मिथिला के सम्राट चमूपति अपने पुत्र राजकुमार श्रीवत्स की उद्दण्डता से बड़े खिन्न थे। गुरुकुल लौटकर आने के कुछ दिनों तक तो वे ठीक रहे। पुनः स्वभाव उग्र होता चला गया। उनके व्यवहार में कुलीनता कहीं से नहीं टपकती थी। सोचा गया कि संभवतः विवाह से समस्या का हल हो। पर स्थिति यथावत् ही रही।
मन बदलने की इच्छा से महर्षि श्यावाष्च के वाजिमेध यज्ञ का आमंत्रण आने पर वे प्रमुख यजमान के रूप में रवाना हुए। रास्ते में प्रथम विराम उन्होंने जहाँ किया, वह संयोगवश-अरण्यजैत के खूँखार दस्यु नायक का कार्य क्षेत्र था। अर्ध निद्रा की स्थिति में राजा ने सुना-एक नन्हा सो तोता कह रहा था-तात आज बहुत अच्छा शिकार लगा है। महाराज हैं तो क्या हुआ? तुरंत सिर धड़ से अलग करो व एक ही दाँव में जीवन भर का हिसाब-किताब पूरा कर लो “नीति वचन याद कर महाराज ने तुरंत वह स्थान छोड़ दिया। अगले दिन प्रातः वे महर्षि के आश्रम में पहुँचे। उनका स्वागत यहाँ भी पुनः एक शुक की मंगल ध्वनि ने किया। आइए महाराज! आपका इस आश्रम में स्वागत है। आप हमारे आज के मंगल-मूर्ति अतिथि हैं।” आश्चर्य से महाराज ने दृष्टि ऊपर उठाई, तो देखा कि वृक्ष पर बैठा शुक यह कह रहा था। सम्राट बोले-”एक आप एवं एक ऐसे ही शुक का स्वर, जिसने मुझे रात्रि में डरा दिया था। कितना अंतर है, दोनों में। नन्हा शुक बोल उठा महाराज! अरण्यजैत का वह शुक मेरा ही सगा भाई है। उसकी धृष्टता के लिए मैं क्षमा माँगता हूँ। वस्तुतः यह संगति का ही फल है। मेरा भाई दस्युओं में रह कर वैसे ही कुसंस्कार पाता रहा है। मुझे सौभाग्य मिला-महर्षि के इस संस्कार भूत आश्रम में रहने का।” स्वागत करने को आतुर खड़े महर्षि श्यावाश्व महाराज के अंतर्मन को पढ़ते हुए बोल उठे “अब समझ में आया महाराज! आपके राजकुमार जिन धीवर पुत्रों-उद्दंड साथियों के साथ रहते हैं, उनके ही कुसंस्कार उनके व्यवहार में परिलक्षित हो रहे हैं। आप साथी व वातावरण बदल दीजिए। राजकुमार को बदलते देर न लगेगी।”