राष्ट्र के आर्थिक-साँस्कृतिक नवजागरण हेतु शाँतिकुँज की अभिनव शिक्षण सत्र योजना

January 1995

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श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर देश की मिट्टी से जुड़े एक ऐसे महाकवि थे जिनकी रचनाओं में “जननी जन्म भूमि” के प्रति श्रद्धा-समर्पण का भाव कूट-कूट कर भरा मिलता है। उनने ही लिखा है-”ओ आमार देषेर माटी, तोमार पाये ठैकाय माथा” (हे मेरे देश की मिट्टी मैं अपना मस्तक तेरे प्रति अवनत कर अपनी भावाँजलि तुझे अर्पित करता हूँ)। जिस देश की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था रही हो, जो अपनी रत्नगर्भा-हरीतिमा की चुनरियों से लदी ऐश्वर्यशीलता के कारण कभी विश्वभर में अग्रणी रहा हो, यदि आज वह अर्थाभाव के कारण निर्धनतम देशों में गिना जाता हो, प्रति व्यक्ति कर्जा जिस पर बढ़ता ही चला जाता हो तो उसकी आज की स्थिति पर एक विडंबना भरी दृष्टि डालने पर तरस भी आता है, आक्रोश भी। आखिर क्यों कर यह स्थिति हुई? हमारी आधुनिकता की होड़ में पीछे रहने के कारण या देश की माटी से जुड़े कार्य क्रमों की उपेक्षा होती रहने के कारण? विद्वज्जन बताते हैं कि भारत भौगोलिक स्थिति के नाते एक विलक्षण अनुदान प्राप्त एकमात्र ऐसा राष्ट्र है जहाँ संसाधनों की कभी-कमी रही नहीं न रहेगी। किंतु इस विशिष्ट स्थिति में होने पर भी यदि वह उसका लाभ न उठा पाया, स्वदेशी के स्थान पर बहुराष्ट्रीयकरण ही इसका होता चला गया, ग्रामीण भारत को जिंदा रखने वाले कुटीर उद्योग समाप्त होते चले गए एवं शहरी सभ्यता के कोढ़ ने कस्बों व ग्रामों पर अपना अधिकार जमा लिया तो इसके लिए और कोई नहीं, हम ही, मात्र हम भारतवासी ही इसके एकमात्र उत्तरदायी हैं। भावीपीढ़ी को उत्तराधिकार में ऋणग्रस्त, भारी भीड़ से भरा प्रदूषित देश इक्कीसवीं सदी के इस शुभारंभ अवसर पर दे कर जाने के दोषी नागरिक भी हम ही हैं, कोई बाहर के लोग नहीं।

परमपूज्य गुरुदेव धर्मतंत्र से जुड़े एकमात्र ऐसे चिंतक-महापुरुष माने जा सकते हैं जिनने गाँधीवादी अर्थव्यवस्था के सहारे देश की माटी व जल को पावन, सुरक्षित रखने के कार्यक्रम बनाने की आवश्यकता पर सतत् बल दिया व अनेकानेक कार्यक्रम “युगनिर्माण योजना” के शत सूत्री कार्यक्रम के माध्यम से वे हमें बता गए जिन पर अमलकर आज भी गरीबी के अभिशाप से मुक्ति तो पायी ही जा सकती है, शहरों को घिचपिच होने से बचाकर प्रदूषण, मुक्त बनाया तथा ग्रामीण समस्वरता का जीवन जीने के लिए अनेकों को प्रेरित कर इस राष्ट्र को सतयुगी स्थिति में ले जाया जा सकता है।

जब भी पर्यावरण-स्थूल व सूक्ष्म वातावरण को दृष्टिगत रख राष्ट्र के आर्थिक उन्नयन के कार्यक्रम बनाए जाते हैं, समाज को रूढ़िवादिता से मुक्तकर उसके सर्वांगीण विकास की बात सोची जाती है, वहाँ निश्चित ही सफलता मिलती है। मर्यादित, प्रजनन को लक्ष्य रख जब राष्ट्र निर्माण की योजनाएँ गैर सरकारी स्तर पर बनायी जाती हैं तो वे संकल्पनाएँ साकार होने लगती हैं, जिनके लिए आज सभी सरकार का मुँह ताकते हैं। एक छोटा-सा उदाहरण इजराइल का है जिसने अपनी नस्ल भी सुरक्षित रखी है, आबादी अनावश्यक बढ़ने भी नहीं दी है, मरुस्थल में सीमित जमीन में भी सहकारिता के कृषि के नूतन प्रयोगों द्वारा अपनी समृद्धि के द्वार स्वयं खोज लिए, चारों तरफ शत्रुओं से घिरा होने पर भी अपने अस्तित्व को बनाए रखा तथा आज सबके लिए एक उज्ज्वल भविष्य वाले राष्ट्र के रूप में एक ज्वलंत नमूना है।

अपने परिजनों को इतनी लंबी भूमिका बताने का आशय अपनी इस पत्रिका के माध्यम से किस समस्या से है व कैसे वे स्वयं को उससे जुड़े कार्यक्रमों में नियोजित कर राष्ट्र के नवोत्थान में सहयोगी हो सकते हैं यह समझने में संभवतः अब कठिनाई नहीं होगी। गायत्री परिवार के परिजनों को संधिकाल की इस विषमवेला में अब बहुत बढ़े-चढ़े दायित्वों का निर्वाह करना है, जिनमें प्रमुख हैं राष्ट्र का अभिनव निर्माण, उसकी सुरभि-सौंदर्य-हरीतिमा के साथ उसकी एकता-अखण्डता को बनाए रखने का पुरुषार्थ एवं इसके लिए व्यापक स्तर पर ऐसे कार्यक्रम जिनके माध्यम से धर्मतंत्र लोकमानस का शिक्षण कर उसे शिक्षित, सुसंस्कारी एवं स्वावलंबी बना सकें। प्रज्ञाअभियान की दससूत्री योजना के अंतर्गत परमपूज्य गुरुदेव ने पाँच रचनात्मक एवं पाँच सुधारात्मक कार्यक्रम को अंगीकार करने का सभी शक्तिपीठों-प्रज्ञा संस्थान-सक्रिय प्रज्ञामंडलों-शाखाओं को निर्देश दिया था। जहाँ आस्तिकता संवर्धन के, आस्था संकट से जूझने के, पतन निवारण के प्रयोग सतत् चलते रहना चाहिए, वहाँ उनने राष्ट्र के पतन पराभव के कारण को समझते हुए योजनाबद्ध कार्यक्रम भी बताए थे। यदि दिलाने के लिए उन्हें यहाँ दुहरा दें-रचनात्मक कार्यक्रम-(1) हरीतिमा संवर्धन (2) स्वास्थ्य संवर्धन, आहार सुनियोजन एवं लाठी आसन व्यायाम जैसी गतिविधियाँ (3) शिक्षा विस्तार, साक्षरता का स्तर समानुपात में नर-नारी में बढ़ाना, (4) स्वच्छता-सामूहिक श्रमदान गंदगी की रोकथाम (5) कुटीर उद्योग स्वावलंबन सहकारिता के प्रयोग। पाँच सुधारात्मक कार्यक्रम हैं (1) नशा-दुर्व्यसन परित्याग आँदोलन (2) विवाह-शादी में अनावश्यक दर्शनात्मक खर्चों की रोकथाम, दहेज व नेग वाली शादियों का विरोध, आदर्श विवाह आँदोलन (3) समाज में बेईमानी को जन्म देने वाली फिजूल खर्ची-अपव्यय की वृत्ति, फैशनपरस्ती को निरुत्साहित करना (4) हरामखोरी व कामचोरी की वृत्ति पर नियंत्रण लगाने के लिए प्रतिरोधात्मक आँदोलन, राष्ट्र के प्रति निष्ठा बढ़ाने के व्यावहारिक कार्यक्रम (5) अंधविश्वास, मूढ़ मान्यताओं, कुरीतियों व अनीति से संघर्ष।

वैसे पूज्यवर ने बड़े व्यापक परिप्रेक्ष्य में शत सूत्री कार्यक्रम भी युगनिर्माण योजना के अंतर्गत दिए हैं किंतु उपरोक्त दससूत्रों की परिधि में देश को गरीबी से मुक्त करने व स्वस्थ, सभ्य, स्वच्छ, समाज बनाने के सभी सूत्र आ जाते हैं। 1940 से प्रारंभ हुए गायत्री परिवार ने उपरोक्त दसों कार्यक्रमों में बड़ी व्यापक भागीदारी करते हुए काफी कुछ उपलब्धियाँ समाज को दी हैं, फिर भी वे काफी नहीं हैं। व्यावहारिक मार्गदर्शन के अभाव में परिजन कभी भटक जाते हैं, कभी स्थूल या चिकित्सालय खोलकर अपनी जिम्मेदारी पूरी हुई मानते हैं या मात्र उसी को समाज निर्माण का पर्याय मान लेते हैं।

शासन तंत्र व अशासकीय सामाजिक संस्थाओं की भागीदारी समान रूप से उपरोक्त कार्यक्रमों में हो, ऐसी पूज्यवर की इच्छा थी व उसी निमित्त “गायत्री परिवार” के रूप में एक समानाँतर ‘सशक्त’ धर्मतंत्र का एक ठोस स्तंभ खड़ा कर उनने आह्वान किया था कि और भी तंत्र इससे जुड़े व इन रचनात्मक कार्यक्रमों में युवाशक्ति, नारीशक्ति, व हमारे सृजन शिल्पीगणों की समूह शक्ति के साथ जुटकर कुछ कहने योग्य योगदान प्रस्तुत करें। प्रसन्नता की बात है कि दोनों ही ओर से सक्रियता उभरी। शासन तंत्र की ओर से कृषि विभाग ने एक नयी कृषि नीति के अंतर्गत विगत दो वर्षों में जलागम विकास के कार्यक्रम बड़े पैमाने पर लागू करना आरंभ किए। साथ ही ऋचा नामक एक स्वयंसेवी संगठन ने भी जन्म लिया जिसमें राष्ट्र को समर्पित अपने अपने विषयों में निष्णात लोकसेवी, कार्यकर्ताओं की भागीदारी हुई। हमारे राष्ट्र के वर्तमान कृषि सचिव श्री जगदीशचंद्र जी पंत (आय॰ ए॰ एस॰) जो पूज्यवर के चिंतक प्रवाह से काफी वर्षों से जुड़े थे, सक्रिय रूप से सतत् परामर्श भी तंत्र से करते रहते थे इन दोनों ही योजनाओं के कर्णधार के रूप में आगे आए व उनने जन-जन को इससे जुड़कर बेरोजगारी उन्मूलन, मिट्टी व पानी के संरक्षण, अल्पबचत, स्वावलंबन के कुछ व्यावहारिक, कार्यक्रम अपनाकर पूज्यवर के स्वप्नों को साकार करने का आह्वान किया। शासन की ओर से “ऋचा” संगठन उसके सहयोगी तंत्र के रूप में उभरा व जन समुदाय की ओर से “गायत्री परिवार” उसके संरक्षक के रूप में सामने आया व इस प्रकार चार स्तम्भों का निर्माण हुआ। गायत्री परिवार व ऋचा संगठन की भूमिका एक ही निर्धारित हुई शासन तंत्र के निर्धारणों से जन समूह को लाभान्वित कराना, शासन व जनता के मध्य एक पुल का ब्रिज का काम करना।

“ऋचा” शब्द अंग्रेजी के इन शब्दों के समन्वय से कुल चौबीस संस्थापक संरक्षक लोकसेवियों ने मिलकर निर्धारित किया था। “आर” से आशय है रिसर्च (शोध) “ई” से आशय है एक्सटेंशन (विस्तार) “ए” से आशय है ऐसोसिएशन (संगठन समूह) “सी” से अर्थ है कन्जर्वेशन (संरक्षण), “एच” से आशय है हॉर्टीक्लचर (बागवानी) एवं अंतिम “ए” सूचक है “एग्रोफारेस्ट्री” (कृषिवानिकी) का इस प्रकार “रिसर्च एण्ड एक्सटेंशन ऐसोसिएशन फॉर कन्जर्वेशन, हॉर्टीक्लचर एण्ड एग्रोफारेस्ट्री” इस पूरे भाव को लेकर यह स्वैच्छिक संस्था ग्रामीण अंचलों में वीरान क्षेत्रों को ग्रामवासियों के माध्यम से ही हरा-भरा करने के ऐसे कार्यक्रम लेकर आयी जिनका सरकार की कृषिनीति “वरसा” से पूरा तालमेल था तथा जिसके सभी निष्कर्ष वैज्ञानिक शोध के परिणामों पर आधारित थे। ऋचा, वरसा, गायत्री परिवार इन तीनों के समन्वय सहकार से एक प्रशिक्षण प्रक्रिया का प्रारूप बना जिसमें पूरे भारत के हर प्राँत के चुने हुए जिलों के कार्यकर्ताओं को जलागम विकास प्रक्रिया का प्रशिक्षण दिये जाने की योजना बनी। यहाँ वरसा शब्द की व्याख्या परिजन समझ लें। वाटर शेड से डब्ल्यू (ख) एरियाज से ए (्न) रेनफेड से आर (क्र) एग्रीकल्चरल से ए (्न) सिस्टम से एस (स्) एप्रोच से ए (्न) इस प्रकार बना खड्डह्ह्यड्ड वरसा शब्द बना। इसका अर्थ वारानी क्षेत्रों की राष्ट्रीय जलागम विकास परियोजना। वारानी यानी जलसिंचित (रेनफेड वाटर फेड)

तकनीकी शब्दों की व्याख्या के बाद प्रशिक्षण का एक ढांचा समझ लिया जाय। यह प्रशिक्षण मूलतः भारत के ग्रामीण-कृषि प्रधान परिवेश से जुड़ी परियोजनाओं का है जिनके माध्यम से न केवल सुधरी कृषि की तकनीकों द्वारा कम वर्षा या अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में भूमि व जल का समुचित प्रबंध सीखा जाना है, अपितु पशुधन के विकास, उस स्थान के योग्य पौधशालाओं की स्थापना, नारीशक्ति व बेरोजगार वर्ग के योग्य उन्हें स्वावलंबी बनाने वाले छोटे-छोटे ग्रामोद्योगों एवं परियोजनाओं के संचालन की व्यवस्था भी सीखी जानी है। इन्हीं के साथ-साथ एक रुपया न्यूनतम प्रतिदिन बचत के अल्प बचत कार्यक्रम के माध्यम से व्यक्ति को अपने उपार्जन का सुनियोजन राष्ट्र की कल्याणकारी योजनाओं में करने की प्रेरणा देने के साथ संस्कार संवर्धन प्रक्रिया के माध्यम से उसे आने वाली समृद्धि के साथ आध्यात्मिक विकास को गतिशील रखने का बहुआयामीय जीवन कला वाला शिक्षण भी दिया जाता है।

इस जटिल प्रक्रिया स्तर पर बैठा अल्पशिक्षित अथवा निताँत निरक्षर एक औसत भारतवासी न समझ पाएं, इसके लिए लोकसेवी कार्यकर्ता वर्ग के लिए भारत सरकार के कृषि एवं सहकारिता विभाग द्वारा “वरसा” योजना की निर्देशिका पुस्तिकाएँ प्रकाशित की गयी हैं, साथ ही ऋचा स्वैच्छिक स्वयं सेवी संगठन द्वारा भी हिंदी अंग्रेजी में पुस्तिकाएं प्रकाशित की गयी हैं, जिन्हें इस पते पर लिखकर मंगाया व अधिक जानकारी प्राप्त की जा सकती है-”उदितयन” मानव भारती, पंचशील पार्क (दक्षिण), नई दिल्ली 110017। यहाँ पत्र द्वारा ऋचा के प्राँतीय चैप्टर के सदस्य बनने से लेकर पूरी परियोजना के सहभागी कैसे बनें, यह जानकारी भी प्राप्त की जा सकती है। इन पंक्तियों में तो प्रारंभिक दिग्दर्शन भर है।

शाँतिकुँज में गायत्री परिवार के वरिष्ठ जिलास्तरीय स्तर पर सक्रिय नैष्ठिक परिजनों जो मूलभूत आचार संहिता से सुपरिचित हैं, के लिए 6 दिवसीय प्रशिक्षण सत्र इस क्रम से आयोजित किए गए (1) 5 दिसंबर से 10 दिसंबर 1994 की अवधि में पहला-उत्तर प्रदेश के छः मंडलों के एक सौ दो ब्लाकों के प्रायः दो सौ पचास कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण सत्र (2) 2 जनवरी 1995 से 6 जनवरी 1995 की अवधि में दूसरा मध्यप्रदेश के 44 जिलों के चुने हुए 250 कार्यकर्ताओं का सत्र (3) 9 जनवरी से 14 जनवरी 1995 की अवधि में तीसरा उत्तर प्रदेश का शेष जिलों का प्रशिक्षण सत्र। इनमें कृषि विभाग के उस राज्य के उच्च स्तरीय अधिकारियों तथा केन्द्रीय स्तर पर विशेषज्ञ अधिकारियों एवं ऋचा परियोजना के रीजनल चैप्टर सदस्यों की भागीदारी भी रही है। इस प्रकार पूज्यवर की तपःस्थली शाँतिकुँज संजीवनी साधना एक मास के युगशिल्पी प्रशिक्षण के साथ एक सुनियोजित विधा जलागम परियोजना के द्वारा राष्ट्र के आर्थिक विकास के कार्यक्रमों से भी जुड़ गयी। दो बड़े प्राँत मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश के चुने हुए ब्लाकों में आरंभ हुई यह प्रक्रिया प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं के द्वारा अब विभिन्न रूपों में दोनों प्राँतों के सभी जिलों में अश्वमेधिक अनुयाज क्रम में पहुँचा दी जाएगी, ऐसा विश्वास किया गया है।

इन कार्यक्रमों में सफलता कितने बड़े व्यापक स्तर पर मिली है, इसका अनुमान प्रथम जलागम विकास दीपयज्ञ के माध्यम से लगाया जा सकता है जिसका आयोजन कृषि विभाग “ऋचा” व शांतिकुंज के समन्वित प्रयासों द्वारा विगत 23-24 दिसंबर 1994 की अवधि में धनंजयतीर्थ उत्तर प्रदेश में किया गया। प्रायः 61 गाँव में विगत मार्च 1994 में आरंभ किए गये कार्य की सफलता का आकलन लगाए जाने के लिए इन सभी गाँवों के, जो कल्याणी नदी के बहाव क्षेत्र से जुड़े थे, सभी निरक्षर-साक्षर निवासियों तक आर्थिक विकास की इस योजना की जानकारी दी गयी, रजवंदन कार्यक्रम संपन्न किए गए तथा 23 दिसंबर को एक विशाल कलशयात्रा के बाद 24 दिसंबर के दीपयज्ञ में प्रायः दस हजार से अधिक ग्रामीणों ने भागीदारी कर राष्ट्र को समर्थ, स्वावलंबी एवं सुविकसित सुसंस्कारी-स्वच्छ बनाने का संकल्प जलते दीपों की साक्षी में लिया। दिये से दिये को जलाने की प्रक्रिया को सतत् चालू रखने व ऐसे छोटे-छोटे दीपयज्ञ प्रतिमास कई ब्लाकों के समूह बनाकर पूरे शिक्षण प्राँत में संपन्न करने के संकल्प भी लिए गए। शाँतिकुँज से व्यवस्थापक श्रीबलराम सिंह परिहार के साथ एक उच्चस्तरीय कार्यकर्ताओं की टीम के साथ, कृषि सचिव भारत सरकार श्री पंत जी कृषि वैज्ञानिकों एवं राज्य के सभी उच्च स्तरीय अधिकारियों ने इस यज्ञ में उपस्थित हो वह आरोपित होते देखा जो आने वाले दिनों में पूरे राष्ट्र में विकसित वटवृक्ष के रूप में दृष्टि गोचर होने लगेगा। यह तो पहला प्रयोग था किंतु ऐसे कार्यक्रम अब सभी प्रखंडों में योजना का पर्यवेक्षण पुनर्मूल्याँकन तथा ग्रामीण स्तर पर जानकारी के विस्तार के निमित्त संपन्न किये जाते रहेंगे।

आगामी प्रशिक्षण क्रम में अब मई 1995 के प्रथम पक्ष में उड़ीसा, अगस्त 1995 में महाराष्ट्र, कर्नाटक, दिसंबर 1995 में असम एवं उत्तरपूर्व के सभी राज्य तथा राजस्थान एवं जनवरी 1996 में हिमांचल प्रदेश जम्मू-कश्मीर, पंजाब एवं हरियाणा के युगनिर्माण योजना से जुड़े कार्यकर्ताओं के छः दिवसीय सत्र आयोजित किये जायेंगे। कृषि विभाग भारत सरकार द्वारा यह समग्र अनुमोदित कार्यक्रम आ गया है एवं इस प्रकार जनवरी 1996 तक प्रायः दो तिहाई भारत तक ऋचा एवं गायत्री परिवार दो स्वयं सेवी संस्थाओं के माध्यम से उन्नत कृषि के माध्यम से राष्ट्र के आर्थिक विकास के विभिन्न कार्यक्रम पहुँच जायेंगे। शेष चार प्रति बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु एवं केरल में यह कार्य फरवरी 1996 के हाथ में लेकर दिसंबर 1996 तक पूरे भारतवर्ष को एक सूत्र में पिरोकर उज्ज्वल भविष्य की एक झाँकी भारतवासियों को दिखाने का अपना मन है।

निश्चित ही जहाँ दैवी आकाँक्षा साथ हो, स्वेच्छा से आगे आकर कार्य करने वाले, प्रशिक्षण प्राप्त कर उसकी जानकारी जन-जन तक पहुँचाने वाले पुरुषार्थी परिजन साथ हों वहाँ परमपूज्य गुरुदेव का व्यक्ति निर्माण से समाज निर्माण का व इस माध्यम से राष्ट्र के अभिनव पुनर्जागरण साँस्कृतिक-आर्थिक-सामाजिक पुनरुत्थान का स्वप्न पूरा होकर ही रहेगा, इसमें किसी को संदेह नहीं करना चाहिए।


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