धर्म-श्रद्धा विवेक सम्मत ही वरेण्य

January 1995

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बाजार से कोई वस्तु खरीदते समय खरीददार उसे खूब उलट-पलट कर ठोक-बजाकर संतुष्ट होने के बाद खरीदता है। विवाह संबंध स्थिर किये जाते समय लड़के के माता-पिता लड़की का कुल, गोत्र देखने से लगाकर उसका रंग-रूप, गृह-प्रबन्ध कौशल, शिक्षा-दीक्षा और आधुनिकता तक को देखते हैं। लड़की के माता-पिता भी लड़के के गुण, खानदान व योग्यता को आँके बिना नहीं रहते। जीवन के हर व्यवहार में किसी वस्तु को उसके गुणों के आधार पर ही स्वीकार किया जाता है। पहले उसकी परीक्षा ली जाती है।

सामान्य जीवन व्यवहार के क्षेत्र में भी जब किसी व्यक्ति, वस्तु या संबंधों को स्वीकार करने के लिए उसके गुणों को देख परख कर देखा जाता है। किंतु देखने में यह आता है कि जीवन को सफल व सार्थक बनाने वाले पथ-धर्म को अधिकांश व्यक्ति यों ही अपना लिया करते हैं। उसको वे प्रायः किसी कसौटी पर नहीं कसते। उसकी परीक्षा नहीं लेते-उसके गुणों की ओर ध्यान नहीं देते। निर्जीव परंपरा की चिह्न पूजा की तरह धर्म श्रद्धा का भी उपयोग हो रहा है। यदि उसे देखने-परखने का प्रयास किया जाता रहे तो उसके उपयोगी तत्वों को पुनर्जीवन और अनुपयोगी बाह्योपचारों का परित्याग परिष्कार भी संभव हो सके।

आज धर्म श्रद्धा, धर्मजीवियों और धर्म व्यवसायियों द्वारा लूटी भर जा रही है। धर्म श्रद्धा सामाजिक पुनरुत्थान का नहीं बंधन का कारण इसीलिए बनती जा रही है कि लोगों ने धर्म को देख परख कर स्वीकारना छोड़ दिया है।

धार्मिक हो जाना ही पर्याप्त नहीं है, धर्म के साथ श्रद्धा-भावना जोड़ लेना ही पर्याप्त नहीं है। उसके साथ ही यह देखना भी परमावश्यक है कि वह धर्म, देश, समाज और विश्व के मंगल का पथ और उसमें हमारी उपयुक्त भूमिका प्रस्तुत करता है या नहीं। उसकी उपयोगिता का ह्रास उसे विकृत करके तो स्वार्थीजनों ने नहीं कर दिया?

किसी भी धर्म की सभी बातों को इसलिए नहीं मान लिया जा सकता है कि वह सबसे पुराना है। यह धर्म की कोई उपयुक्त और युक्तियुक्त कसौटी नहीं है। पुराना होना प्रामाणिकता और पात्रता की कसौटी नहीं हो सकता। जो पुराना है वह सच्चा है-ऐसा मान लेना उचित नहीं। कई पुराने भवनों को गिरा देना पड़ता है क्योंकि अब वे आश्रय देने के स्थान पर कभी भी ढह कर प्राणों का भी संकट उपस्थित कर सकते हैं। पुराने वस्त्रों को इसी तरह त्याग देना पड़ता है क्योंकि वे अब शरीर की आतप-शीत से रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं। नयी से नयी बात को यदि धर्म के सिद्धाँतों में इसलिए स्थान नहीं दिया जाय कि वह पुरानी नहीं है तो उस दकियानूसीपन को धर्म की कसौटी कैसे कहा जा सकता है? नये से नया प्रवर्तन यदि तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है तो उसके लिए धर्म के द्वार खुले होने चाहिए। यदि उसके लिए धर्म प्रसाद के द्वार नहीं खुलते तो वह कसौटी पर खरा नहीं उतरता। वह समय के साथ बदलना चाहता है।

किसी भी धर्म की सब बातों को इसलिए मान लेना भी कि वह सबसे नया है यह भी कोई सही कसौटी नहीं होती। हो सकता है काल की परीक्षा में वह खरा न उतरे। हो सकता है उसमें पुरातन उपयोगी और आवश्यक तत्वों को सम्मिलित ही नहीं किया गया हो।

यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि मनुष्य कोई धर्म का हो सकता है तो वह एक मात्र मानव-धर्म है। हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी आदि धर्मों में वही मानव धर्म आंशिक रूपों में विद्यमान है। उनमें निहित शाश्वत मानवीय सिद्धाँत ही सनातन है। उनके स्वरूप का भी पूर्ण और चिंतन नहीं हो सकता। वह तो समय के साथ परिवर्तन की अपेक्षा करता है। धर्म की कसौटी की उपरोक्त दो बातें स्वामी रामतीर्थ ने बतायी हैं। स्वामी जी का यहाँ धर्म से अभिप्राय मानव धर्म ही है।

धर्म की जो साधारण व्याख्या की गयी है, वह व्याख्या है-”धारणस्य धर्म विज्ञातित” धारणा से धर्म है। यानि जिस चीज के कारण, जिस शक्ति के कारण, जिस व्यवस्था के कारण मानवता टिके वह धर्म है, मानव का।

आज धर्म शब्द के कई जगह अर्थ के अनर्थ भी हो गये हैं। बहुत बार तो धर्म के अंतर्गत वे चीजें भी लागू कर दी गयी हैं जो धर्म के अंतर्गत नहीं आतीं। धर्म एक व्यापक शब्द होते हुए भी जो उसकी छोटी-छोटी चीजें हैं, छोटे-छोटे अंग हैं, उन्हीं को लोग धर्म समझने लगे हैं। मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर में जाना धर्म का एक अंग है पर यही धर्म है ऐसी बात नहीं।

धर्म को कसौटी पर कसने का उद्देश्य यही है कि धर्म की आत्मा-”उसके शाश्वत सिद्धाँत और उसके कलेवर व्यावहारिक स्वरूप का सच्चा सम्मिलन हो सके। किसी एक पक्ष को उपेक्षित नहीं रहने दिया जाय। ऐसा होने पर ही हम धर्म श्रद्धा का सच्चा लाभ उठा सकेंगे और उसको सार्थक भी कर सकेंगे।”

स्वामी रामतीर्थ ने कहा है-”किसी को इस आधार पर मत मान लो कि मानव समाज का बहुत बड़ा वर्ग उसमें विश्वास करता दिखता है, क्योंकि मानव समाज का बहुत बड़ा हिस्सा तो दरअसल शैतान के सिद्धाँत में विश्वास रखता है, अज्ञान के धर्म में विश्वास करता है। एक जमाना था जब मानव समाज का बहुत बड़ा हिस्सा गुलामी में विश्वास करता था, मगर यह तो इसका प्रमाण नहीं कि गुलामी की प्रथा उचित थी।”

वेदाँत के प्रकाण्ड पण्डित और धर्म तत्व के ज्ञाता स्वामी जी का यह कथन इस बात की ओर संकेत है कि प्रचलित धर्म के व्यावहारिक स्वरूप में समय-समय पर जो सुधार होने चाहिए वे तभी संभव हो सकेंगे जबकि व्यक्ति भीड़ के साथ चलने की वृत्ति छोड़कर विवेक को महत्व दें। बहुसंख्यक व्यक्ति तो उसी पथ पर चलते हैं जो प्रचलित किंतु समय के साथ हैं उसमें परिवर्तन तो विवेकीजन ही कर सकते हैं। अतः धर्म की उन सब बातों को इस लिए ही स्वीकार नहीं कर लिया जाय कि उसे बहुसंख्यक लोग मानते हैं।

ठीक इसके विपरीत इसलिए भी नहीं मान लिया जा सकता कि थोड़े से लोग उसे मानते हैं। कई बार वे मुट्ठी भर अल्प संख्यक जिन्होंने कोई धर्म स्वीकार कर लिया है, अज्ञानग्रस्त और गुमराह आदमी होते हैं।

किसी धर्म को किसी महान स्वामी तपस्वी ने चलाया है इसलिए यह आवश्यक नहीं कि वह धर्म समग्र पूर्ण हो। देखने में आता है कि सर्वस्व त्यागी-तपस्वी भी कठमुल्ला हो सकते हैं। त्यागी और तपस्वी होना ही धर्म स्थापना का उपयुक्त पात्रत्व नहीं होता। ऐसे कठमुल्लाओं द्वारा चलाया गया धर्म-धर्म न होकर अधर्म के पथ का पोषक भी हो सकता है।

अत्यधिक उच्च चरित्र वाले व्यक्ति ने कोई धर्म चलाया है इसलिए उसे मान लेना चाहिए। यह भी धर्म की कोई युक्तियुक्त कसौटी नहीं हो सकती। बहुत शानदार चरित्र वाले व्यक्ति भी कई बार सत्य का सही निरूपण करने में असमर्थ रहे हैं। किसी की पाचन शक्ति तेज है तो इसका यह अर्थ नहीं कि उसे पाचन क्रिया का पूरा-पूरा ज्ञान होगा। हो सकता है उसे पाचन क्रिया का क, ख, ग भी ज्ञात नहीं हो। ऐसा भी तो होता है कि कई सुँदरतम कलाकृतियाँ ऐसे लोगों न रची हैं जो स्वयं अत्यंत कुरूप हैं। कुरूप व्यक्ति भी सुँदर सत्यों का प्रचार कर सकते हैं। सुकरात ऐसे ही व्यक्ति थे। सुँदर व्यक्ति सुँदरता का ही सृजन करे, चरित्रवान व्यक्ति चरित्रवान बनने का ही पथ प्रदर्शन करे यह आवश्यक नहीं। अतः उच्च चरित्र के व्यक्ति द्वारा स्थापित धर्म की सभी बातें मान लेने योग्य हैं, यह भी धर्म की कसौटी नहीं बनती।

किसी बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति द्वारा चलाया गया धर्म आँख मूँद कर मान लिया जाना भी कोई अच्छी बात नहीं है। प्रसिद्धि के साथ सत्य का जुड़ा होना भी आवश्यक नहीं है। सर आइजक न्यूटन बहुत प्रसिद्ध आदमी थे फिर भी प्रकाश के उत्सर्जन का उनका सिद्धाँत अब गलत प्रमाणित हो गया है।

धर्म के नाम पर प्रचलित सब चीजें धर्म ही हों यह आवश्यक नहीं है। हो सकता है कि धर्म के नाम पर जो कुछ प्रथा-परंपराएँ, पूजा-उपासना पद्धतियाँ, साधनायें व सिद्धाँत प्रचलित हैं वे धर्म से दूर का भी रिश्ता न रखते हों। हो सकता है वे विरोधी भी हों। पर वे प्रचलन में आ गई हैं इसलिये धर्म बन गयीं हैं। ऐसी स्थिति में धर्म की कोई उपयोगिता नहीं रह जायेगी।

धर्म में किसी भी चीज को उसकी विशेषता के आधार पर, गुण के आधार पर, उपयोगिता के आधार पर, स्वीकार किया जाना चाहिए। स्वयं उसकी परीक्षा करके देखना चाहिए ठोंक बजाकर देखा जाना चाहिए तब कहीं उसे स्वीकार किया जाना चाहिए। स्व विवेक की कसौटी पर कसे बिना यह मानकर कि इसे मानव समाज का बहुत बड़ा हिस्सा मानता है। इसे किसी त्यागी तपस्वी ने चलाया है। यह बहुत लंबे काल से प्रचलित है अथवा किसी प्रसिद्ध आदमी ने चलाया है। धर्म की किसी भी बात को मान लेना अंधेरे में लाठी चला लेना जैसे काम हैं। इसमें न व्यक्ति का हित है न समाज का।

धर्म के नाम पर आजकल कुछ ऐसी ही बातों पर विशेष बल दिया जा रहा है उन्हें माना जा रहा है जो धर्म का अंग होते हुये भी समग्र घड़ी नहीं है। केवल उन्हें ही धर्म मानकर चला जाता रहे तो उससे कुछ अधिकांश लाभ होने वाला नहीं है। सामान्य जीवन व्यवहार में बरती जाने वाली सावधानी धर्म के संबंध में भी रखी जानी आवश्यक है। धर्म, श्रद्धा होना चाहिए पर उसके साथ विवेक भी जोड़ा जाना चाहिए उसकी सभी बातों को कसौटी पर कस कर ही स्वीकार करना चाहिए। यदि ऐसा होता रहा तो धर्म का हम पूरा-पूरा लाभ उठा सकेंगे। समाज में स्वर्ग का सा वातावरण तभी उपजेगा।


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