विशेष लेख- - इस आपत्ति काल में “अपनों” की ढूँढ़ खोज

January 1995

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छोटे काम थोड़े से व्यक्तियों के थोड़े से परिश्रम से ही संपन्न हो जाते हैं, पर विशाल क्षेत्र में फैले हुए असंख्य लोगों से संबंधित सुविस्तृत और विशालकाय प्रयोजन को संपन्न करने के लिए उसी अनुपात से विशेषज्ञों और बड़े साधनों को जुटाये बिना काम नहीं चलता। स्वेज और पनामा की नहर बनाने में, मिस्र के पिरामिड, चीन की दीवार, और भारत का ताजमहल बनाने में कितनी प्रतिभा, कितनी जनशक्ति और साधन शक्ति नियोजित की गई होगी, इसकी कल्पना करने में किसी भी समझदार को कठिनाई नहीं होनी चाहिए। फिर 600 करोड़ व्यक्तियों का ब्रेनवाशिंग करने के लिए कितनी धुलाई का प्रबंध करना पड़ेगा, यह आकलन भले ही कितना ही सुविस्तृत क्यों न हो, पर करना तो पड़ेगा ही। साथ ही उससे बड़ी एक और समस्या इस प्रसंग के साथ जुड़ी हुई है कि इस विशालकाय जनसंख्या की क्रिया पद्धति में जो रोमाँचकारी अवाँछनीयता घुस पड़ी है, उसका परिशोधन-परिमार्जन किया जाना है।

यह तो सफाई पक्ष की चर्चा हुई। उस गंदगी से खाली किये गये स्थान पर शोभा और सौंदर्य से भरा-पूरा अभिनव वातावरण भी प्रतिष्ठित करना हैं यह दुहरी प्रक्रिया हो गई। टूटे हुए खंडहरों का छितराया हुआ मलबा हटाना कम भारी काम नहीं है। उसे कर लेने भर से भी काम नहीं चलता। उस समतल किये स्थान पर ऐसा भव्य भवन भी खड़ा करना है जिसे आज की कीचड़-मिट्टी वाली बनावट की तुलना में किसी पेरिस जैसे शोभायमान शहर से भी बढ़-चढ़ कर समझा जाना चाहिए। सभी जानते हैं कि धरती पर गंगावतरण का समय कितना कठिन था और उसके लिए किन उच्चकोटि की वरिष्ठता को दाँव पर लगना पड़ा। नवयुग की कल्पना भी इससे बढ़कर है। इसी अपनी ऊबड़-खाबड़ धरती पर नंदन वन समेत समूचे स्वर्गलोक को विनिर्मित किया जाना है और अनगढ़ दिग्भ्राँत, अर्धविक्षिप्त स्तर के सुविस्तृत, जन समुदाय का स्तर देवोपम बनाये जाने की योजना है।

इस प्रयास को लगभग वैसा समझा जाना चाहिए मानों निविड़ निशा को मध्याह्न काल के प्रचंड प्रकाश में बदला जा रहा है। नरक को गलाकर स्वर्ग में ढाला जा रहा है। असाधारण परिवर्तन कहा जाता है। उसमें पिशाच को पशु में, पशु को मनुष्य में और मनुष्य को देव कलेवर में बदला जा रहा है। तपते ग्रीष्म के उपराँत जल-थल एक कर देने वाली वर्षा का आगमन हो रहा है। इस परिवर्तन की योजना तो परमेश्वर ही बना सकता है, पर उसे क्रियान्वित करने में तो मनुष्य कलेवर में रहने वाले उच्चस्तरीय प्रतिभा संपन्नों को ही करना पड़ेगा। पटरी से उतर कर जमीन पर पसर जाने वाले इंजन को सीधा खड़ा करने में बड़े आकार वाली क्रेनें ही काम आती है। दल-दल में फँसे हाथी को बलिष्ठ हाथियों का झुँड ही घसीट कर किनारे तक पहुँचाने में समर्थ होता है। इन दिनों ऐसी ही वरिष्ठ प्रतिभाओं को ऐसी भूमिका निभाने की आवश्यकता पड़ेगी मानों विश्वकर्मा ने नई नगरी रातोंरात बनाकर खड़ी कर दी हो।

अति कठिन है, ऐसे दुर्भिक्षकाल में मरणासन्न कंकालों के समूह में से किन्हीं समर्थ शूरवीरों को ढूँढ़कर निकालना। उन्हें अपवाद कहा जा सकता है, पर होते तो वे भी कहीं न कहीं हैं ही। रहते भी हैं। नरपामरों के समुदाय में से ही कई बार महामानव निकल पड़ते हैं। कोयले की खदान से हीरे भी खोजे निकाले जाते हैं। खारे पानी के उपेक्षित समुद्र में डुबकी लगाकर गोताखोर अपना थैला मणि-मुक्तकों से भर लाते हैं। युगधर्म के अनुरूप अपनी विशिष्टता, प्रतिभा, साहसिकता एवं पुरुषार्थ परायणता के परिचय दे सकने वाले कहीं मिले ही नहीं, इतनी बाँझ अपनी धरती अभी हो नहीं गई उसमें महापुरुष उगाने की उर्वरता कहीं न कहीं किसी न किसी मात्रा में अभी भी विद्यमान है। उसे खोज निकालना, उभारना, शिक्षित करना और कार्यक्षेत्र में उतारना कठिन एवं कष्ट साध्य भले ही हो, पर उसे असंभव तो नहीं ही कहा जा सकता।

आरंभ कहाँ से हो? विशाल दुर्ग के निर्माण का शिलान्यास तो किसी एक थोड़ी जगह में छोटे क्रियाकृत्य के साथ ही शुरू होता है। शुभारंभ के उपराँत विस्तृत क्षेत्र में असंख्य लोगों द्वारा किसी बड़े निर्माण का सिलसिला चल पड़ता है। समयानुसार वह प्रयास पूरा भी होकर रहता है। इन दिनों भी नव सृजन का उपक्रम छोटे रूप में थोड़े लोगों द्वारा आरंभ किया जा रहा है। उसकी अभिवृद्धि गुणन चक्र के अनुसार होती रहेगी। एक बीज से विशालकाय वृक्ष खड़ा हो जाता है। बड़ा होने पर उसमें अनेकानेक फल हर साल आते है। उनमें से प्रत्येक में अनेकों बीज विद्यमान रहते हैं। उनके बोये जाने की जब बारी आती है तो देखते-देखते एक विशालकाय उद्यान बनकर खड़ा हो जाता है। सुविस्तृत वनों की उत्पत्ति और अभिवृद्धि इसी क्रम से हुई है। नवनिर्माण के लिए जितनी और जिस स्तर की प्रतिभाएँ अगले दिनों बड़ी संख्या में अपेक्षित होंगी, उसका श्रीगणेश उपलब्ध साधनों के सहारे ही क्रियान्वित होगा। किसी को इस असमंजस में नहीं पड़ना चाहिए कि कम सामर्थ्य वाले कम लोगों द्वारा किया गया उच्चस्तरीय लक्ष्य के पूर्ति हो सकने की बात कैसे बनेगी? दिति और अदिति का प्रजनन ही इस सृष्टि के देव-दानवों के रूप में असंख्य रूप में विभाजित बहुगुणित होकर रहा है।

इक्कीसवीं सदी से आरंभ होने वाले उज्ज्वल भविष्य को सँजोये हुए नवयुग का आगमन हो रहा है। उसका ढाँचा, खाका, मॉडल बनाने का सुनिश्चित प्रयास युग संधि के आगामी बारह वर्षों में बनकर खड़ा हो जाना है। सन् 1995 से 2006 तक की अवधि इसी तैयारी के लिए है। उसके लिए हिमालयवासी ऋषिसत्ता ने दुर्गम इसी क्षेत्र को सूत्र संचालन का केन्द्र बनाया है। सूर्योदय के लिए पूर्व दिशा निर्धारित भी है। दिव्य प्रवाह को गतिशील बनाने की प्रक्रिया भी इसी दिशा से समय-समय पर संचालित होती रही है।

करने के लिए इतने अधिक काम सामने पड़े हैं जिनका स्वरूप और आकलन समय-समय पर सामने आता रहेगा। पर उनमें से एक तथ्य तो सुनियोजित है कि लोकमानस की वर्तमान विचारधारा को अनिवार्य रूप से मोड़ा मरोड़ा जायगा। इतना बन पड़ने पर जो शक्तियां इन दिनों विकृतियों, भूलभुलैया और अवाँछनीयताओं के परिपोषण में लगी हुई हैं, वे उलटकर सृजन, समर्थन एवं उत्थान अभ्युदय के क्रिया–कलापों में जुटी हुई दृष्टिगोचर हो लगेंगी। नवयुग का यही मूलभूत आधार भी है।

इसके लिए सर्वप्रथम सृजन शिल्पियों की आवश्यकता पड़ेगी। वे कहाँ से आयें? सृजन की योग्यता रखने वालों का पुरुषार्थ नियोजित न हो तो गाड़ी कैसे आगे बढ़े? दृष्टि पसारने पर दीख पड़ता है किसी को लालच की ललक से तनिक भी पीछे हटने का साहस नहीं है और उच्चस्तरीय दैवी प्रयोजन में गलने-खपने को तैयार नहीं है। तथाकथित संत तक स्वर्ग मुक्ति-सिद्धि की मनोकामनाएँ पूरी करने से आगे की बात सोचने को तैयार नहीं। फिर सामान्य कहलाने वाले व्यक्ति यदि विलासिता, संपदा और अहमन्यता जैसी तत्काल आकर्षण भरे प्रलोभन को कौन छोड़े? देश, धर्म, समाज, संस्कृति तो मात्र चर्चा भर के विषय बनकर रह गये हैं। उनके लिए कुछ त्याग और श्रम करने के लिए कुछ करने का उत्साह ही एक प्रकार से बुझ गया है। ऐसी दशा में सृजन शिल्पियों की छोटी बड़ी मंडली कैसे खड़ी की जाय तो अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अन्यान्यों में अनुकरण का उत्साह भर सके?

परिस्थिति की विवेचना और आवश्यकता की गरिमा को समझते हुए यही निष्कर्ष निकलता है कि जिन्हें इस उमंग के उभरने की अनुभूति होती है, वे ही अपने को अग्रिम पंक्ति में खड़ा करें। गुरुगोविंद सिंह ने अपने पाँच पुत्रों को उद्देश्य पूर्ति के लिए समर्पित किया था। विश्वामित्र की यज्ञ रक्षा के लिए दशरथ ने अपने दोनों पुत्र खतरे में डाले थे। कुँती ने अपने पाँचों पुत्र महाभारत की संरचना का महान उद्देश्य पूरा करने के लिए कृष्ण के हाथों सुपुर्द किये थे। दूसरों को उपदेश देने से पूर्व यही अच्छा है कि उस कठिन कार्य को अपनों को साथ लेकर स्वयं ही आरंभ किया जाय। नवयुग निर्माण की योजनाएं कई बार सामने आई हैं, तब भी अपने को और अपनों को अग्रिम पंक्ति में ही खड़ा किया गया है। विश्वामित्र ने स्वयं और अपने प्रधान शिष्य हरिश्चंद्र को, रानियों को लेकर ही उस समय मिलजुल कर कदम बढ़ाया था। बुद्ध अकेले ही घर से निकले थे। बाद में उनने अपने पुत्र राहुल को भी साथ ले लिया था। अशोक उस महाअभियान में सम्मिलित हुए, बाद में अपनी पुत्री संघमित्रा और पुत्र महेन्द्र को भी युगधर्म की पुकार को समझाते हुए समर्पित कर दिया। आदर्शों के निर्वाह में अग्रिम पंक्ति में खड़े होने वालों को कभी इस प्रकार की शिकायत नहीं करनी पड़ी है कि उन्हें साथी या अनुयायी नहीं मिले। सप्तऋषि आगे आये थे तो देवर्षियों, महर्षियों,ब्रह्मर्षियों और ऋषि-मनीषियों की बड़ी सेना कार्य क्षेत्र में उतरती चली आई और वातावरण को सतयुगी बनाने तक एक क्षण के लिए भी चैन से न बैठी। जब चोर, उचक्कों, नशेबाजों, व्यभिचारियों, रिश्वतखोरों को साथी सहयोगी मिल जाते हैं, तो कोई कारण नहीं कि उच्चस्तरीय कार्यों के लिए व्रतशील जन अपनी कथनी और करनी को एक कर लेते हैं तो उनको साथी सहयोगी न मिलने की शिकायत करनी पड़े।

गायत्री परिवार अब एक बड़े परिवार के रूप में जुट गया हैं परिवार का अर्थ यहाँ अंश-वंश से नहीं वरन् विचारों की, भावनाओं की एकता है। वस्तुतः सच्चे मित्र वही होते हैं, उन्हीं को कुटुँबी या परिजन कहा जा सकता है। राम काज के लिए बड़े से बड़े त्याग और साहस प्रस्तुत करने वाले रीछ-वानर ही उन दिनों राम रत्न के रूप में गिने जाते थे। बुद्ध के वे साथी वे ही थे, जिन्होंने परिव्राजकों और परिव्राजिकाओं के रूप में धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए अपने को खपा दिया था। गाँधी के कुटुँबी उन्हें ही कहा जा सकता है जिन्होंने सत्याग्रह आँदोलन के लिए अपने आपको पूरी तरह समर्पित कर दिया। ईसा के कुटुँबी अभी भी पादरियों के रूप में कठिन वन्य प्रदेशों में डेरा डाले पड़े हैं और अपने मार्गदर्शक का विचार क्षेत्र व्यापक बनाने के लिए कष्ट साध्य जीवन जी रहे हैं।

एक समय था जब एक परिपाटी ही चल पड़ी थी कि हर परिवार से एक व्यक्ति युगधर्म के निमित्त समर्पित किया जाय। सिख धर्म के विस्तार हेतु उस समुदाय के लोग घर पीछे एक व्यक्ति समर्पित किया करते थे। जिन दिनों युद्धों का सँजोया जाना अनिवार्य हो गया था, तब हर राजपूत परिवार से एक व्यक्ति सेना में भर्ती कराया जाता था। ब्राह्मण कुटुँबों में से एक को परिव्राजक बनने के लिए प्रेरित किया जाता था। उसकी यदि कोई घरेलू जिम्मेदारी होती थी, तो परिवार के सभी लोग मिलजुल कर पूरा कर दिया करते थे। विश्व युद्धों में आमने-सामने डटे हुए सैनिकों की बड़ी संख्या में आवश्यकता पड़ने की स्थिति में उन देशों के अधिकांश व्यक्ति मोर्चे पर चले गये थे और उनकी स्त्रियों ने, वृद्धों ने किसी प्रकार आश्रित परिवार के निर्वाह की व्यवस्था बनाई थी। अपने समय में भी जब नव-सृजन की आवश्यकता सर्वोपरि बन गई है, तब भावनाशीलों और प्राणवानों में से प्रत्येक को उसी महान परंपरा का निर्वाह करना चाहिए। प्रस्तुत अभूतपूर्व नव सृजन महाक्राँति की गरिमा का मूल्याँकन करते हुए विलासिता और तृष्णा की पूर्ति के लिए कर्तव्य पालन को गौण समझने और मुँह छिपाने की भूल नहीं करना चाहिए। स्मरण रहे, आदर्शों के लिए सुखोपभोग में कटौती करने वाले कभी घाटे में नहीं रहे, वरन् लालच के लिए मरते खपते रहने वालों की तुलना में इतने अधिक गौरवशाली बने हैं, जिनके सौभाग्य पर असंख्यों मनोबल क्षेत्र में अपंग बने हुए लोगों को निरंतर ईर्ष्या करते रहने पड़े।

यह कार्य ऐसा है जिसका श्रीगणेश इन्हीं दिनों किया जाना है। उसे पीछे कभी के लिए नहीं टाला जा सकता। आपत्तिकाल में घर के बर्तन, उपकरण बेचकर भी मरणासन्नों की चिकित्सा करानी पड़ती है। इन दिनों सड़ी कीचड़ में धँसते जाने वाले समुदाय को उबारने के लिए अनेकों भावनाशीलों को कुछ करने के लिए आगे आना पड़ेगा। बाढ़, भूकम्प, दुर्भिक्ष, दुर्घटना आदि के सामयिक विपत्तियों से निपटने के लिए हर सहृदय को अपनी सामर्थ्य के अनुसार कुछ न कुछ योगदान प्रस्तुत करना पड़ता है। ऐसे समय में भी जो समर्थ होते हुए मूक दर्शक बने बैठे रहते हैं, उन्हें भीतर से धिक्कार और बाहर से फटकार सुनते हुए लज्जितों जैसे सिर नवाये किसी कोने में बैठे रहना पड़ता है। सिर उठाकर समुन्नत समुदाय के बीच आँखें मिलाने का साहस करते नहीं बन पड़ता।

हिमालय में सक्रिय सूत्र संचालन केन्द्र ने अपने इर्द-गिर्द नजर पसार कर देखा है कि आड़े वक्त में काम आ सकने वाले ‘अपनों’ की कितनी बड़ी मंडली अपने से जुड़ी हुई है और उसे सरलतापूर्वक किस प्रकार युगधर्म के आह्वान पर कदम बढ़ाने के लिए अधिकारपूर्वक कहा जा सकता है। ये सब वे ही हो सकते हैं जो सदा से श्रद्धा का केन्द्र रही साधु-ब्राह्मण परंपरा को अपनाकर अपरिग्रही और त्याग भरा जीवन जीने का साहस रखते हों।

आदर्शों की दिशा में किन्हीं को अग्रसर करने के लिए सदा ऐसे व्यक्तित्वों की आवश्यकता पड़ती रही है जो अपनी दक्षता, श्रमशीलता ही नहीं व्यक्तिगत जीवन में समाविष्ट त्याग-भावना और प्रामाणिकता का भी बढ़-चढ़कर परिचय दे सकें। प्राचीन काल में ऐसे ही उदार आत्मचेता मार्गदर्शक बन सके थे जो समूचे समाज को ऊँचा उठा सके। अस्तु आज भी ऐसे ही व्यक्तियों की तलाश है जो अपनी सादगी और निस्पृहता का बढ़ा-चढ़ा प्रमाण प्रस्तुत कर सकें। इन्हीं पर युग परिवर्तन का दायित्व अगले दिनों आने वाला है इन्हीं में से महाकाल को कुछ अपेक्षाएँ हैं।


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