रूस के महान विचारक आँस्पेंकी एक बार संत गुरजियफ के पास पधारे। गुरुजियफ जानते थे कि आँस्पेंकी अपने विषय का महान पंडित है। अतः सीधी बात करने से कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा।
एक कोरा कागज थमाते हुए गुरजियफ ने आँस्पेंकी से कहा-”जो कुछ तुम जानते हो और जो नहीं जानते हो यह दोनों इस कागज पर लिख दो। जो तुम जानते हो उसकी चर्चा करना व्यर्थ होगा और जो तुम नहीं जानते हो उस विषय पर ही चर्चा करना उचित होगा।” बात एकदम सरल थी। परंतु शिष्य के लिए बड़ी कठिन हो गई। उनका ज्ञानाभिमान चूर हो गया। आत्मा, परमात्मा के विषय वे खूब जानते थे किंतु तत्वतः स्वरूप और भेद-अभेद के बारे में सोचा तक नहीं था। बहुत सोचा। अंततः कागज कोरा का कोरा लेजाकर गुरजियफ के चरणों में रख दिया और बोले महोदय “मैं कुछ भी नहीं जानता आपने तो मेरी आँखें खोल दी। विनम्रतापूर्वक कहे गये आँस्पेंकी के शब्दों से गुरजियफ बड़े प्रभावित हुए और बोले-
“ठीक है। अब तुमने जानने योग्य पहली बात जान ली कि तुम कुछ नहीं जानते” यह ज्ञान की प्रथम सीढ़ी है। अब तुम्हें कुछ सिखाया, बताया जा सकता है। रीते घड़े को भरा जाना संभव है। अहंकार से परिपूर्ण घट में तो बूँद भर भी नहीं भरा जा सकता।” हम स्वयं को रीता बनाना तो सीखें, तभी तो सुपात्र बन सकेंगे।