शुभ मनोभावों के सत्परिणाम

January 1998

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सूर्य का प्रचण्ड रूप संध्या होते-होते शांत हो गया। आकाश में छाई लालिमा देख पक्षी उड़कर अपने-अपने घोंसलों में आ गए। अंधकार का साम्राज्य आगे बढ़ा, पर चन्द्रमा की किरणें उसे रोकने के लिए प्राण-पण से प्रयत्न करने लगीं। अवन्तिका के राजाधिराज और भगवान महाकलेश्वर के एकनिष्ठ भक्त अपनी प्रजा की यथार्थ स्थिति जानने के लिए सदा की भाँति आज भी वेश बदलकर नगर की परिक्रमा करने चल पड़े। यह उनका नित्य का नियम था। प्रजा को सुखी बनाना नागरिक जीवन को अपराध व भ्रष्टाचार से मुक्त करना वे अपना अनिवार्य कर्तव्य समझते थे। तभी वे रोज रात्रि के समय वेश परिवर्तित कर महलों से निकल पड़ते और नगर की हर गली, हर सड़क, हर चौराहे एवं बाजार में घूमते रहते।

आज घूमते-घूमते वे खेतों में पहुँच गए। चाँदनी रात थी। रस से भरे गन्नों की खेती देखकर उनका मन रस पीने के लिए उमंग उठा। उन्होंने खेत के रखवाले किसान से कहा-“अरे भाई! मैं। विदेशी हूँ चलते-चलते थक गया हूँ। प्यास से गला सूखा जा रहा है, थोड़ा-सा पानी पिला दो।

उनकी बात सुनकर किसान ने कहा-“परदेशी! लगता है तू उज्जयिनी राज्य में पहली बार आए हो। तुम अवन्ती नरेश महाराज वीर विक्रमादित्य के नगर की रीति-नीति, परम्पराओं एवं व्यवहार से परिचित नहीं हो। शायद इसीलिए ऐसा कह रहे हो। तुम्हें मालूम होना चाहिए कि यहाँ पानी माँगने वाले को दूध-दही पिलाया जाता है। खैर तुम तो आज हमारे अतिथि हो और यहाँ के हर निवासी को अतिथि देवो भवः” के संस्कार मिले हैं। अभ्यागत का स्वागत करना हमारा कर्तव्य है, धर्म हैं इसलिए मैं तुम्हें पानी के स्थान पर गन्ने का रस पिलाऊंगा। आइये, महाशय! “

किसान खेत से एक गन्ना तोड़कर ले आया और राजा से बोला-हाथों की अंजलि बनाकर मुँह पर लगाओ। मैं गन्ने के रस को निचोड़ता हूँ। उस एक गन्ने से इतना रस निकाला कि राजा पीते ही तृप्त हो गया। रात्रि-भ्रमण के उपराँत राजा पुनः अपने महलों में लौट आया ओर शय्या पर लेट गया। लेटे-लेटे विचार आया कि गन्ने की बहुत ज्यादा पैदावार है। लेकिन यह किसान मुझे बहुत कम कर देता है। मैं इसका कर बढ़ाऊँगा।

दूसरी रात भी राजा विक्रमादित्य वेश बदल कर निकला। भ्रमण करते हुए वह फिर से उसी गन्ने के खेत में जा पहुँचा। उसने पीने के लिए रस माँगा। कल की भाँति आज भी किसान एक गन्ना ले आया तथा रस निचोड़ा। पर आज अल्पमात्रा में ही रस निकला। राजा ने कहा-“ कोई दूसरा गन्ना लाओ इसमें तो दो चार घूँट ही रस है। किसान भाई! क्या बात है कल तो मैं एक गन्ने से ही तृप्त हो गया था। किसान ने कहा-“ आज तो सभी गन्नों में इतना ही रस निकलेगा। लगता है कि आज राजा की भावनाएँ बदल गयी हैं। राजा ने किसान की बात सुनी अवश्य, लेकिन प्रत्युत्तर में कुछ नहीं कहा। चुपचाप महलों में जाकर सो गया।

प्रातःकाल जब उसकी आँख खुली तब भी किसान का कथन उसके मनोमस्तिष्क में स्पन्दित हो रहा था वह सोच रहा था-भला यह कैसे सम्भव है? क्या भावनाएँ इतनी प्रभावी होती हैं। उसने अपने मन सारी बातें महामंत्री बेताल भट्ट को कह सुनायीं। महामंत्री बेताल भट्ट कुशल राजनीतिज्ञ ही नहीं, मनीषी, तत्वज्ञ और उच्चकोटि के साध भी थे उन्होंने कहा “ राजन! शुभाशुभ भावनाओं का असर स्वयं पर ही नहीं, अपितु दूसरों पर भी पड़ता है। जैसा हम दूसरों के विषय में चिन्तन करते हैं, वैसा ही वह हमारे बारे में सोचता हैं। यदि आप भावनाओं के प्रभाव को परखना चाहें तो आज हम दोनों वेश परिवर्तित करके वनभ्रमण करने चलें तथा शुभाशुभ भावों का प्रयोग करके देखें। “

महाराज वीर विक्रम एवं महामात्य बेताल भट्ट वेश परिवर्तित करके वन की ओर बढ़ गये। उसी समय कुछ लकड़हारे लकड़ियों छोटे-छोटे गट्ठर सिर पर रखे सामने से आ रहे थे। उन्हें देखकर राजा ने कहा-महामंत्री जी! इस ढंग से तो ये लकड़हारे पूरे वन का सफाया कर देंगे। आप इन्हें समझाइये, वरना मैं। इन सभी को बन्दीगृह में बन्द करवा दूंगा।

इतने में ही वे सभी लकड़हारे राजा के समीप पहुँच गए मंत्री ने कहा- “ लकड़हारे! क्या तुम्हें ज्ञात है कि आज महाराज विक्रमादित्य मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं। वे बड़े नीतिवान ओर कर्तव्यपरायण राजा थे। उनकी मृत्यु से उज्जयिनी नगरी में शोक छा गया है। “

मंत्री का कथन सुनकर सभी लकड़हारों ने गट्ठा नीचे फेंक दिए और खुशी से नाचने लगे। मानो उन्हें कोई निधि हाथ लग गयी हो। महामंत्री बेताल भट्ट ने उनसे प्रसन्न होने के कारण पूछा। इस पर सभी लकड़हारे एक साथ बोल उठे-“ अहो! आज तो हमारे भाग्य ही चमक उठे हैं। आज हमारी लकड़ियाँ ऊँचे दामों में बिकेंगी। “

उनकी ऐसी नादानी भरी बातें सुनकर दोनों को क्रोध नहीं आया, अपितु वे दोनों आगे बढ़ गये। मार्ग ने मंत्री ने कहा-“ राजन! देख लिया न अशुभ भावों के परिणाम हाथों-हाथ आपने लकड़हारों के बारे में बुरा-सोचा, वे साथ सब भी आपकी मृत्यु की बात सुनकर नाच उठे। “

इतना कहते हुए वे दोनों अभी थोड़ा आगे बढ़ गये थे कि देखा एक वृद्धा ग्वालिन सिर पर दूध-दही का मटका रखे बड़ी मुश्किल से इधर आर रही थी। ग्वालिन को देखकर राजा ने कहा-“ मंत्री जी। यह ग्वालिन कितनी वृद्ध हो गयी है। कमर झुकी हुई, फिर भी लाठी के सहारे चलती हुई दूध-दही बेचकर अपना गुजारा करती है। कितनी दयनीय स्थिति है इसकी। आज से मैं सभी वृद्धा ग्वालिनों को राज्य की तरफ से कुछेक सुविधाओं समेत दुधारू गायें भेंट करूंगा। “ जब वृद्धा ग्वालिन उनके निकट पहुँची, मंत्री बेताल भट्ट बोला-माँ! आज बहुत बुरा हुआ है। राजा विक्रमादित्य की मृत्यु हो गयी है। “

मंत्री का इतना कहना था कि वृद्धा माँ ने ‘ नहीं कहते हुए जोर से सिर हिलाया फलतः मटी नीचे गिर गई, उसे इसका भी भान नहीं रहा। वह करुण विलाप कर कहने लगी-“ हे भगवान! यह क्या हुआ? इतनी बूढ़ी मैं बैठी हूँ और हमारे युवा उदार हृदय महाराज हमें छोड़कर चले गये। यदि मेरा बस चलता तो मैं उन्हें अपनी उम्र भी दे देती, उन्हें मरने नहीं देती।

राजा ने कहा -” माँ अब ऐसा करने से क्या होगा? जो होना था, वह हो चुका अब चलो हमारे साथ। कुछ समय बाद वे तीनों महल में पहुँचे राजा ने उस वृद्धा का बहुत सत्कार-सम्मान किया तथा भाव से विदा किया।

महाराजा वीर विक्रमादित्य शुभाशुभ भावों की परिणति देख चुके थे। उन्होंने समस्त प्रजा के प्रति अपने शुभ मनोभाव रखने को ठान ली। राज्य की तरफ से सबको सुख-सुविधाओं के साधन उपलब्ध करवाये गए। उनके मन-मस्तिष्क में यही शब्द तरंगें स्पन्दित हो रही थीं-यादृशी यस्य भावना, सिद्धिर्भवति तादृशी।”


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118