सृष्टि की उत्पत्ति विद्युत से हुई या नाद से?

January 1995

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

वृक्ष का मूल बीज है, तो जीवधारियों के संदर्भ में सृजन की भूमिका रज-वीर्य की मानी गई है। चिंगारी में जहाँ विशाल दावानल प्रच्छन्न होता है, वहीं धन एवं ऋण धाराओं के संयोग से विद्युत की उत्पत्ति कोई छिपा तथ्य नहीं। आत्मा परमात्मा की अंशधर है, उसी से प्रकट होकर अंततः उसी में विलीन हो जाती है, इसे भी सब जानते हैं। जहाँ बिंब होगा, वहाँ वस्तु का होना भी अनिवार्य हैं इस दृष्टि से सृष्टि का उद्गम बिंदु भी कोई-न-कोई होना चाहिए।

यहाँ विज्ञान और अध्यात्म में तनिक मतभेद है। विज्ञानवेत्ताओं का कहना है कि सृष्टि की अंतिम इकाई ‘विद्युत’ है, जबकि अध्यात्म के पक्षधर मनीषियों का मानना है कि यह इकाई विद्युत न होकर ‘ध्वनि’ है। उल्लेखनीय है कि भौतिकशास्त्र पदार्थगत है, जबकि अध्यात्मशास्त्र चेतनागत। भौतिक विज्ञानियों ने अंतिम अथवा मूल इकाई के संबंध में जब अपना निर्णय प्रस्तुत किया, तो उनका आधार पदार्थपरक अध्ययन था। अध्यात्म-वेत्ताओं ने चेतना की गहराई में उतरकर मूल इकाई की खोज की, तो उन्होंने उसे ध्वनि के रूप में पाया। यों दोनों के निष्कर्ष अपने-अपने स्थान पर एक प्रकार से ठीक हैं। विज्ञानवादी यदि विद्युत को मूल इकाई मानते हैं, तो वह इसलिए सही है कि उनका अनुसंधान पदार्थगत जगत में हुआ है। पदार्थ सत्ता की मूल इकाई विद्युत ही हो सकती है, इसलिए यह अवधारणा सत्य है मिथ्या इस कारण है कि पदार्थ के मूल में चेतना काम करती है, अतएव विद्युत को अंतिम इकाई नहीं माना जा सकता। यहाँ कोई पदार्थवादी दृष्टिकोण रखने वाला यह कह सकता है कि विद्युत और ध्वनि प्रायः एक ही ऊर्जा के दो रूप हैं। उनका पारस्परिक रूपांतरण होता रहता है, अतः वे अभिन्न हैं, किंतु इस प्रकार की विचारधारा रखने वालों को यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि अध्यात्मवाद में जिस नाद से सृष्टि का उद्भव होना माना गया है, वह प्रचलित ध्वनि से भिन्न है। ज्ञातव्य है कि भौतिक जगत में ध्वनि की उत्पत्ति पदार्थों के पारस्परिक टकराव या घर्षण का परिणाम है। इसे ‘आहत’ नाद या ध्वनि कहते हैं, जबकि चेतना जगत की ध्वनि ‘अनाहत’ होती है। यह किसी रगड़ या टकराहट की परिणति नहीं, वरन् स्वतः स्फूर्त है, इसलिए इसे अनाहत या अनहद नाद कहते हैं। इसकी विशेषता यह है कि यह सार्वकालिक, सार्वदेशिक एवं शाश्वत है। इसीसे अनंत विश्व की सृष्टि होती है और सृष्टि विश्व के अंतर में यह नाद ही प्राण या जीवनी-शक्ति के रूप में निहित रहता है। प्राणियों के हृदय में यही स्पंदित होता रहता है। यह इंद्रियगम्य नहीं, फलतः इसे कानों से नहीं सुना जा सकता। ध्यानावस्था में जाकर इसकी अनुभूति की जा सकती है। अंतराल में जितना गहरा उतरा जायेगा, नाद भी तदनुरूप सूक्ष्म होता जाता है। अंततः एक ऐसी अवस्था आती है, जब सभी प्रकार की ध्वनियों का लोप होकर मात्र शून्य रह जाता है। तत्ववेत्ताओं के अनुसार यह शून्य भी ठीक नहीं। यहाँ भी एक नाद होता रहता है। इसे ही आत्मवेत्ता ‘अनहद नाद’ के नाम से पुकारते हैं। अनहद नाद का तात्पर्य है उस शून्य की नीरवता की अंतिम पकड़। मानव चेतना में अंतिम वस्तु, निराकार में अवस्थान करने के पूर्व की यह अनहद ध्वनि ही है। इसीलिए तत्वदर्शियों ने एकमात्र ध्वनि को ही अंतिम तत्व के रूप में स्वीकार किया है। उनके अनुसार चेतना जगत का आखिरी तत्व ध्वनि के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता।

इस विवेचना के उपराँत ध्वनि और नाद के बीच का अंतर स्पष्ट हो जाता है। ध्वनि भौतिक है, जबकि नाद आत्मिक है। यह उस ध्वनि से पूर्णतः भिन्न है, जो पदार्थ जगत में आये दिन हम सुनते रहते हैं। जब दोनों में इतना फर्क है, तो दोनों के मध्य रूपांतरण भी संभव नहीं। हाँ, भौतिक ध्वनि और विद्युत निष्चच ही एक ही ऊर्जा के दो रूप हैं, उनका एक-से-दूसरे रूप में परिवर्तन होता रहता है। आवश्यकता पड़ने पर ध्वनि विद्युत में बदल सकती है। इसी प्रकार विद्युत भी मौका आने पर ध्वनि में रूपांतरित हो जाती है, किंतु उसका नाद में परिवर्तन संभव नहीं, कारण कि इनमें से एक की प्रवृत्ति भौतिक और दूसरे की अभौतिक है। एक का संबंध अपरा प्रकृति से है, तो दूसरे का परा प्रकृति से। एक का स्वरूप व्यक्त है, तो दूसरा अव्यक्त स्तर वाला है, पर यह सच है कि अव्यक्त स्तर तक पहुँचने के लिए व्यक्त माध्यम का ही सहारा लेना पड़ता है। यही कारण है कि अध्यात्म क्षेत्र में कीर्तन, भजन, संगीत प्रार्थना, मंत्र, जप आदि बहुत महत्वपूर्ण माने गये हैं। यह स्थूल ध्वनियाँ ही हमें सूक्ष्म नाद तक पहुँचा पाने में समर्थ होती हैं, इसलिए अध्यात्म पथ के पथिकों को यात्रा की शुरुआत यहीं से करनी पड़ती है। सफर जहाँ समाप्त होता है, वह भूमिका भी ध्वनि की ही है, अंतर मात्र इतना है कि वहाँ ध्वनि नाद का रूप ग्रहण कर लेती है। इस प्रकार ध्वनि से यात्रा आरंभ होकर फिर ध्वनि में ही समाप्त होती है। अंतर्यात्रा का यह अंतिम बिंदु और आखिरी सोपान है। इसे ‘शब्द-ब्रह्म’ कहा गया है। यह ध्वनि लोक-लोकाँतरों में सर्वत्र गुँजायमान है। यही सृष्टि का आदि केन्द्र है, किंतु हृदय स्थिति इस बिंदु तक पहुँचने के लिए साधनात्मक प्रवृत्तियों एवं मंत्र-जप और भजन-कीर्तन संबंधी उपासनात्मक उपचारों का लंबे काल तक आश्रय लेना पड़ता है। कारण कि चेतना और मन को प्रभावित करने की जितनी सामर्थ्य शब्द और संकल्प में है उतना सरल और समर्थ उपाय शायद और कोई नहीं। मंत्र ध्वनि के बार-बार के आघात से चेतना-केन्द्र परिष्कृत होने लगते हैं और मन विगलित होकर विकसित होता जाता है। फिर एक शून्य जैसी स्थिति पैदा होती है। इसीसे नाद का स्फुरण होता है। यह नाद पवित्र आकार है। जप के मध्य जब इसका उच्चारण करते हैं, तो जिस ओम् की ध्वनि होती है, वह वास्तविक उद्गीथ नहीं है, क्योंकि इस प्रक्रिया में उसका उच्चारण कर्ता द्वारा संपन्न होता है। हम मुँह बंद कर लें, होंठों को न हिलायें, जीभ बिल्कुल निश्चल रहे और अंदर ही अंदर उच्चारण करें, तो यह भी वास्तविक उच्चारण नहीं होगा। इन दोनों ही प्रकारों में इसका एक निमित्त विद्यमान होता है, अतएव ऐसी दशा में जिस ॐ का ज्ञान होगा, वह वास्तविक न होकर अवास्तविक और कृत्रिम होगा, क्योंकि मानसिक स्तर के उच्चारण में भले ही हमारी बाह्य क्रियाएं और चेष्टाएं निष्क्रिय स्तर की बनी रहें, तो इस पर भी मांसपेशियों का स्पंदन तो बना ही रहता है। जब बाहर की तरह भीतर मन में भी कोई प्रयास न हो, तो एक ऐसी ध्वनि सुनायी पड़ेगी, जो अनायास उत्पन्न हो रही होगी, हम उसके कर्ता न होंगे, मात्र साक्षी होंगे। यही जगत का आदि उद्गम है। यह आँतरिक जगत का अनुसंधान हुआ।

विज्ञान चूँकि बाह्य जगत को सर्वोपरि और महत्वपूर्ण मानता है, इसलिए उसकी शोध पदार्थ सत्ता को लेकर प्रारंभ हुई। इस क्रम में जिन विद्युतीय कणों की खोज हुई, वह विज्ञान की ससीमता की दृष्टि से अंतिम इकाई हो सकती है, किंतु सूक्ष्मता की दृष्टि से विचार करने पर यह अभिमत निरस्त हो जाता है। विद्युत निश्चय ही सूक्ष्म है, पर उतना नहीं, जिसे अंतिम कहा जा सके। उसे पदार्थ और चेतना की मध्यवर्ती कड़ी के रूप में मान्यता मिल सकती है। पदार्थ की श्रेणी में उसे इसलिए नहीं रखा जा सकता, क्योंकि वह सूक्ष्म है और चेतना स्तर की वह इस कारण नहीं मानी जा सकती, क्योंकि द्रव्य जैसी उसकी अनुभूति होती है। विवेकानंद ने ‘राजयोग’ में कहा है कि संसार में जितनी भौतिक शक्तियाँ हैं, वह सब प्राण से उद्भूत है। जिस प्रकार चेतना की अभिव्यक्ति प्राणी और पदार्थ के कलेवर रूप में इस संसार में हुई है, उसी प्रकार प्राण का व्यक्त रूप विद्युत है। जैसे शरीर के भीतर की खोज द्वारा हम चेतना जगत में पहुँच जाते हैं, वैसे ही यदि पदार्थ की विद्युत इकाइयों के अंतराल में उतर कर यात्रा प्रारंभ की जाय, तो उसके मूल स्रोत प्राण तक पहुँच पाना असंभव भी नहीं। यदि विज्ञान की किन्हीं खोजों द्वारा ऐसा कर पाना शक्य हुआ, तो फिर प्राण-चेतना के गर्भ-गह्वर में उतर पाना भी कोई कठिन नहीं रह जायेगा। यदि भविष्य में ऐसा न हो सका, तो उस नाद को सुन पाना विज्ञान के लिए भी सरल हो जायेगा, जो संपूर्ण आकाश में चाहे वह बाह्य जगत का विस्तृत आकाश हो अथवा प्राणी और पदार्थ के अंदर का पोला स्थान, सर्वत्र संव्याप्त है। यदि ऐसा हुआ, तो विज्ञान और अध्यात्म के मध्य की असहमति देर तक टिकी नहीं रहेगी और दोनों ही इस एक तथ्य को स्वीकार कर सकेंगे कि सृष्टि संरचना के मूल में वह अव्यक्त ‘नाद’ ही सर्वोपरि तत्व है। दोनों के बीच वर्तमान मतभेद का एक ही कारण समझ में आता है कि वर्षों की मेहनत से विज्ञान ने जिस तथ्य को खोजा है, उसे उसने अंतिम मान लिया और आगे की गवेषणा बंद कर दी। ऐसी स्थिति में जो सत्य अधूरा है, उसे संपूर्ण स्वीकार कर लिया गया। भूल यहीं हुई। होना यह चाहिए था कि अनंत संभावनाओं को देखते हुए शोध जारी रखनी और मूल तत्व को पहुँचने की कोशिश करनी चाहिए थी, क्योंकि भारतीय दर्शन इसको आरंभ से स्वीकारता रहा है कि पदार्थ का जो अंतिम अणु है, वह अप्रकट मन है और मन का जो अंतिम अणु है, वह अप्रकट पदार्थ है। इसका मतलब यह हुआ कि पदार्थ और मन अर्थात् चेतना एक-दूसरे से गुँथे हुए हैं। दोनों में ही एक-दूसरे की संभावना पूरी-पूरी विद्यमान है। पदार्थ से यात्रा आरंभ कर मन तक पहुँच पाना संभव है और मन से चलकर पदार्थ के आदि कारण के दर्शन करना भी अशक्य नहीं स्पष्ट है विज्ञान ने अब तक जो रास्ता तय किया है, वह अधूरा ओर एकाँगी है। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए

उसे द्रव्य के मूल में विद्यमान चेतना को भी ध्यान में रखना होगा और अनुसंधान उसका भी करना होगा, तभी उसकी खोज पूरी हो सकेगी। विज्ञानवेत्ताओं ने अभी तक मात्र पदार्थ वाले हिस्से का अन्वेषण किया है, उसका चेतना वाला भाग शेष है। अंतिम निष्कर्ष इस आखिरी भाग के अध्ययन से ही उपलब्ध हो सकेगा। आगे वही होना है।

मतभेद की गुंजाइश वहाँ उत्पन्न होती है, जहाँ दोनों पक्षों का स्तर समान हो। जब एक पक्ष छोटा, अल्पज्ञ और स्थूल दृष्टि वाला और दूसरा विराट् ज्ञान एवं विशाल और सूक्ष्म दृष्टिकोणयुक्त हो, वहाँ असहमति नहीं, अज्ञान आड़े आता है। पदार्थ विज्ञान चूँकि स्थूल जगत का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए उसका ज्ञान वहीं तक परिमित है। अध्यात्म विज्ञान की गति प्रत्यक्ष से परोक्ष जगत में भी है, इसलिए ज्ञान की उसकी सीमा अनंत और अपरिमित है। ऐसी स्थिति में विज्ञान को अपना दुराग्रह त्याग कर उन संभावनाओं पर विचार करना आरंभ कर देना चाहिए, जिसे अध्यात्म अति आरंभ से प्रकट करता आ रहा है। आगामी समय में यदि ऐसा हुआ, तो विज्ञानवादी यह स्पष्ट अनुभव कर सकेंगे कि प्रत्यक्षवाद पर आधारित उनका निष्कर्ष अधूरा ही नहीं, अपंग एवं असमर्थ भी था।

अज्ञानी की गति ज्ञान को अंगीकार कर लेने में है। अध्यात्म के अंगुलिनिर्देश पर विज्ञान यदि चल सका, तो अगले ही दिनों वह इस सत्य को प्रत्यक्ष और प्रमाणित कर सकेगा कि सृष्टि का आदि मूल विद्युत नहीं नाद है, वह नाद, जिसे तत्वेत्ता ‘अनहद नाद’ के नाम से पुकारते।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118