एक सेठ का पूर्व पुण्य समाप्त हो गया। नया उनने अर्जित नहीं किया। लक्ष्मी जी पुण्य के फल से आती हैं और उसके समाप्त होने पर चली जाती हैं। सो उनने अपने चले जाने की बात स्वप्न में बता दी। सेठ के अनुनय विनय करने पर भी वे रुकीं नहीं। हाँ, इतना भर कह दिया कि मुझे रोको मत, पर कोई और वर माँग लो। सेठ जी ने माँगा मेरा परिवार सहयोगपूर्वक रहे, पराक्रमी और संयमी बना रहे, इतना और देती जाइये। लक्ष्मी ने प्रसन्नतापूर्वक वर दे दिया। वे लोग गरीबी में भी अधिक सद्भाव और अधिक परिश्रम अपनाकर रहने लगे।
कुछ समय बाद लक्ष्मी जी फिर लौट आई सेठ ने कारण पूछा-तो उनने कहा-पारस्परिक सद्भाव और पराक्रम, पुरुषार्थ भी पुण्य में ही गिना जाता है। वह जहाँ रहेगा, वहाँ फिर जाने न पावें-ऐसा आचरण प्रयत्नपूर्वक बनाकर रखने लगा।
यह तथ्य हर परिवार पर लागू होता है। जहाँ भी आत्मीयता के संबंध प्रगाढ़ होंगे, सुव्यवस्था एवं विवेकशीलता संव्याप्त होगी, वहाँ अभाव कभी रह नहीं सकता।
सतयुगी समाज इसी कारण समृद्ध संपन्न था।