जिंदा अध्यात्मवाद ही रहने वाला है

January 1995

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

कर्म की श्रेष्ठता में चिंतन की उत्कृष्टता आधारभूत मानी गई है। आधार यदि कमजोर हो तो मजबूत लगने वाली संरचना भी देखते-देखते धराशायी हो जाती है। इस दृष्टि से जीवन में क्रिया-कलाप की महत्ता और उपयोगिता तो है, पर उसकी केन्द्रीय धुरी में क्रियाशील चिंतन की उपेक्षा नहीं की जा सकती। चिंतन का अच्छा और बुरा प्रवाह ही क्रिया और व्यक्तित्व को प्रभावित करता है।

क्रिया का विश्लेषण किया जाय, तो स्पष्ट होगा कि इसका स्वरूप वृक्ष के सदृश्य है, जिसकी जड़ें चिंतन क्षेत्र में गहरी दबी होने के कारण अगोचर होती हैं। दीख पड़ने वाला कार्य तने और टहनियों जैसा है। इसके परिणाम ही वह फल-फूल हैं, जो उद्देश्यों का स्वरूप अभिव्यक्त करते हैं।

इन दिनों मानवी मूल्यों में जो गुणात्मक ह्रास में अभिवृद्धि दिखाई पड़ रही है, उसके कारण समाज विज्ञानियों में सर्वत्र बेचैनी बढ़ी है। उनके असमंजस का कारण यह है कि सुरसा के मुँह की तरह फैलने वाली इस अभिवृद्धि को रोका और फिर उलटा कैसे जाय? ताकि ध्वंस प्रयोजनों में लगने वाली महत्वपूर्ण शक्ति का सवाल होता, तो किसी कदर राहत महसूस की जा सकती थी, पर जब साधन, संपदा, व्यवस्था सब कुछ चुकने, लड़खड़ाने और गड़बड़ाने लगे, तो इसे संघातिक संकट ही कहना चाहिए। इस संकट के मूल में चिंतन ही निमित्त कारण होता है।

पितिरम ए॰ सोरोकिन अपने ग्रंथ “डाउनफाल ऑफ रोमन एम्पायर” में रोमन साम्राज्य के पतन के अनेक कारणों से सबसे महत्वपूर्ण कारण का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि तब रोमनों में चारित्रिक भ्रष्टाचार इस कदर इतना बढ़ गया था, जिसे रोक पाने में तत्कालीन सम्राट जूलियस सीजर भी समर्थ न हो सके। उलटे उन्हें और अधिक छूट देकर भ्रष्टता को बढ़ाने में उनके सहायक ही हुए। परिणाम यह हुआ कि उन्नति के शिखर पर पहुँचा साम्राज्य भूलुण्ठित होकर धूल चाटने लगा।

विश्व की अगणित दूसरी सभ्यताओं के विनाश के पीछे भी नीति संबंधी गलत निर्धारण ही मूलभूत कारण रहे। वही गलतियाँ पुनः दुहरायी जा रही हैं। नीति-नियम का मूल स्रोत भाव-संस्थान है। जिसे संवेदना की मूल केन्द्रीय धुरी माना जाता है। आजकल यही महत्वपूर्ण तंत्र विकृत हो गया है। विकार हावी होने के कारण व्यक्ति स्वयं को केन्द्र में रख कर ही किसी प्रकार का निर्धारण करता है। जिसमें उसे अधिकाधिक लाभ की संभावना नजर आती है, उसके अनैतिक और स्वार्थपूर्ण होने पर भी समाज और संसार की अपार हानि होने की संभाव्यता दीखने पर भी उनकी उपेक्षा करते हुए उसे अपना लिया जाता है। फलतः जो गतिविधियाँ नहीं होनी चाहिए, जिनके होने में नैतिकता का प्रतिबंध लगना चाहिए, वह सब सामान्य और सार्वजनिक बन जाती हैं। यही कारण है कि इन दिनों भ्रष्टाचार, दुराचार, अत्याचार, पापाचार जैसे दुरित द्रुत गति से बढ़े हैं और सेवा, सहायता, उदारता, करुणा, दया, ममता जैसे देवोपम गुणों का ह्रास हुआ है।

संवेदनाओं का उद्गम स्थल अंतःकरण है। भावनाएँ वहीं उपजती हैं। भावना से विचारणा और विचारणा से क्रिया जन्म लेती है।

क्रिया यदि निम्नस्तरीय हो, तो यह अंतराल की निकृष्टता का स्पष्ट प्रमाण है। अंतराल यदि उदात्त तत्वों से बना हो तो वह अपना प्रमाण-परिचय दिये बिना न रहेगा। उससे भावना, विचारणा और क्रिया सभी प्रभावित होंगी। उनमें उत्कृष्टता का समावेश होगा यह सभी परस्पर सुसंबद्ध है। इनमें से एक के भी लड़खड़ाने से समस्त श्रृंखला प्रभावित होती है और पूरा तंत्र गड़बड़ा जाता है, पर भाव संस्थान का मूल यदि समर्थ-सशक्त हो, तो ऐसी स्थिति उपस्थित नहीं होती। इसीलिए विवेकवान पुरुष अंतराल को समुन्नत बनाने पर विशेष ध्यान देते हैं। इसके परिष्कार से दृष्टिकोण में उच्चस्तरीय आदर्शवादिता का समावेश स्वतः हो जाता है, जिससे क्रिया-कलाप में भी उदात्तता आ जाती है।

अंतः को परिमार्जित और सुविकसित कैसे किया जाय? इसके लिए तत्ववेत्ताओं ने धर्मधारणा का जीवन में समावेश आवश्यक बताया है। नीतिमत्ता, कर्तव्यपरायणता, और ईश्वर-विश्वास-यही इसके केन्द्रीय तत्व हैं। इन्हें प्रकाराँतर से आध्यात्मिकता, धार्मिकता और आस्तिकता भी कहते हैं। यह एक दूसरे से गहन तादात्म्य रखते हैं। इनकी एक कड़ी टूटने से समूची जंजीर बिखर जाती है। वैयक्तिक जीवन में जिसे नीतिमत्ता कहा जाता है, वही सामूहिक जीवन में सामाजिक सुव्यवस्था बन जाती है। नीति और अनीति क्या है? इसे स्पष्ट करते हुए लेस्ली ब्राउन अपनी पुस्तक “इथिकल साइंस ऑफ सोल” में लिखते हैं कि किसी व्यक्ति के कार्य के स्वरूप का बाह्य अवलोकन करके उसे नीति-अनीति की संज्ञा नहीं दी जा सकती। कार्य के पीछे कर्ता की मंशा और भावना क्या थी, इसे भली-भाँति समझने के उपराँत ही किसी कार्य को नैतिक या अनैतिक कहा जा सकता है। कई बार भावना के उच्चस्तरीय रहने पर भी परिणाम ऐसे प्राप्त होते हैं, जिन्हें देखकर यह अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि उक्त क्रिया के मूल में व्यक्ति की स्वार्थपूर्ण भावना नहीं थी। इसी प्रकार अनेक बार कार्य को देखकर ऐसा लगता नहीं कि करने वाले की नीयत में खोट थी। अतः कार्य की परिणति को देखकर अंदर की आस्था का आकलन करना उचित नहीं। यह ठीक है कि मोटे तौर पर नीति-अनीति को निर्धारित करने का यही एक सुगम तरीका है। इतने पर भी इसे प्रामाणिक और विश्वसनीय नहीं ठहराया जा सकता। इसके लिए अंतस् की उत्कृष्टता एवं निकृष्टता की जानकारी आवश्यक हो जाती है। यह संभव है कि नीयत ऊँची रहने पर व्यवहार में भूल अथवा भ्रम से कोई ऐसा काम बन पड़े, जो देखने वालों को भला न लगे, तो भी वास्तविकता यथावत् बनी रहेगी। कर्ता इतने मात्र से अहंकारी अथवा उद्धत नहीं बन जाता। व्यवस्था में व्यतिक्रम होने के कारण उसे दण्डित, लाँछित किया जा सकता है, इतने पर भी उसकी उदात्तता अक्षुण्ण बनी रहेगी। व्यक्तित्व और कर्तृत्व की सही परख उसकी आस्थाओं को समझे बिना नहीं हो सकती। कर्म जो धर्म तत्व का मूल आधार है, की गति को गहन इसीलिए कहा गया है कि उसे मात्र क्रिया के आधार पर नहीं जाना जा सकता। ईमान की व्यापकता ही उसका हृदय केन्द्र है।

इसका निरीक्षण-परीक्षण और विश्लेषण आप्त वचनों और शास्त्र सूत्रों के मार्गदर्शन में किया जा सकता है, पर यह तभी शक्य है, जबकि कर्ता पूर्वाग्रहों से मुक्त हो, अन्यथा शास्त्रीय सूत्र-सिद्धाँत इस प्रकार तोड़े–मरोड़े जाने लगेंगे कि दलील की दृष्टि से चमत्कारी लगने वाला प्रतिपादन भी शास्त्रकारों के मूल मंतव्य की वास्तविकता को कुबड़ा ही बनाने वाला होगा।

विगत काल में सदियों से यही होता आया है। होना यह चाहिए था कि सत्पुरुषों अथवा सद्ग्रंथों के अनुरूप अंतस् की संरचना, भावना, क्रियाविधि और विचारणा को टाला जाता, किंतु हुआ यह कि आप्त वचनों एवं ग्रंथों की व्याख्याएँ स्वार्थपूर्ण ढंग से चित्र-विचित्र रूप में की जाने लगीं, फलतः न अपना अंतराल परिष्कृत हो सका, न लोकमानस के परिमार्जन को क्रियान्वित किया जा सका, उलटे उसे (धर्म को) “अफीम की गोली की” उपहासास्पद संज्ञा दे दी गई।

इसीलिए उपनिषद् की ऋचाएँ स्पष्ट उद्घोष करती हुई कहती हैं-”नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहूना श्रुतेन” अर्थात् परम सत्य की प्राप्ति न बहुत भाषण देने से होती है, न बौद्धिक तार्किकता अथवा लगातार सुनते रहने से होती है। इसके लिए स्वयं की मनोभूमि का परिमार्जन आवश्यक है। साथ ही चिंतन क्षेत्र में व्यापक श्रेष्ठता के तत्वों की प्रतिष्ठापना के अभ्यास के साथ-साथ क्रिया द्वारा उसकी विस्तृत अभिव्यक्ति का गंभीर प्रयास करते रहना होगा।

धर्म का संपूर्ण तत्वदर्शन इन्हीं उच्चस्तरीय आस्थाओं के प्रति निष्ठावान रहने को प्रेरित करता है। उसकी उपयोगिता इसी में है कि वह मानवीय चिंतन और चरित्र को ऊँचा उठाये, उसे आत्म गौरव की अनुभूति के साथ-साथ सज्जनता-शालीनता के व्यवहार में उतारने का साहस प्रदान करे। आधुनिक चिंतकों ने इसके लिए भिन्न-भिन्न उपाय सुझाए हैं। नीत्से ने इस हेतु व्यक्तिवाद का दर्शन प्रस्तुत किया, तो मार्क्स ने समाजवाद की वकालत की। एक व्यक्ति को ही पूरी तरह प्रधान मानकर चलता है, तो दूसरा सामाजिक प्रमुखता को सर्वोपरि स्वीकारता है, पर देखा जाय तो उक्त दोनों ही प्रकार के दर्शन अधूरे और अव्यावहारिक हैं। व्यावहारिकता की कसौटी दोनों को समान रूप से असफल सिद्ध करती है। नीत्से के व्यक्तिवाद को प्रमुख मानकर चला जाय, तो समाज की उपेक्षा होगी और यदि मात्र समाजवाद को ध्यान में रखा गया, समान वितरण प्रणाली को तो किसी प्रकार लागू कर दिया जायेगा, पर व्यक्ति के नैतिक विकास में एक प्रकार से बाधा ही पड़ेगी और स्थिति पिंजरे में बंद रहने वाले शेरों जैसी हो जायेगी, जो कभी मुक्त हुआ, तो तमाम बंधनों को अस्वीकार देगा और अव्यवस्था ही फैलायेगा। कम्युनिस्टों की यह नीति किस प्रकार असफल सिद्ध हुई, इसे पुराने सोवियत संघ के विघटन को देखकर जाना जा सकता है।

अस्तु अध्यात्मवादी दर्शन में व्यक्ति और समाज दोनों पर समान रूप से ध्यान देना अभीष्ट माना गया है। यही एक ऐसा दर्शन है, जो वर्तमान आस्था संकट को टाल सकता है। इसमें यदि व्यक्ति में देवत्व के उदय की संभावना है, तो इस बात की भी पूरी-पूरी गुंजाइश है कि धरती पर स्वर्ग का अवतरण हो सके। व्यक्ति और समाज की आत्मा को स्पर्श करने वाले यदि इस धर्म-दर्शन को अंगीकार किया गया, तो कोई कारण नहीं कि इससे वैयक्तिक चिंतन में उत्कृष्टता और समाज में श्रेष्ठता न आ सके। व्यष्टि से ही समष्टि का निर्माण होता है। मिट्टी यदि अच्छी हो, और मूर्तिकार योग्य, तो उससे बनने वाली प्रतिमा की प्रशंसा हुए बिना नहीं रहती। मिट्टी यदि समाज का प्रतिनिधित्व करे और मूर्तिकार को समाज की इकाई माना जाय, तो दोनों के संयोग से जिस दुनिया की रचना होगी, वह प्रतिमा जैसी सुँदर और श्रेष्ठ होगी। हम भावना को परिष्कृत करें, विचारणा और क्रिया स्वयं परिमार्जित होती चलेंगी। स्वयं और समाज को सुसंस्कारी व समुन्नत बनाने का यही राजमार्ग है। इसे क्रियान्वित किया ही जाना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles