संसार में दो तरह के लोग हैं। एक शब्दों में, कल्पना और दर्शन में जीने वाले दूसरे यथार्थ में, सत्य और तथ्य में जीने वाले। शब्दों में आकर्षण तो होता है, पर वैसा ही, जैसा रेगिस्तानी मरीचिका में। इसके विपरीत तथ्य कटु सत्य होते हुए भी हमें अंगीकार करने पड़ते हैं। उन्हें स्वीकारे बिना, अपनाये बिना हम शब्दों के जाल-जंजाल में ही उलझे रहते हैं और हमारी प्रगति दिवास्वप्न बन कर रह जाती है।
पश्चिमी दुनिया ने तथ्यों में जीना सीखा है, इसलिए वहाँ विज्ञान विकसित होता चला गया और समाज की उन्नति होती चली गई भारत ने शब्दों को महत्व दिया, इस कारण वह उस मकड़जाले में फंस गया। यहाँ दर्शन तो पैदा हुआ, पर विज्ञान जन्म न ले सका, वैज्ञानिक बुद्धि विकसित न हो सकी। फलस्वरूप जिस भारत को आज पश्चिमी देशों जैसी उन्नति की उच्च श्रेणी में होना चाहिए था, वह पिछड़ गया और शायद यह पिछड़ापन तब तक जाने वाला नहीं, जब तक वह दार्शनिक बुद्धि को त्याग कर वैज्ञानिक बुद्धि न विकसित कर ले और उसे अपना न ले, क्योंकि समाज और राष्ट्र का विकास केवल कल्पना जगत में खोये रहने से नहीं हो सकता। जिंदगी तथ्यों से बदलती है, उन्हें समझ कर अपना लेने से बदलती है, सिर्फ शब्दों से नहीं यदि शब्दों से बदल सकी होती, तो कदाचित् अपना देश इस दिशा में सर्वोपरि सिद्ध होता और विश्व में सभी राष्ट्रों से अग्रणी पाया जाता, क्योंकि शब्दों का वाक्जाल और दर्शन का मायाजाल इस देश में जितना ज्यादा है, उतना शायद किसी दूसरे देश में नहीं। यह भारतीय दर्शन की ही विशेषता है, जो जगत को मिथ्या-धोखा बताता और ब्रह्म को सत्य कहता है। दुनिया के किसी और देश में ऐसी कोई फिलॉसफी नहीं, जिसमें संसार को झूठा घोषित किया गया हो। इसे अपने देश का सौभाग्य ही कहना चाहिए, जिसने इतनी ऊँची फिलॉसफी संसार को दी, पर दुर्भाग्य की शुरुआत वहाँ से आरंभ हुई जब हम तथ्यों की जगह मात्र शब्दों को पकड़ने लगे-वास्तविकता के स्थान पर आडंबरों में जीने लगे। यदि ऐसी बात नहीं होती, तो ब्रह्म-प्राप्ति के नाम पर व्यक्ति वैसा कुछ प्रयास और पुरुषार्थ करते पाये जाते, पर देखा जाता है कि वैराग्य के नाम पर वे सर्वथा अकर्मण्य बन जीते हैं। भला इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है। दर्शन ऐसी मिथ्या बातें नहीं बताता और न पतन की राह पर चलने की प्रेरणा देता है। यदि वह संसार को ‘माया’ कहता है तो इसका यही अर्थ हो सकता है कि इस अनित्य संसार में नित्य ब्रह्म का प्रकाश समाज रूपी उसका मूर्तिमान स्वरूप ही है। पूजा-उपासना, सेवा-साधना इसी की होनी चाहिए, पर साथ ही ध्यान इस बात का भी रखा जाना चाहिए क भोग-विलास में डूब कर मूल प्रयोजन को ही हम भूल न जायें। त्यागपूर्वक रहते हुए विराट् ब्रह्म की सेवा करें और अंततः उसे प्राप्त कर जीवन-मुक्तों जैसा आनंद लाभ करें। मिथ्या के रूप में संसार का यही तात्पर्य हो सकता है, पर जहाँ मूल को छोड़ कर पत्र-पल्लवों जैसे बाह्य अवयवों में उलझा जायेगा, वहाँ इससे पलायनवाद को ही प्रश्रय मिलेगा। इसमें दोष दर्शन का नहीं, उस बुद्धि का है, जो अपने अंदर सत्य को समझने वाला विज्ञान पैदा न कर सकी और शब्दों में उलझ कर यथार्थ से दूर हटती गई।
जब यह कहा जाता है कि ब्रह्मचर्य युक्त जीवन द्वारा ही ईश्वर-प्रगति संभव है, तो फिर यहाँ व्यक्ति आडंबर में फंस जाता है। वास्तव में ब्रह्मचर्य एक व्यापक शब्द है, जिसका अर्थ ज्ञान, परमात्मा और इन्द्रिय संयम है, पर इसके इस व्यापक स्वरूप को न समझ कर हम इसके इन्द्रिय संयम वाले एकाँगी पक्ष पर ध्यान देने लगते हैं। इन्द्रिय संयम भी ऐसा, जिसमें मात्र स्पर्शेन्द्रिय का ही संयम हो। ब्रह्मचर्य मात्र इतना ही नहीं है। संपूर्ण ज्ञानेन्द्रियों का संयम और इससे आगे विकल्प-संयम भी इसके अंतर्गत के विषय हैं, पर हमारी धारणा स्पर्श के निरोध में ही ब्रह्मचर्य की इतिश्री मानने लगती है और जो यह दिखावा कर लेता है, उसे ब्रह्मचारी कहा जाने लगता है, भले ही वह कानों से कितने ही भद्दे शब्द सुने, आँखों से अश्लील दृश्य देखने में तन्मय रहे-वह ब्रह्मचारी कहलायेगा। नहीं, ऐसा नहीं है। एक को टाल कर दूसरे को संभाल सकना असंभव है। सब इन्द्रियाँ परस्पर जुड़ी हैं। ऐसे में यदि शब्द का, चक्षु का संयम नहीं है, तो स्पर्श का संयम भी नहीं सध सकता। ये सारे उद्दीपन हैं। रस उद्दीपन से पैदा होते हैं। जब उसके स्थायी और संचारी भाव सब सक्रिय हों, फिर उसे रोकना चाहें, तो यह शक्य नहीं। इसके लिए संपूर्ण इन्द्रियों का नियमन आवश्यक है। इतना बन पड़ने के बाद चिंतन, स्मृति के रूप में मानसिक संयम अपनाना पड़ता है। इसके उपराँत उस भूमिका में पहुँच सकना संभव है, जिसमें ब्रह्म-प्राप्ति शक्य हो सके। इतना सब संपन्न कर लेने के पश्चात् ही कोई ब्रह्मचारी कहलाने का वास्तविक अधिकारी बन सकता है, इससे कम में नहीं। इस मर्म को नहीं समझ पाने के कारण ही लोग शब्दों के जाल में उलझ कर भटक जाते और यथार्थ से वंचित रह जाते हैं।
दर्शन जीवन का एक पक्ष है, तो विज्ञान उसका दूसरा पहलू। दर्शन को समझने के लिए वैज्ञानिक सोच निताँत आवश्यक है। यदि यह नहीं हुई, तो जीवन भर भटकाव ही बना रहता है और इसी में जिंदगी बरबाद हो जाती है। हम शब्दों के उलझाव में न उलझें, उसके पीछे सत्य को समझें, तभी कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धि समझें, तभी कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धि की आशा की जा सकती है, अन्यथा नहीं।