कठिनाइयों से डरिये नहीं, जूझिए

January 1995

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कभी-कभी देखा जाता है कि प्रयत्न करने पर भी कुछ लोग वाँछित सफलता नहीं पा पाते और तब दृष्टिकोण में इस भ्रम की संभावना हो उठती है कि प्रयत्न और पुरुषार्थ व्यर्थ है, मनुष्य का भाग्य ही प्रबल होता है किंतु यह भ्रम सर्वथा भ्रम ही है, सत्य का इससे दूर का भी संबंध नहीं होता। ऐसे प्रयत्नशील व्यक्ति की असफलता को लेकर भाग्यवाद में आस्था की स्थापना करने लगना मानसिक निर्बलता का लक्षण है। निश्चय ही उस असफल व्यक्ति के प्रयत्न में कुछ न कुछ खोट अथवा कमी रही होगी जिससे कि उसे उस समय असफलता का मुँह देखना पड़ा। यदि प्रयत्न पूरा और सावधानी के साथ किया जाय तो किसी के आने का अवसर ही शेष नहीं रह जाता। पूरा और सुचारु प्रयत्न सफलता की एक ऐसी गारंटी है जो कभी असिद्ध नहीं हो सकती।

किसी एक प्रयत्न से कोई निश्चित सफलता मिल ही जाये, यह आवश्यक नहीं। सफलता के लिए कभी-कभी प्रयत्नों की परंपरा लगा देनी होती है। परिश्रम एवं पुरुषार्थ के रूप में उसका उतना मूल्य चुका ही देना होता है जितना उसके लिए अनिवार्य है। एक बार असफलता का सामना हो जाने पर किसी को असफल मान लेना उसके साथ अन्याय करने के समान है, संसार में लिंकन जैसे हजारों व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने सैकड़ों बार असफल होकर भी, अंत में अभीष्ट सफलता का वरण कर ही लिया। सच्चा पुरुषार्थी वास्तव में वही है जो बार-बार असफलता को देखकर भी अपने प्रयत्न में शिथिलता न आने दे और हर असफलता के बाद एक नये उत्साह से सफलता के लिए निरंतर उद्योग करता रहे। जो पत्थर एक आघात में नहीं टूटता उसे बार-बार के आघात से तोड़ा ही जा सकता है।

असफलता को अंगीकार करने का अर्थ है निराशा को निमंत्रण देना। निराशा के दुष्परिणामों के विषय में अधिक कुछ कहना व्यर्थ है। निराशा की भावना को यदि नागपाश की भाँति कह दिया जाय तो कुछ अनुचित न होगा। निराशा मनुष्य की क्रियाशीलता पर सर्प की भाँति लिपट कर न केवल उसकी गति ही अवरुद्ध कर देती है प्रत्युत अपने विषैले प्रभाव से उसके जीवन तत्व को भी नष्ट करती रहती है।

यों कठिनाइयाँ देखने में गिरि श्रृंखलाओं के समान विस्तृत तथा दुर्भेद्य लगती हैं पर वास्तव में यह भ्रम मात्र है। कठिनाइयाँ आते ही हम उनकी कठोरता की पूर्व कल्पना करके अपनी शक्तियों का विघटन कर लेते हैं और असफलता के भय से कदम आगे बढ़ाने से डरते हैं। अन्यथा वे स्वयं में कुछ भी तो नहीं।

इस बात को ध्यान में नहीं लाना चाहिए कि असफलता मिलेगी। हमारा कर्तव्य तो यह है कि फलाफल की चिंता किये बिना निरंतर कार्य करते रहें। जो चलता है वह गिरता भी है। यदि आज सफलता की ओर एक चरण बढ़ रहा है तो कल मंजिल तक पहुँच ही जायेंगे। परंतु यदि चलेंगे ही नहीं तो मंजिल पास कैसे आयेगी? इसलिये चाहिए यह कि सतत् चलते रहें-आगे बढ़ते रहें।

मनुष्य कठोर परिस्थितियाँ आने पर प्रायः गिड़गिड़ाने लगते हैं, सोचते हैं कि यह अमुक व्यक्ति हमारी सहायता करेगा। परंतु तथ्य तो यह है कि संसार में ऐसे विरले ही व्यक्ति होते हैं जो दूसरों के सुख-दुख को अपना सुख-दुख मान कर सेवा सहायता करने में तत्पर होते हैं। अधिकांश व्यक्ति तो ऐसे होते हैं जो कठिनाइयों में पड़े लोगों की ओर आँखें उठाकर भी नहीं देखना, चाहते-सहानुभूति की बात तो दूर रही।

अपनी परिस्थितियों के लिए हमें किसी पर दोषारोपण नहीं करना चाहिए क्योंकि स्थितियाँ व्यक्ति की स्वयं की बनायी हुई होती हैं। अन्य कोई व्यक्ति दुख नहीं देता अपितु सुख-दुख तो स्वयं हमारी मनः स्थिति पर निर्भर करते हैं। वह जैसी होगी वैसी ही भावनायें तथा अनुभूतियाँ होंगी। इसी प्रकार यदि इस भय की भावना को हम त्याग देंगे और अपना दृष्टिकोण निर्मल बनायेंगे तो निश्चित ही कठिन अवसर भी हमें विचलित न कर पायेगा।

संसार में न तो कोई शत्रु है न मित्र। हमारा अपना व्यवहार ही शत्रु तथा मित्र बनाने का उत्तरदायी है। जैसा दूसरों से बोलेंगे, व्यवहार करेंगे-उसकी के अनुसार शत्रु तथा मित्र बन जायेंगे। यह संसार मुसाफिर खाने के समान है जिसमें प्राणी आते हैं, थोड़े समय ठहरते हैं और फिर चले जाते हैं। यहाँ पर स्थाई रूप से किसी को भी नहीं रहना। अतएव दूसरों से न तो कटु वचन कहने चाहिए और नहीं बुरा व्यवहार करके शत्रुता की भावना बढ़ानी चाहिए। उन्हें सहयोगी मानकर स्नेह, सौजन्य और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए।

आपत्तियाँ अथवा कठिनाइयाँ यदि किसी का मार्ग रोक सकने में सर्वथा समर्थ होतीं तो संसार में कोई भी व्यक्ति सफल एवं समृद्ध न हो पाता संसार में आपत्तियाँ सदा संभाव्य हैं। पग-पग पर यहाँ कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ऐसा कदाचित ही कोई भाग्यवान इस संसार में उत्पन्न हुआ हो जिसे कठिनाइयों का सामना न करना पड़ा हो। तब भी लोग आगे बढ़े हैं, और समृद्ध बने हैं।

कठिनाइयाँ पथ रोकती हैं, रोड़े, अटकाती हैं। किंतु तब, जब मनुष्य उनसे हार मान बैठता है। जरा-सी प्रतिकूलता देखते ही, बाधा के उपस्थित होते ही, जिसके हाथ पैर फूल जाते हैं, साहस टूट जाता है और निराशा का अंधकार घेर लेता है, उसकी उन्नति का पथ अवश्य अवरुद्ध हो जायेगा। उन्नति एवं सफलता अपने हाथ पैरों के बल और आत्म-विश्वास के आधार पर मिलती है। यही वे गुण हैं जो मनुष्य को जीवन पथ पर अग्रसर किया करते हैं। किसी विपरीतता को देखकर जब मनुष्य का यही आवश्यक संबल ही नष्ट हो जायेगा, तो मनुष्य बढ़ेगा किस बल पर? बाधायें निर्बल को घेरती हैं, आत्म अविश्वासी को ही परास्त कर पाती हैं। परिश्रमी, पुरुषार्थी तथा आत्म-विश्वासी को नहीं।

आत्म-विश्वासी आत्म-निर्भर भी होता है। जिसमें चलने की ताकत है। जिसे किसी वैशाखी अथवा सहारे की जरूरत नहीं है उसे उसके स्थान से कौन हटा सकता है आगे बढ़ने से कौन रोक सकता है?

बाहर की शक्तियाँ भी सहायता किया करती हैं, पर करती उन्हीं की हैं, जो उसके पात्र हैं। एक मनुष्य सहायता की याचना के लिए जाता है, उधार या मुफ्त कोई वस्तु चाहता है तो उसे आसानी से मिल जाती है, देने वाला विश्वास करता है कि मेरी सहायता का यह सदुपयोग करेगा और तुरंत ही प्रसन्नतापूर्वक सहायता करने को उद्यत हो जाता है। एक दूसरा व्यक्ति भी सहायता माँगने जाता है पर उसे देने के लिए कोई तैयार नहीं होता, कारण यह नहीं है कि पहले व्यक्ति का भाग्य अच्छा है, दूसरे का खोटा है या सहायता करने वाले दुष्ट हैं वरन् असली कारण यह है कि दूसरा व्यक्ति अपनी योग्यता और ईमानदारी उस प्रकार प्रमाणित नहीं कर सका जैसा कि पहले व्यक्ति ने की थी। सहायता न करने वालों को आपका गालियाँ देना बेकार है। इस दुनिया में अधिक योग्य को तहजीब देने का नियम सदा से चला आता है। किसान निठल्ले पशुओं को कसाई के हाथ बेच देता है और दुधारू तथा कामकाजी को अच्छी खुराक देकर पालता-पोसता है। संसार में सुयोग्य व्यक्तियों को सब प्रकार सहायता मिलती है और अयोग्यों को अपनी मौत मरजाने के लिए छोड़ दिया जाता है। माली अपने बाग में तंदुरुस्त पौधों की खूब हिफाजत करता है और जो कमजोर होते हैं उन्हें उखाड़ कर उस जगह दूसरा बलवान पौधा लगाता है। ईश्वर की सहायता भी सुयोग्यों को मिलती है, माला जपने और मनौती पर भी अयोग्य बेचारा वहाँ से भी निराश लौटता है।

“उद्धरेत् आत्मनात्मानम्” की शिक्षा देते हुए गीता ने स्पष्ट कर दिया है कि यदि अपना उत्थान चाहते हो तो उसका प्रयत्न स्वयं करो। दूसरा कोई भी आपकी दशा को सुधार नहीं सकता, श्रेष्ठ पुरुषों का थोड़ा सहयोग मिल सकता है पर रास्ता अपने को ही चलना पड़ेगा, यह मंजिल दूसरे के कंधे पर बैठकर पार नहीं की जा सकती है। यह लोक और परलोक किसी दूसरे की कृपा दृष्टि से सफल नहीं हो सकता-यह सब तो खुद ही करना पड़ेगा, स्वयं ही अपने पैरों पर खड़ा होना पड़ेगा। अपने पेट के पचाये बिना अन्न हजम नहीं हो सकता, अपनी आँखों की सहायता बिना दृश्य दिखाई नहीं पड़ सकता, अपने मेरे बिना स्वर्ग को देखा नहीं जा सकता, इसी प्रकार अपने प्रयत्न बिना उन्नत अवस्था को प्राप्त नहीं किया जा सकता।

हम मिमियाना छोड़ें, अपनी शक्ति को पहचानें और तन्मयता से गंतव्य की ओर बढ़ चलें, यह मानकर आगे बढ़ें कि हम उस महान शक्ति के ही स्फुल्लिंग हैं, संसार को स्वर्ग बनाने आये हैं-उसे सेवा, सहानुभूति और प्रेम का संदेश देने आये हैं। अच्छाइयों को शिरोधार्य करने का नाम ही जीवन है। अपनी वर्तमान परिस्थितियों में आगे बढ़कर अपने भविष्य को-समाज और राष्ट्र के भविष्य को उन्नत और उज्ज्वल बनाने का नाम ही जीवन है।


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