गायत्री उपासना विज्ञान की दृष्टि में

January 1995

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उपासना का अर्थ है-ईश्वर के आदर्शों के समीप बैठना। उपास्य, आराध्य की स्थिति से जितनी ही अधिक समीप अपनी स्थिति विनिर्मित कर ली जाये, उसके जितना अधिक अनुकूल-समतुल्य बना जाये उसकी क्षमताएँ, शक्तियां,सामर्थ्य उसी अनुपात में अपने अंदर आती और अपने चेतन व भौतिक गुणों से लाभान्वित करती चली जाती हैं। ईश-उपासना का सुनिश्चित वैज्ञानिक आधार है जो सही अर्थों में संपन्न होने पर शरीर, मन, बुद्धि में आवश्यक परिवर्तन के रूप में परिलक्षित होता है।

“दि ह्यूमन सेन्सेज” नामक अपनी कृति में विख्यात वैज्ञानिक डॉ. गेल्डार्ड ने बताया है कि नक्षत्रीय गतिविधियाँ मनुष्य की मानसिक व शारीरिक गतिविधियों को प्रभावित करती हैं। मनुष्य की कोशिकाओं में अनुकूल तत्वों को आकर्षित करने, अवशोषण कर अपने में धारण करने और इस आधार पर शरीर से टूटने वाली ऊर्जा की कमी को पूरा करने की अद्भुत सामर्थ्य है। उनके अनुसार शरीर का प्रत्येक कोष एक लघु उप स्टेशन है जो मुख्य स्टेशन-मस्तिष्क से जुड़ा रहता है। मस्तिष्क में जो भी भाव तरंगें उठती हैं उसका प्रभाव तत्काल शरीर के अणुओं-कोशिकाओं पर पड़ता है। इसी आधार पर मनुष्य आकाश की अदृश्य शक्तियों से तो प्रभावित होता ही है, मन की चुँबकीय शक्ति के द्वारा वह दूरस्थ नक्षत्र पिण्डों से शक्ति प्रवाह भी अपने अंदर आकर्षित कर धारण कर सकता है और अपनी अंतरंग क्षमताओं को विकसित कर सकता है।

प्राचीन भारतीय मनीषियों ने इन्हीं शक्ति प्रवाहों को सूक्ष्म दैवीय शक्ति के रूप में माना था और उनके गुणों की पृथकता के आधार पर उन्हें पृथक्-पृथक् देव शक्तियों की संज्ञा देकर उनकी उपासना की विधियाँ विकसित की थीं। साथ ही साथ उनके अभ्यास द्वारा अपनी क्षमताओं को विकसित कर प्रचुर भौतिक एवं आध्यात्मिक उत्कर्ष किया था।

प्रख्यात प्राकृतिक चिकित्साविद् डॉ. हेनरी लिंडर हर ने अपनी पुस्तक “प्रैक्टिस ऑफ नेचुरल थेरोप्युटिक्स”में उपासना की महत्ता बताते हुए लिखा है कि मानवीय मनोभावों को सर्वव्यापी सत्ता किसी देवपुरुष, अदृश्य देवदूत, सिंहपुरुष, महान सद्गुरु यहाँ तक कि लौकिक दृष्टि से किसी प्रेमी के मनोभावों से जोड़कर उनकी विचारणाओं अनुभूतियों को आत्मसात कर न केवल उनकी भावनाएँ समझने की बात स्वीकार की है अपितु यह भी माना है कि इष्ट की भौतिक परमाणु या शारीरिक अनुभूतियाँ भी उस स्थिति में विलक्षण रूप में आकर्षित होती हैं। जब यीशु मसीह क्रास पर कील से ठोके गये थे, उस समय सेन्ट कैथराइन अपने शरीर के विभिन्न स्थलों में वैसी ही पीड़ा अनुभव करती थीं। यह उपास्य से उपासक के गहरे तादात्म्य का ही परिणाम है। न केवल चेतन परमाणु अपितु जड़, पिण्ड और वह भी काल ब्रह्माण्ड की सीमा के परे इस तादात्म्य में जोड़े जा सकते हैं और भूत, भविष्य की घटनाओं की जानकारी ली जा सकती है।

गायत्री उपासना में तल्लीन साधक पर किये गये कुछ वैज्ञानिक अनुसंधान भी इन तथ्यों का आश्चर्यजनक प्रतिपादन करते हैं। उपासना की तल्लीनता के साथ कुछ शारीरिक परिवर्तन होते हैं। उपासना की अवस्था में कम आक्सीजन में भी शरीर का काम चलता है। हृदय व नाड़ियों की गति मंद पड़ने से रक्त विकार कम होते हैं। शयनकाल के बाद शरीर में जो ताजगी आती है वह उपासना काल में ही उपलब्ध होती है।

प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ में “उत्सर्जन” की क्रिया अनिवार्य है। हमारे शरीर में भी विकरण क्रिया चलती और उससे शक्ति क्षरण होता है, किंतु उपासना की अवस्था में विकीर्ण होने वाली तरंगें अपना गुण बदल देती हैं और वे शरीर के विष शोधन एवं नई संरचना में जुट जाती है। गायत्री का देवता सविता अर्थात् गायत्री उपासना के समय सूर्य के ध्यान की व्यवस्था है। उसका अर्थ है सूर्य की अदृश्य शक्तियों-किरणों को उपरोक्त वैज्ञानिक सिद्धाँतों के आधार पर शरीर में धारण करना और उसके आत्मिक व वैज्ञानिक लाभों से लाभान्वित होना। हमारी प्रगाढ़तम, उपासना हमारी मनश्चेतना को ‘सूर्य’ बना देती हैं। उस शक्ति, सामर्थ्य और अनुभूति की कल्पना की जा सके तो सहज ही अनुभव किया जा सकता है कि गायत्री सिद्धि के क्या चमत्कार हो सकते हैं?

असंतोष, उदासी, व्यथा, तनाव, निराशा, विषाद आदि ऋणात्मक दबाव से पिट्यूटरी ग्रंथि से जो हार्मोन्स निकलते हैं उनमें एक है- एस॰ टी॰ एच॰ हार्मोन्स। यह शरीर को सीधे प्रभावित करते हैं। इनकी अधिकता से शरीर में व्यग्रता, अधीरता, बेचैनी बढ़ती है एवं आतों में जख्म हो जाता है और पाचन संबंधी अनेक रोग घेर लेते हैं। किंतु उपासना करते समय गहरे ध्यान की अवस्था में मटर के दाने जैसी ‘पिट्यूटरी’ नामक ग्रंथि से बारह प्रकार के ‘हार्मोन्स’ स्रावित होते हैं जो मिल−जुलकर शरीर को स्वस्थ संतुलित रखने हेतु सक्रिय होते हैं।

उच्च रक्तचाप नियंत्रण के लिए मुख्यतः केसरपाइन, स्मेलिन, इंडेरेल आदि औषधियाँ दी जाती हैं। इनके प्रभाव से धमनियों की दीवारों में मुलाइमी आती है और अकड़न के कारण जो अतिरिक्त दबाव पड़ रहा था वह घट जाता है। किंतु यह निदान स्थायी नहीं है। उपासना एवं ध्यान में निमग्न साधक का परीक्षण करने पर पाया गया कि रक्तचाप को नियंत्रित करने में उपासना-साधना महत्वपूर्ण भूमिका संपन्न करती है।

संवेदना और भावनाओं में आने वाली उत्तेजना के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होने वाले तनाव में पिट्यूटरी तथा ऐड्रिनल ग्रंथियों द्वारा सोमोटो ट्रिफिक हार्मोन्स तथा डेसोक्साइकोर्टि कोस्टेरोन नामक हार्मोन्स निःसृत होते हैं। फलतः तनाव के कारण सरदर्द, उच्च रक्तचाप, रुमेटिक अर्थराइटिस, पेप्टिक अल्सर, कोलाइसिस गेस्ट्रिक अल्सर, हृदयरोग, तथा अन्य कितने ही विकार उत्पन्न होते हैं किंतु मानसिक जप, उपासना एवं ध्यान की अवस्था में इन रस स्रावों का बनना पूर्णतः बंद हो जाता है। जिससे साधक स्वस्थ अनुभव करता है। महिलायें स्वभावतः धार्मिक प्रवृत्ति की होने के कारण उनमें यह रोग कम ही पाया जाता है।

इन्स्टीट्यूट ऑफ लिविंग, हार्ट फोर्ड के निर्देशक डॉ. वर्नाड सी॰ ग्लू॰ ने भी उपासकों एवं ध्यान-साधकों का गंभीरता पूर्वक परीक्षण किया है। एक ओर उन्होंने शरीर मन में उत्पन्न होने वाले सभी तनावों को शाँत करने वाले सारे उपायों का परीक्षण कर देखा तो दूसरी ओर कुछ रोगियों को ध्यान का अभ्यास किया। इन दोनों प्रकार के प्रयोगों में उन्होंने तनाव मुक्ति और निरापद शाँति के लिए ध्यान को ही सबसे अधिक कारगर तरीका पाया। उपासना करने वालों में त्वचा की विद्युत रोथकता दूसरों की अपेक्षा ज्यादा विद्यमान रहती है। यही नहीं उनकी तरंगों की आकृतियाँ भी दूसरे लोगों की अपेक्षा सरल होती है।

प्रायः सभी धर्मों ने उपासना पद्धति को अपनाया है। भारतीय धर्म में गायत्री उपासना, ईसाई धर्म में’ होर्सचाज्म’ यहूदी धर्म में ‘कव्यालह’ इस्लाम मत में ‘तसव्युफ’ जापान के जैन धर्म में ‘जानेन’ आदि उपासना विधानों का एक ही अर्थ है। अनन्य और सर्वभाव से किया गया ईश चिंतन उपासना को प्रभावशाली और फलवती बनाता है। उनसे उत्पन्न हुई धनात्मक शक्ति व्यक्ति के आत्मविश्वास, आत्मगौरव और आत्मबल को बढ़ाती है। इसके साथ यदि गायत्री महामंत्र का जप एवं सविता देवता का ध्यान जुड़ जाय तो अनेकानेक आधि-व्याधियों से सहज ही मुक्ति मिल सकती है।


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