अंतर्जगत में प्रवेश करें, सत्य को पायें

January 1995

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ईश्वर-प्राप्ति जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि है। परम सत्य इसे ही कहा गया है। इसको प्राप्त कर लेने के उपराँत फिर कुछ और पाना शेष नहीं रह जाता। मनुष्य को इसी सत्य की उपलब्धि का उपाय करना चाहिए।

सत्य और तथ्य यह दो भिन्न चीजें हैं। तथ्य को खोजा और पता लगाया जाता है, जबकि सत्य के समीप पहुँचना पड़ता है। उसके अनुसंधान की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वह सर्वत्र मौजूद है, स्वयं शोधक में भी उसकी विद्यमानता है, इसलिए अन्यत्र उसका संधान नहीं करना पड़ता। खोज उस वस्तु की होती है, जो अपने पास नहीं है, किंतु जो पहले से ही पास में हो, भला उसके लिए शोध कैसी? उसको तो मात्र अभिव्यक्ति चाहिए। उसके ऊपरी आवरणों को अनावृत कर देने भर से यह संभव हो जाता है और उसका प्रकाश साधक में झलकने-झाँकता लगता है। यह अंतर्जगत की यात्रा और अध्यात्म की उपलब्धि है।

किंतु तथ्य बहिर्जगत का अन्वेषण है। पदार्थ विज्ञान की जितनी भी गवेषणाएँ हैं, सब तथ्यों पर आधारित हैं। तथ्य से विज्ञान सशक्त और प्रामाणिक बनता है। यदि विज्ञान से इसे निकाल दिया जाय, तो वहाँ कल्पना-जल्पना के अतिरिक्त शेष कुछ नहीं बचेगा। यह संसार ब्रह्म का प्रकाश है। विज्ञान अपने ढंग से उसकी प्राप्ति का उपाय कर रहा है। उसने जब-जब पदार्थ संबंधी सत्य को खोजने और पाने की घोषणा की, तब-तब वस्तुतः उसने तथ्य को ही ढूँढ़ा है, क्योंकि सत्य तो एक ही है। बाकी सब उस सत्य को साबित करने वाले तथ्य भर हैं। जब यह कहा जाता है कि संसार परमाणुओं से बना हुआ है, जो स्वयं में पदार्थ की इकाई न होकर पुनः कई इकाइयों में विभाजित हो जाता है। यह सूक्ष्म इकाइयाँ नाभिक के गिर्द परिभ्रमणशील हैं, तो प्रकाराँतर से पदार्थ संबंधी तथ्य का ही उद्घाटन होता है। यह तथ्य अंतिम सत्य को सिद्ध करता है। अंतिम सत्य इसलिए, क्योंकि जब मूल कणों की गति पर विचार करते हैं, वहाँ तुरंत एक प्रश्न उठ खड़ा होता है कि गति का स्रोत क्या है? उसे इसकी प्रेरणा कहाँ से मिलती है? कारण कि स्थूल जगत में अनायास कुछ हो नहीं सकता। उसके पीछे प्रेरणा अथवा निमित्त होना अनिवार्य है। जब कोई प्रत्यक्ष हेतु ज्ञात न हो सके, तो इसके मूल में परोक्ष की प्रेरणा होना समझा और स्वीकारा जा सकता है। यह स्वीकारोक्ति ही परम सत्य का सबसे बड़ा प्रमाण है। इसलिए स्थूल विश्व में हम जो कुछ भी ढूँढ़-खोज करते हैं, वह सदा तथ्यपरक होती है। विज्ञान तथ्य का ही अन्वेषण कर सकता है, सत्य का नहीं क्योंकि सत्य अनुभूति और ज्ञानपरक है, जो बुद्धिगम्य हो, वह ज्ञान नहीं, वरन् जिसे समझने की सामर्थ्य महाप्रज्ञा के अतिरिक्त और किसी में भी न हो, वर परमज्ञान।

फूल तोड़ने के कुछ घंटे पश्चात् वे मुरझा जाते हैं वनस्पतिशास्त्री इस संदर्भ में यह कह सकते हैं कि डाल से पृथक् होने के बाद चूँकि बड़े पैमाने पर उसके अंदर की फारमेलिन गैस बाहर निकल जाती है, इसलिए ऐसा होता है। कुम्हलाने का कारण गैस का निकलना है, यह ठीक है, किंतु पुनः यहाँ एक सवाल पैदा होता है कि इसके लिए उद्दीपन कहाँ से मिलता है? यदि इसे प्लाण्ट फिजियोलॉजी का अंग मात्र माना जाय, तो फिर इसका भौतिक होना भी अंगीकार करना पड़ेगा। भौतिक प्रक्रियाओं के साथ व्यतिक्रम, अव्यवस्था, अनियमितता अभिन्न रूप से जुड़ी रहती है, अस्तु यहाँ भी यह संभाव्यताएँ स्वीकारनी पड़ेंगी। जब यंत्र-उपकरण चलते, बनते और प्रक्रियाएँ ठप्प होती रहती हैं, तो यहाँ फिर भी वह दृश्य दिखाई पड़ने चाहिए, किंतु पादप जगत के इतिहास में ऐसा एक भी उदाहरण अपवाद स्वरूप भी आज तक ढूँढ़ा नहीं जा सका है, जिसमें शाखा से कुसुमों के अलग होने के बाद भी वे वर्षों तक खिली हुई स्थिति में ताजे बने रहे। पुष्प-भेद के आधार पर उसके टूटने और मुरझाने के अंतराल में तो न्यूनाधिक अंतर देखा गया है, पर इससे ज्यादा कुछ नहीं। इससे उक्त भौतिक प्रक्रिया के पीछे किसी अभौतिक कारण को मानना ही पड़ेगा। पदार्थ जगत इस अभौतिक कारण को सदियों से तलाशता रहा है, पर हर बाँम इसकी खोज में वह किसी तथ्य को ही अनावृत करता रहा है। यह तथ्य उस “आदि कारण” का ही सबूत जुटाता है, जिसे चरम सत्य कहा गया है।

शरीर मरणधर्मा है-यह सच है, किंतु मौत आखिर होती क्यों है? इसकी गहराई में यदि उतरें, तो फिर उसी अंतिम बिंदु तक पहुँच जायेंगे, जहाँ से जीवन का प्रारंभ होना बताया गया है। मृत्यु के संबंध में शरीरशास्त्री यह कहते पाये जाते हैं कि मरने वाले की देह एवं अंग अवयव वृद्धावस्था के कारण जीर्ण-शीर्ण हो गये थे और उस जीर्णता का भार वे आगे उठा पाने में असमर्थ थे, इसलिए चेतना ने वृद्ध काया का परित्याग कर दिया, फलस्वरूप मरण घटित हुआ। उक्त तर्क कुछ हद तक मान्य है। असमंजस तो वहाँ उठ खड़ा होता है, जहाँ शरीर भी स्वस्थ, आयु भी औसत, फिर भी शरीराँत हो जाता है। कारण ढूँढ़ने पर ज्ञात होता है व्यक्ति दो-चार दिन ज्वरग्रस्त रहा, तीन-चार उल्टियाँ हुईं और देहाँत हो गया। चिकित्सक इसे मौत का हेतु नहीं मानते और कहते हैं कि यह कोई गंभीर दशा नहीं, जो मृत्यु का निमित्त बने। फिर भी इस प्रकार की मौतें होती रहती हैं। डॉक्टर इसमें अधिक माथापच्ची करने के बजाय इसे अनहोनी कहकर स्वीकार लेते हैं। इसका कोई वास्तविक कारण तलाश भी लिया गया, तो भी यह प्रश्न चिकित्साशास्त्र के समक्ष अनुत्तरित ही बना रहेगा कि अल्पायु और दीर्घायु में कलेवर छोड़ने के लिए चेतना को दिशानिर्देशक कहाँ से मिलता है? इसके पीछे बीमारियों को यदि कारणभूत माना गया, तो फिर सवाल पैदा होगा कि उक्त व्याधि हुई ही क्यों? यहाँ यदि परिस्थिति और पर्यावरण को जिम्मेदार ठहराया गया, तो इस इसका जवाब दे पाना कठिन हो जायगा कि उसी वातावरण में रहने वाले अन्य अनेकों को न होकर यह रोग व्यक्ति विशेष को क्यों हुआ? इस प्रकार प्रश्नों की एक लंबी श्रृंखला के पश्चात् हमें कोई-न-कोई अपार्थिव उद्गम की स्वीकारोक्ति करनी ही पड़ेगी, तभी इस प्रश्न श्रृंखला का समाधान हो सकेगा। यही अंतिम सत्य होगा। इस तरह मृत्यु संबंधी अलग-अलग तथ्य अप्रत्यक्षरूप से परमचेतना ही सिद्ध करते हैं। यही मानव के लिए यथार्थ प्राप्तव्य हैं।

ईश्वरीय चेतना का साकार रूप यह विराट् विश्व है। उसके कण-कण में परम सत्ता की व्यवस्था को देखा और अनुभव किया जा सकता है। जिस प्रकार मिट्टी के बर्तनों से कुम्हार का, मशीन के अवलोकन से निर्माता का एवं मकान को देखकर उसमें रहने और बनाने वाले का अंदाज लगता है, उसी प्रकार सृष्टि के अणु-अणु में समाये नियम को, उसके सुनिश्चित विधि-विधान को निहारने से किसी नियामक सत्ता की उपस्थिति का स्पष्ट आभास मिलने लगता है। यह आभास तथ्य मात्र है। उसकी उपलब्धि कर लेने से सत्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। सत्य का साक्षात्कार उसके आगे के चरण में होता है। तथ्य से परमेश्वर के प्रति विश्वास पैदा होता है। इस विश्वास के आधार पर जब आँतरिक मल विक्षेपों के अवाँछनीयता के आवरण को हटाया मिटाया जाने लगता है, तो आत्मा और ईश्वर का प्रकाश प्रकट होने लगता है। इसी की प्राप्ति मनुष्य का वास्तविक उद्देश्य है, किंतु इन दिनों उसे पाना तो दूर, उसके आस-पास भी हम नहीं पहुँच सके हैं। कारण कि हमारा आधार असत्य पर टिका हुआ है। सत्य को हस्तगत करने के लिए आधार का सच्चा होना भी निताँत आवश्यक है। झूठा आधार सत्य को कभी भी उपलब्ध नहीं करा सकता। जिस प्रकार लौह कणों को आकर्षित करने के लिए लोहे का चुँबक अभीष्ट होता है, उच्चस्तरीय ज्ञानार्जन के लिए उच्चशिक्षित आचार्य की आवश्यकता पड़ती है, काँटे को निकालने के लिए काँटा चाहिए, उसी प्रकार सत्य तत्व को प्रत्यक्ष करने के लिए व्यक्तित्व भी सच्चा होना चाहिए। मिथ्या व्यक्तित्व में सत्य को प्रकट और धारण करने की सामर्थ्य नहीं।

वर्तमान में जीवन और व्यवहार में हम जैसे बाहर हैं, वैसे भीतर नहीं हैं। कोई भी व्यक्ति ऐसा दिखलायी नहीं पड़ना चाहता, जैसा कि वह है। जो यथार्थ है,उसे आदमी छिपा लेना चाहता है, और जो झूठ है, मिथ्या है, उसका आवरण ओढ़ लेना चाहता है। फिर वही सत्य-प्राप्ति का उपक्रम करता दिखाई पड़ता है। धर्मग्रंथों का नवाह्न पारायण करने लगता है। कुरान, बाइबिल का नियमित पाठ आरंभ करता है। भगवान की प्रतिमा के समक्ष नित्य हाथ जोड़ता, पूजा करता, भजन गाता, प्रार्थना करता, व्रत-उपवास रखता है, ताकि उसे इष्ट के दर्शन हो जायँ, आत्मोपलब्धि हो जाय, पर वह यह सोचने-समझने की चेष्टा कभी भी नहीं करता कि यदि वह स्वयं असत्य है और उसका संपूर्ण व्यक्तित्व ही असत्य पर स्थित है, तो भला उसे सत्य का ज्ञान कैसे हो सकता है?

सत्य की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम हमें अपने संपूर्ण व्यक्तित्व को सत्य पर प्रतिष्ठित करना होगा। उसे सीधा, सरल और स्वच्छ बनाना होगा। हम जैसे भी हैं, जो भी हैं-व्यक्तित्व की स्वीकृति भी वैसी ही होनी चाहिए। खराब को खराब तथा बुरे को बुरा मान लेने से कम-से-कम इतना तो अनुमान लगता है कि व्यक्ति में असत्य को असत्य स्वीकारने जितना सत्य अभी बाकी है। आगे इसी का विस्तार करके उसे बीज से वृक्ष जितना विराट् बनाया जा सकता है। इतना यदि संभव हुआ, तो समझना चाहिए कि परमतत्व की उपलब्धि की दिशा में दो तिहाई सफलता मिल चुकी है। शेष एक तिहाई, ईश्वर के प्रति श्रद्धा और उच्च आदर्शों के प्रति समर्पण से पूरी हो जाती है, किंतु वर्तमान समय में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि वह स्वीकृति मन के अंदर कहीं नहीं है। व्यक्ति आज अपने दुर्गुण को दुर्गुण नहीं मानना चाहता। जब अच्छाई की दिशा में उठने वाले प्रथम कदम का ही गला घोंट दिया गया, तो फिर अच्छाई के समुच्चय-ईश्वर को, आत्मा को कैसे प्राप्त किया जा सकेगा? इतने पर भी आश्चर्य यह कि आज जिन्हें भला आदमी कहा जाता है, उन तथाकथितों की निजी जिंदगी में झाँकने पर वह सरलता, सहजता और स्वच्छता नहीं के बराबर बहुत कम देखने में आती है, जिनका कि बढ़-चढ़ कर अनुमान और बखान किया गया था। इसके विपरीत जिन्हें हम बुरा आदमी कहते हैं, अपराधी और चरित्रहीन समझते हैं, वे सरल, सहज हो सकते हैं।

मान्यता संबंधी यह दोष भी सत्य के समीप पहुँचने में अवरोध उत्पन्न करता है। यदि बुरे को बुरा और भले को भला कहने की धारणा सूक्ष्म परख के आधार पर बनायी जाती, तो शायद इनसे दोनों का ही कल्याण होता, पर उलटी अवधारणा अपना लेने और उलटा संबोधन प्रदान करने से जहाँ एक को उलटा करने का समर्थन और प्रोत्साहन मिलता है, वहीं दूसरा अपना सीधा-सच्चा आचरण त्याग कर खराब बनने के लिए मजबूर हो जाता है। सोचता है, जब दुर्जन की पहचान बन गई, तो फिर सज्जन बने रहने में क्या लाभ? इसके विपरीत जो वास्तव में दुष्ट और अधार्मिक हैं, वह शिष्ट एवं धार्मिक होने का और अधिक ढोंग करने लगते हैं। इस प्रकार दोनों ही पतनोन्मुख होते और सत्य तत्व से अधिकाधिक दूर होते चले जाते हैं। यदि प्रच्छन्न अभद्रों की भर्त्सना और वास्तविक भद्रों की सराहना का प्रचलन समाज में रहा होता, तो संभव है मनुष्य अपनी वर्तमान दुरवस्था से काफी कुछ आत्मोन्नति कर एक ऐसी भूमिका में अवस्थान कर रहा होता, जहाँ सच्चे अर्थों में उसे समुन्नत, सुसंस्कृत और सुसभ्य कहा जाता।

पर संसार की आज की स्थिति देखने से ऐसा लगता नहीं कि समाज सचमुच सुसंस्कृत है। इसका एक ही कारण है कि भौतिक प्रगति के साथ-साथ मनुष्य अधिकाधिक बहिर्मुख होता चला गया और बाह्य प्रकृति के अनुसंधान में निरत हो गया, जबकि होना उलटा चाहिए था। उसे अंतर्मुखी बनकर भीतर के आयामों में उतरना और पिछले दिनों की शोध को जारी रखते हुए आगे की उपलब्धि करनी चाहिए थी, पर ऐसा न हो सका। यही कारण है कि पिछले हजार वर्षों में मात्र एक महावीर एक बुद्ध, एक क्राइस्ट, एक मुहम्मद, विवेकानंद और एक श्री अरविंद पैदा हो सके। इतनी बड़ी दुनिया और इतनी विशाल अवधि में मात्र एक विवेकानंद! यह बड़े आश्चर्य, दुख और दुर्भाग्य की बात है। समय आ गया है, जब मनुष्य जाति को अपना यह दुर्भाग्य धो देना चाहिए। अंतः प्रकृति में प्रवेश कर उसे सत्य को पा लेने का प्रयास करना चाहिए, जो तथ्य के रूप में, स्थूल विश्व के रूप में हमारे सामने प्रकट और प्रत्यक्ष है। तथ्य मूर्त है और सत्य तत्व उसका अमूर्त और वास्तविक रूप है। आत्मा, ईश्वर कह कर उसे ही पुकारा गया है। मनुष्य का यथार्थ कल्याण उसी में निहित है। उसी की उपलब्धि का हमें प्रयत्न करना चाहिए।


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