पंचनंद की प्रजा में कलह, अव्यवस्था, अनुशासनहीनता देखकर सम्राट बहुत दुखी हुए। उन्होंने आचार्य देवधर को कुरु जाने और वहाँ की प्रजा के जीवन का अध्ययन करके आने को कहा, ताकि वह व्यवस्थाएँ अपने यहाँ भी लागू की जा सकें और प्रजा को सुखी बनाया जा सके।
आचार्य देवधर कुरु देश के राजपुरोहित सुनन्द पंडित के पास गए। पंडित सुनन्द ने कहा-”तात! राज्य का राजस्व विभाग मैं सँभालता हूँ। एक बार एक कृषक को जमीन नाप रहा था। नापते समय बीच में गड्ढा आ गया। उसमें एक छोटा-सा प्राणी बैठा था। मेरे सामने एक समस्या आ गई यदि मापदंड गड्ढे में रखता तो जीव हिंसा होती, यदि दंड को गड्ढे से आगे बढ़ाकर रखता तो एक किसान को जमीन कम मिलती। असमंजस में पड़ा था तभी वह जीव गड्ढे के एक बिल में घुस गया। मैंने मापक दंड टेक दिया। इतने में जीव की चिचियाहट सुनाई पड़ी। कह नहीं सकता उसने अकारण आवाज की या मुझसे हिंसा हुई, तब से मन विक्षुब्ध रहता है। आप मेरे सारथी के चले जाइए। वह दया, धर्म का भली प्रकार पालन करता है। सच्चा उपदेश देने का अधिकारी वही है।”
आचार्य सारथी के पास गए और अपनी वही प्रार्थना दुहराई। आचार्य की पूरी बात सुन लेने के बाद सारथी ने बताया, आर्य। मैंने एक बार वर्षा के बचाव के लिए अपने घोड़ों को चाबुक दिख दी, घोड़े डर कर तेज दौड़ने लगे। पर मुझे लगता है कि उस दिन मेरा दया बरतने का शील नष्ट हो गया। आप सेठ सारिपुत्र के पास चले जाइए। वह आपका काम अवश्य कर देंगे।
विचारों में खोए हुए आचार्य श्रेष्ठी सारिपुत्र के पास पहुँचे। प्रणाम अभिवादन के अनंतर सारिपुत्र ने बताया आर्यश्रेष्ठ! मैं वणिक व्यापार करता हूँ एक बार मैंने एक किसान से धन मोल लिए। धान महाराज के सुरक्षित अन्न भंडार के लिए खरीदे गए थे।
खरीदते समय एक ऐसी ढेरी आ गई जो तौली जा चुकी थी। पर मुझे यह स्मरण नहीं रहा कि यह राजा के हिस्से की है या कृषक के हिस्से की। मुझे वापस घर लौटने की जल्दी थी सो उसे राजा के हिस्से में मिलवा दिया। लगता है इससे मेरी वणिक नीति अपराधी हो गई। अब आप ही बताइए कि मैं किस प्रकार धर्मोपदेश कर सकता हूँ। अच्छा हो आप द्वारपाल पुण्यपाल के पास चले जाएँ। वे ही आपको धर्म का मर्म समझा सकने योग्य हैं।
अपनी उलझी पहेली को लिए देवधर-पुण्यपाल के पास गए। द्वारपाल ने बताया-श्रीमान जी मैं दुर्ग का रक्षक हूँ। एक दिन जब कोटद्वार बंद करने का समय हुआ, तब मैंने एक पुरुष को किसी सुँदरी युवती के साथ कुछ विलंब से आते देखा। पास आने पर मैंने उसे डाँटा, तुम इतने समय तक रस-विहार करते हो, समय अंदर क्यों नहीं आते। लेकिन जब मुझे मालूम पड़ा कि युवती आगन्तुक की बहिन थी और वह अपनी ससुराल से आ रही थी, तो मुझे बड़ा पश्चाताप हुआ। दृष्टिदोष के कारण मैं अपने क्षात्र धर्म से च्युत हो गया हूँ। आप उत्पलवर्णा वेश्या के पास जाइए। वह आपको उपदेश देगी।
आचार्य उत्पलवर्णा के पास गए और अपना मंतव्य उसे कह सुनाया। उत्पल बोली-आचार्य श्रेष्ठ! एक बाँम राजकुमार चंद्रसेन मेरे पास आए। मैंने उन्हें वचन दिया कि मैं अपना शरीर केवल तुम्हें ही समर्पित करूंगी। वे बोले मैं बाहर जा रहा हूँ तीन वर्ष मेरी प्रतीक्षा करना। यदि न आऊँ तो तुम किसी भी पुरुष का वरण करने को स्वतंत्र होओगी। तीन वर्ष के पश्चात् भी वे न आए तो मैंने न्यायाधीश से आज्ञा प्राप्त कर पेट पालन के लिए दूसरे पुरुष का आश्रय लेने का निश्चय किया मैं एक व्यक्ति से अभी बातें कर ही रही थी कि चंद्रसेन आ गए। मैं तब से अपने को अपराधिनी पाती हूँ बताइए कैसे उपदेश करूं।
आचार्य देवधर को धर्म का मर्म ज्ञात हो गया। उन्होंने विचार किया-पंचशील में धर्म का सार निहित हैं जिस देश की प्रजा पंचशील का तत्परतापूर्वक पालन करती है, वह सुखी रहता है। यह निश्चय कर वह पंचनंद लौट आए और वहाँ पंचशील का उपदेश करने लगे। जिससे वहाँ की प्रजा ने अपना खोया सुख वापस पाया। पंचशील-अर्थात् अहिंसा, दया, न्याय, सुदृष्टि और सच्चरित्रता।