तुमने ऐसी वेणु बजाई। जाग गई तरुणाई॥1॥
शक्ति सो रही थी बेसुध सी। भूली थी अपनी सुधबुध सी। तुमने ऐसा राग अलापा, धुन सुनकर लहराई। तुमने ऐसी वेणु बजाई॥2॥
तार-तार झंकृत कर डाले। उनके मोहक मंत्र उचारे। स्वर ने ऐसा रस बरसाया, तर कर दी अंगनाई। तुमने ऐसी वेणु बजाई॥3॥
शब्द-शब्द उतरे अंतर में! भाव-भवन के प्रिय प्राँतर में। छलके संवेदन के प्याले, भावुकता अंगड़ाई। तुमने ऐसी वेणु बजाई॥4॥
ताल और स्वर एक हो गये। श्वासों के स्वर टेक हो गये। छेड़ा ऐसा छंद आपने, तन्मयता गहराई। तुमने ऐसी वेणु बजाई॥5॥
स्वर फूटे समवेत स्वरों में। जनमंगल के स्वर अधरों में। चरण चल पड़े साथ तुम्हारे, गति ऐसी बौराई। तुमने ऐसी वेणु बजाई॥6॥
मंगल विजय ‘विजयवर्गीय’