दान (Kahani)

January 1995

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परमार्थ कार्यों में दान देने की वृत्ति भारतवर्ष में सदा से जीवित रही है। इसी आधार पर वानप्रस्थ-परिव्राजकों की ब्राह्मणोचित आजीविका भी चलती थी। कालाँतर में दान के नाम पर वेशधारी बाबाओं ने इस परंपरा को कलंकित कर दिया।

पंडित मदनमोहन मालवीय ने इसमें छाई विकृतियों को मिटाने का प्रयास किया एवं इस सदी के प्रारंभ में कई धनाध्यक्षों के मन में सत्प्रवृत्तियों के लिए उदारता जगाई।

रक्षा-बंधन का पुनीत पर्व था। बीकानेर नरेश का दरबार लगा हुआ था। राजद्वार पर ब्राह्मणों के मध्य मालवीय जी भी नारियल लिए खड़े थे। शनैः शनैः कतार छोटी होती जा रही थी। प्रत्येक ब्राह्मण नरेश के पास जाकर राखी बाँधता और दक्षिणा के रूप में एक रुपया प्राप्त कर खुशी-खुशी घर लौटता जा रहा था।

मालवीय जी का नंबर आया, तो वे भी नरेश के समक्ष पहुँचे, राखी बाँधी, नारियल भेंट किया और संस्कृत में स्वरचित आशीर्वाद दिया। नरेश के मन में इस विद्वान ब्राह्मण का परिचय जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। जब उन्हें मालूम हुआ कि यह तो मालवीय जी हैं, तो वह बहुत प्रसन्न हुए और अपने भाग्य की मन ही मन सराहना करने लगे। मालवीय जी ने विश्वविद्यालय की रसीद बही उनके सामने रख दी। उन्होंने भी तत्काल एक सहस्र मुद्रा लिखकर हस्ताक्षर कर दिये। नरेश अच्छी तरह जानते थे कि मालवीय जी द्वारा संचित किया सारा द्रव्य विश्वविद्यालय के निर्माण कार्यों में ही व्यय होने वाला है।

मालवीय जी ने विश्वविद्यालय की समूची रूपरेखा नरेश के सम्मुख रखी। उस पर सम्भावित व्यय तथा समाज को होने वाला लाभ भी बताया, तो नरेश मुग्ध हो गए और सोचने लगे, इतने बड़े कार्य में एक सहस्र मुद्राओं से क्या होने वाला है, उन्होंने पूर्व लिखित राशि पर दो शून्य और बढ़ा दिए, साथ ही अपने कोषाध्यक्ष को एक लाख मुद्रायें देने का आदेश प्रदान किया।


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