एक बहुत सुँदर वधू ने पति को पूरह वशवर्ती कर लिया। घर में बहुत बूढ़ा बाप था। खाँसता और असमर्थ होने के कारण तरह-तरह की माँगे करता। वधू ने पति से हठ किया कि या तो इस बूढ़े को हटाओ, नहीं तो मैं नैहर चली जाऊँगी और फिर कभी नहीं आऊँगी। पति को वधू के सामने झुकना पड़ा। वह ऊँटों पर माल ढोने का काम करता था। सो एक दिन पिता को नदी पर पर्व स्नान के लिए चलने को तैयार कर लिया। साथ ले गया और रास्ते में मारकर उसे झाड़ी के नीचे गाड़ दिया। दिन गुजरने लगे। पुत्र जन्मा, बड़ा हुआ। उसकी भी सुँदर-सी वधू आई। बाप बूढ़ा और अशक्त हुआ। घटना क्रम पुराना ही दुहराया गया। बूढ़े को हटा देने का निराकरण भी उसी प्रकार हुआ। ऊँट पर बैठाकर पर्व स्नान के बहाने ले जाया गया और मार कर उसी झाड़ी में गाड़ दिया गया, जिसके नीचे बाप गड़ा था। इस लड़के का भी लड़का हुआ। उसके भी सुँदर वधू आई। बुढ़ापा, अशक्तता और खाँसी का दौर चला और नववधू द्वारा उसे भी हटा देने का पुराना प्रस्ताव सामने आया। लड़के ने बाप को ऊँट पर बैठा कर पर्व स्नान के लिए सहमत कर लिया। संयोगवश उसे भी मारने और गाड़ने के लिए वही झाड़ी उपयुक्त पाई गई। बेटा छुरा निकालने वाला था कि बाप ने उसे रोका और कहा यहाँ दो गड्ढे खोद कर देखो। दोनों में दो अस्थिपंजर पाये गये, जो बूढ़े बाप और बाबा के थे। उनका दुःखद अंत भी वधुओं के आग्रह पर किया था। बुड्ढे ने कहा-मुझे मारने पर तो इसी परंपरा के अनुसार तेरी भी दुर्गति होगी। इसलिए इस प्रचलन को तोड़ना ही उपयुक्त है। मैं स्वयं कहीं चला जाता हूँ। तू बिना मारे ही लौट जा। वधू से मार दिये जाने की बात कह देना। बेटे की आँख खुल गयी और वह पिता को वापस घर ले आया। उनकी सेवा करने लगा। वधू को कह दिया कि उसे जो भी करना हो, करे। वह पिता को पीठ न देगा। उफान शाँत हो गया। पत्नी भी न गई। बूढ़ा भी बच गया और परंपरा भी टूटी। जो चलती रहती तो अनेक पीढ़ियों तक इसी प्रकार बूढ़े बापों का वध होता रहता। आज अनेकों परिवार ऐसी ही दुर्गति की स्थिति में हैं। दो पीढ़ियों में पारस्परिक टकराव होता देखा जाता है। समझ-बूझ कर काम लिया जाय, तो आश्रम व्यवस्था के माध्यम से विग्रह टाले जा सकते हैं।