहिए। इस जंगल में और तो कोई पेशा है नहीं, लकड़ी काटकर ले जाते हैं और गाँव में बेच देते हैं, पैसे लाते हैं और उनका सामान खरीद कर लाते हैं। माता-पिता को रोटी खिलाते हैं, सेवा करते हैं। आपने अपने भविष्य के बारे में क्या सोचा है? भविष्य के बारे में क्या शादी नहीं करना चाहते। अभी हमारे माता-पिता का कर्ज हमारे ऊपर रखा हुआ है, अभी हम शादी कैसे कर सकते हैं। सावित्री ने कहा- तुम कुछ और नहीं कर सकते क्या? पैसा नहीं कमा सकते? पैसे कमा करके हम क्या करेंगे? कर्तव्यों का वजन हमारे ऊपर रखा है। पहले कर्त्तव्यों का वजन तो कम कर लें, तब सम्पत्तिवान बनने की बात सोची जाएगी या शादी करने की बात देखी जाएगी।

अपनी सुविधा की बात बहुत पीछे की है। पहले तो वह करेंगे जो हमारे ऊपर कर्ज के रूप में विद्यमान है, इसीलिए माता-पिता, जिन्होंने हमारे शरीर का पालन किया, पहला काम उनकी सेवा का करेंगे, इसके बाद और बातों को देखेंगे। पढ़ना होगा तो पीछे पढेंगे। नौकरी करनी होगी तो पीछे करेंगे या शादी करनी होगी तो पीछे करेंगे अभी तो हमको कर्ज चुकाना है, माता-पिता की सेवा करनी है।

लकड़हारे की बात सुनकर राजकुमारी रुक गई। अब वह विचार करने लगी कि बाहर से ये लकड़हारा है, लेकिन भीतर से कितना शानदार है। कितना शानदार इसका कलेजा, कितना शानदार इसका दिल, कितना शानदार इसकी जीवात्मा। इसने अपने सुख और भौतिक सुविधाओं को लात मार दी और अपने कर्त्तव्यों को प्राथमिकता दी। यह बड़ा जबरदस्त है। लकड़हारा है तो क्या हुआ। लकड़हारे से सावित्री ने कहा कि हम तो दूल्हा तलाश करने चले थे, अब हम आपसे ही ब्याह करेंगे। अब हम आपको ही माला पहनाना चाहते हैं। वह हँसा, उसने कहा-हमको अपने पेट का तो गुजारा करना ही मुश्किल पड़ता है, फिर तुम्हारा गुजारा कैसे कर सकते हैं? उसने कहा- हम पेट पालने के लिए, आपकी सहायता माँगने के लिए नहीं आए? आपकी सहायता करने के लिए आए हैं। हम बहुत बड़े मालदार हैं। हमारा बाप बहुत बड़ा मालदार है, हमारे पास बहुत सारा पैसा है। हम आपकी सेवा कर सकते हैं? यह सुनकर राजकुमार बोला-नारद जी बता गए थे कि एक साल बाद हमारी मृत्यु होने वाली है। सावित्री ने कहा कि हमारे पास इतनी विशेषता है कि हम आपकी जान बचा सकते हैं। हम आपको सम्पन्न बना सकते हैं? हम आपको यशस्वी बना सकते हैं? हम आपको सब कुछ उपलब्ध करा सकते हैं। हम बड़े मालदार हैं- और सावित्री ने गले में माला पहना दी। क्या आपने सावित्री-सत्यवान की कहानी पढ़ी है? पढ़ी होगी तो जानते होंगे कि फिर क्या हुआ था? राजकुमारी से विवाह करने के बाद सत्यवान के जीवन में एक वक्त ऐसा भी आया था जब यमराज आए थे और सत्यवान का प्राण निकाल कर ले गए थे। तब सावित्री ने कहा था- नहीं यमराज बड़े नहीं हो सकते हैं। हम बड़े हैं आखिर सावित्री ने यमराज से अपने पति का प्राण छीन लिया था। आपने सुना है या नहीं सुना है। हमें नहीं मालूम, पर यह एक कहानी है जो गायत्री का प्राण, गायत्री की जीवात्मा, गायत्री की वास्तविकता और गायत्री की फिलॉसफी हैं। आप इस फिलॉसफी की गहराई में जाइए। समुद्र के किनारे द्वीपों में घोंघे पड़े होते हैं। गहरी डुबकी मारिए और मोती ढूँढ़कर लाए। नहीं साहब, मोती किनारे पर बिखरें होते हैं। हम तो किनारे पर डुबकी मारेंगे और मोती मिल जाएगा। ठीक इसी तरह किनारे पर बैठकर गायत्री का भजन करेंगे तो उससे क्या मिलेगा? यह तो किनारे बैठकर किनारे का भजन है। अरे डुबकी मार करके गायत्री के भजन की वास्तविक स्थिति ढूँढ़कर के ला। जहाँ से लोग शक्तिवान बन जाते हैं, सिद्धपुरुष बन जाते हैं, चमत्कारी बन जाते हैं- वहाँ तक डुबकी मार। वहाँ तक डुबकी नहीं मारेगा, किनारे तक बैठा रहेगा और नजर घुमाता रहेगा तो बेटे, सीप मिल सकती हैं, घोंघे मिल सकते हैं, समुद्र के किनारे। समुद्र दिखाई दे सकता है। झाग मिल सकता है, पर कीमती चीज नहीं मिल सकती। यह कहानी यही कहती है।

सावित्री किसे कहते हैं?

सावित्री बेटे गायत्री का ही दूसरा नाम है और सत्यवान? सत्यवान उसे कहते हैं, जिस साधक ने अपना जीवन समय के लिए सिद्धान्तों के लिए अर्थात् आदर्शों के लिए समर्पित किया है, उस आदमी का नाम है सत्यवान। सावित्री-गायत्री के लिए यह आवश्यक है कि उसका भक्त सत्यवान हो अर्थात् सिद्धान्तवादी हो आदर्शवादी हो। उत्कृष्ट चिन्तन में लगा हो। कर्त्तव्यों में लगा हुआ हो। इस तरह का अगर कोई व्यक्ति है, तो उसे गायत्री का साधक कह सकते हैं। साहब, हम भी साधक हैं, दिन भर चोरी–चकारी करते हैं, सारी जिन्दगी इसी में व्यतीत करते हैं और सबेरे एक घण्टा वक्त मिल जाता है तो माला लेकर बैठ जाते हैं। बेटे, यह साधना नहीं, उसका मखौल है। इसी तरह कितने लोग पूछते रहते हैं कि चंदन की माला अच्छी होती है कि रुद्राक्ष की। अरे बेटे चंदन से क्या मतलब है या रुद्राक्ष से क्या मतलब है। अपने हृदय की बात कहते हैं, अन्तरात्मा की बात कहते हैं। चन्दन में क्या रखा है और रुद्राक्ष में क्या रखा है। बेटे, तू समझता ही नहीं, अभी साधना के लिए पकड़ना पड़ेगा चेतना का स्तर, जहाँ शक्तियाँ निवास करती हैं, जहाँ भगवान निवास करते हैं, जहाँ आस्थाएँ निवास करती हैं। उस स्थान का नाम, उस स्तर कर नाम वह भूमि है जिसे दिव्यलोक कहते हैं, जहाँ गायत्री माँ निवास करती हैं, चेतना निवास करती है, जिसको हमने ऋतंभरा-प्रज्ञा कहा है। चलिए हमें ऋतंभरा-प्रज्ञा ही कहने दीजिए ऋतम्भरा-प्रज्ञा क्या है? वह प्रज्ञा, वह धारणा, वह निष्ठा- जो आदमी को ऊँचा उठा देती है, ऊँचा उछाल लेती है। जिसकी प्रेरणा से आदमी ऊँची बातों पर विचार करता है और नीची बातों से ऊँचा उठता चला जाता हैं, उसे ऋतंभरा-प्रज्ञा कहते हैं। प्रज्ञावान के सामने आदर्श रहते हैं, ऊँचाई रहती है। छोटी-छोटी चीजों को जिनमें कीड़े-मकोड़े लगे हरते हैं, कीड़े-मकोड़े समझता रहता है।

चलिए मनुष्य कह देता हूँ मनुष्यों की शक्ल होते हुए भी आप कीड़े-मकोड़े हो सकते हैं। हम कीड़े-मकोड़े उन्हें कहते है, जिनके उद्देश्य दो होते हैं। एक तो पेट पालना और दूसरा कामवासना को पूरा करना। जानवर सिर्फ दो काम के अलावा तीसरा कोई विचार नहीं करते। पेट की भूख उनकी जब जबरदस्ती धक्का मरती है, तो खाना तलाश करने के लिए चल देते हैं। घास खाने के लिए चल देते हैं। पेट भरने के लिए चल देते हैं। शिकार करने कि लिए चल देते हैं। पेंट की पुकार पेट को आवश्यकता को पूरा करने के लिए जो आदमी काम करता रहता है उसका नाम है कीड़ा उसका नाम मकोड़ा उसका नाम है पशु-पक्षी। उद्देश्य केवल पेट भरना है, पैसे इकट्ठा करना हैं। पैसा और पेट भरना एक ही बात है। छोटे कीड़े पेट भरकर चुप हो जाते है। शहद की मक्खी समझदार है, इसलिए अपने छत्ते में जमा कर लेती है। चींटी जरा-सी समझदार है इसलिए अपने बिल में जमाकर लेती है आदमी जरा कुछ ज्यादा समझदार है, इसलिए बैंक में जमा कर लेता है, जमीन में गाड़ लेता है। फर्क कुछ नहीं है। वह आदमी कीड़ा-मकोड़ा हैं, पशु और पक्षी है। उसका भी लक्ष्य केवल पेट पालना और औलाद पैदा करना है। बस एक सीमा में वह रहना पसंद करता है।

मित्रो! कीड़ा-मकोड़ा वह जिसे कुछ बात ध्यान में नहीं आती, बस पेट भरने जैसा एक फितूर आदमी के दिमाग में हावी होता है। दूसरों पर भी हावी होता है, कीड़े-मकोड़ो परा भी। कीड़े-मकोड़ो में मादा पर हावी होता है, पीछे नर उसका हिमायत करता रहता है, उसकी आवश्यकता पूरी करता है। कीड़े-मकोड़ो में नर ने कभी आज तक किसी मादा को नहीं छेड़ा। छेड़ा होगा तो मादा ने। उसी ने हुकुम दिया होगा। मादा ने इच्छा प्रकट की होगी तो नर ने उसकी सेवा कर दी होगी, बस लेकिन सृष्टि का ये नियम है, कभी कोई नर- कभी कोई जानवर चाहे जितने भी जाति-प्रजाति के क्यों न हों सभी में यही नियम लागू होता हैं। बकरियों के झुण्ड में चले जाइये। एक बकरे को देखिए। बकरा चुपचाप कान लटकाये चल रहा होगा। बकरियाँ सौ होगी पर क्या मजाल कि बकरा किसी को आँख उठाकर देख ले, किसी की तरफ किसी को तंग कर दे। वह बकरी को कभी छेड़ेगा नहीं। बकरी का समय जब आ जाएगा और वह इशारा करेगी तो बकरा सेवा भी करेगा लेकिन मनुष्य? मनुष्य की वह मर्यादाएँ भी चली गई। जानवर दो काम करते हैं- तीसरा कोई काम नहीं। जब उन पर खुराफात सवार होती है, काम-वासना के सम्बन्ध में दिमागी खुराफात पैदा होती है तो वे कामसेवन कर लेते हैं। बच्चे पैदा कर लेते है। बस यही दो काम हैं, उनको तीसरा कोई काम नहीं है। आज का इनसान भी पशु है, कीड़ा-मकोड़ा है, उसके सामने भी जीवन का कोई लक्ष्य नहीं, केवल दो ही लक्ष्य हैं। सारा समय, सारा श्रम, सारी अक्ल, सारी सत्ता उसी काम में खर्च हो जाती है। किसमें, पेट भरने में और बच्चे पैदा करने में और शादी-ब्याह करने में। काम-वासना के ख्वाब देखने और सपने देखने में। बेटे इनका नाम पशु और कीड़े ही हो सकता है, आदमी नहीं हो सकता।

नासमझी पर विजय प्राप्त कराने वाली मनः स्थिति है गायत्री-

बेटे! ऋतंभरा-प्रज्ञा किसको कहते हैं? ऋतंभरा-प्रज्ञा उसे कहते हैं, जो आदमी को उछाल देती है, ऊपर की तरफ। ऊँचे पर जाने वाली चीजों को कभी आपने देखा होगा। हवाई जहाज में हमने बहुत सारे सफर किए हैं। हवाई-जहाज के सफर में हमने देखा तो नीचे जमीन की चीजें बहुत छोटी-छोटी जान पड़ीं। हमने हवाई-जहाज में से चलती हुई रेलगाड़ियां देखी। रेंगते हुए मनुष्यों को देखा, छोटे-छोटे मेढ़कों के तरीके से जानवरों को देखा, जरा-जरा से फुदकने वाले जानवरों के तरीके से वे ऊपर से नन्हें-नन्हें दिखाई पड़ते थे। खेत देखे, गन्ने के खेत ऐसे मालूम पड़ते थे जैसे जरा-जरा से घास-फूस हों और मित्रो, हमने तालाब देखें, झीलें देखी, नदियाँ देखीं, एक लकीर की तरीके से पानी की बहती हुई जरा-जरा सी झीलें। आदमी जब उछल जाता है ऊपर की तरफ, तो उसमें दो बातें हो जाती है। एक तो यह कि जितना दायरा दिखाई पड़ता था, पहले मान लीजिए यहाँ से इतनी लम्बी-चौड़ी जगह दिखाई पड़ती है, अब हम अगर किसी टीले पर खड़े हो जाएँ तो हमें टीले पर से चार मील दायरा दिखाई पड़ेगा। हवाई जहाज पर जब आप चले जाएँगे तो आपको ढाई सौ मील की लम्बाई-चौड़ाई का दायरा दिखाई पड़ेगा। ऊँचे उठे हुए व्यक्ति का दायरा बड़ा हो जाता है और विचार करने का देखने का और सोचने का स्तर ऊँचा उठ जाता है, तब जबकि ऋतंभरा-प्रज्ञा जग जाती है। ऐसे व्यक्ति के लिए वे सभी वस्तुएँ, चीजें बिल्कुल नाचीज हैं, जिनकी जीवन में कुछ खास अहमियत नहीं है। आदमी की दैनिक जीवन की जरूरतें बिल्कुल थोड़ी-सी हैं, नगण्य है। पेट भरने को जरा-सा मुट्ठी भर अनाज चाहिए, तन ढँकने को मुट्ठी भर कपड़ा चाहिए और रहने को जरा-सी जगह चाहिए। आदमी की जरूरतें इतनी कम हैं कि छः फुट लम्बे आदमी को पेट आसानी से भरा जा सकता है और आदमी खुशी की जिन्दगी जी सकता है, पर आदमी जिस बेअक्ली की वजह से जिस बेवकूफी की वजह से सारी जिन्दगी दुखों में व्यतीत कर देता है, कष्टों में व्यतीत कर देता है, चिन्ताओं में व्यतीत कर देता है, वह बेटे, नासमझी हैं। इस नासमझी पर विजय प्राप्त करने वाली जो हमारी मनःस्थिति है, उसका नाम है ऋतंभरा-प्रज्ञा। जीवन का लक्ष्य क्या हो सकता है? जीवन में शान्ति कहाँ से आ सकती है? जीवन की दबी हुई सामर्थ्यों को हम कैसे विकसित कर सकते है? ये हमारी मूर्च्छित सामर्थ्य है? शोचनीय सामर्थ्य है, गयी- गुजरी सामर्थ्य है, लेकिन इससे अत्यधिक महत्वपूर्ण जो सामर्थ्य हैं, उनको विकसित करने के लिए क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए, ये समझ और ये अक्ल जहाँ से आती है उसका नाम ऋतंभरा-प्रज्ञ


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