हम अपने भीतर झाँकना सीखें

January 1995

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व्यक्ति दूसरों के विषय में अधिकाधिक जानने का प्रयास करें अथवा उनकी भावनाओं से परिचित होना चाहे उससे पहले अपने विषय में अधिकाधिक जान लेना चाहिए। अपने मन की भाषा को, अपनी आकाँक्षाओं-भावनाओं को बहुत स्पष्ट रूप से समझा, सुना और परखा जा सकता है। अपने बारे में जानकर अपनी सेवा करना आत्म सुधार करना अधिक सरल है, बनिस्बत इसके कि हम और सुधार कर लेंगे, यह संसार हमें उतना ही सुधरा हुआ परिलक्षित होने लगेगा।

हम दर्पण में अपना मुख देखते हैं एवं चेहरे की मलिनता को प्रयत्नपूर्वक साफ कर उसे सुँदर बना डालते हैं। मुख उज्ज्वल साफ और अधिक सुँदर निकल आता है। मन की प्रसन्नता बढ़ जाती है। अंतःकरण भी एक मुख है। उसे चेतना के दर्पण में देखने और उसे भलीभाँति परखने से उसकी मलिनताएँ भी दिखाई देने लगती हैं, साथ ही सौंदर्य भी। कमियों को दूर करना मलिनता को मिटाना और आत्म निरीक्षण द्वारा पर्त दर पर्त गंदगी को हटाकर आत्मा के अनंत सौंदर्य को प्रकट ही सच्ची उपासना है। जब सारी मलिनताएँ निकल जाती हैं तो आत्मा का उज्ज्वल, साफ और सुँदर स्वरूप परिलक्षित होने लगता है। फिर बहिरंग में सभी कुछ अच्छा-सत्, चित्, आनंदमय नजर आने लगता है।

हमें अपने आपसे प्रश्न करना चाहिए कि क्या हमारे विचार गंदे हैं? कामुकता के चिंतन में हमारा मन रस लेता है, क्या हमें इन्द्रियजन्य वासनाओं से मोह है, क्या हम उस परमसत्ता के हमारे बीच होते हुए भी भयभीत हैं? यदि इस प्रश्न का उत्तर हाँ है तो हमें अपने सुधार में जुट जाना चाहिए। वस्तुतः अपना सुधार ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है। जिस दिन हमें अपने ऊपर के प्रश्नों का उत्तर नहीं मिलने लगेगा, उस दिन से हम संसार के सबसे सुखी व्यक्ति बन जायेंगे।


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