मानव जीवन की सर्वोपरि सामर्थ्य - श्रद्धा

September 1992

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भौतिक जगत में शक्ति के आधार पर ही हलचलों की गति’-प्रगति दिखाई देती है और उसके सहारे अभीष्ट उपलब्धियाँ हस्तगत होती हैं। उसी प्रकार आत्मिक उपलब्धियाँ हस्तगत होती हैं। उसी प्रकार आत्मिक क्षेत्र में श्रद्धा की शक्ति अकूत है। सामान्य लोक व्यवहार में भी दृढ़ता, श्रद्धा-विश्वास के आधार पर ही आती है। व्यक्तित्व विकास का आधार श्रद्धा और विश्वास तो है ही, उसके अभाव में उत्कर्ष की दिशा में आग बढ़ना भी संभव नहीं।

श्रद्धा और विश्वास के बिना भौतिक जीवन में निर्वाह नहीं। अध्यात्म क्षेत्र में भी श्रद्धा और विश्वास को प्राण कहा गया है। आदर्श और सिद्धान्तों का परिपालन हानि होते हुए भी श्रद्धा और विश्वास व उच्चस्तरीय मान्यताओं के बल पर किया जाता है। ईश्वर और आत्मा भले ही दिखाई नहीं देते अथवा उनका अस्तित्व अभी तक किसी प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं किया जा सका है, किन्तु फिर भी उनके प्रति श्रद्धा व आस्थाओं में कोई कमी नहीं है। मनुष्य की आदतें, मान्यताएँ, व्यक्तित्व और संस्कार श्रद्धा की परिपक्वता के अतिरिक्त और कुछ नहीं। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों, सम्प्रदायों की मान्यताएँ रीति-रिवाज चिरकाल तक सोचे गये , माने गये, व्यवहार में लाए गये अभ्यासों की परिणति ही है।

गीता में मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास उसकी श्रद्धानुरूप होना बताया गया है। रुचि, विश्वास और आस्थाओं के अनुरूप ही उसके गुणों का विकास होता है। स्वभाव में सम्मिलित हुई गतिविधियाँ जब आदतें बन जाती हैं और अचेतन की गहराई तक उतर जाती हैं, तब वे तर्क की सीमा लाँघ जाती हैं और कितनी ही बार हानिकारक सिद्ध होने पर वे छुड़ाए नहीं छूटतीं। मनोवैज्ञानिक का कथन सही है कि श्रद्धा की शक्ति बुद्धि से हजार गुनी अधिक है। यों सारा लोक व्यवहार तर्क के आधार पर चलता है और बुद्धि बल के सहारे विभिन्न प्रयोजन पूरे होते हैं, पर जहाँ सिद्धान्तों का और स्वार्थों का प्रश्न आता है वहाँ पूर्व मान्यताओं का पलड़ा भारी पड़ता है। वहाँ तर्क वितर्क की तिकड़म सफल नहीं हो पाती।

श्रद्धा जब सिद्धान्त एवं व्यवहार में उतरती है तो उसे निष्ठा कहते हैं। बलवती श्रद्धा के आरोपण अभिसिंचन से पत्थर से देवता का उदय होने की बात सत्य है। एकलव्य ने मिट्टी की द्रोण प्रतिमा में श्रद्धा व्यक्त कर उतनी धनुर्विद्या प्राप्त कर ली थी जितनी कौरव पाण्डव जीवन्त द्रोणाचार्य से न कर सके। मीरा, सूर, तुलसी गहन श्रद्धा के बल पर आध्यात्म क्षेत्र के प्रकाश स्तम्भ बनकर आज भी कोटि-कोटि जनसमुदाय का मार्गदर्शन करते हैं। साधना क्षेत्र में श्रद्धा अपरिमित शक्ति चमत्कारी परिणाम प्राप्त करता है। कर्मकाण्डों की भरमार रहते हुए भी श्रद्धा के अभाव में साधनाएँ निष्फल रह जाती हैं।

“द बेरायटीज आफ रिलीजियस एक्सपीरियन्सेस” पुस्तक के विद्वान लेखक श्री विलियम जेम्स ने लिखा है कि सन्त, सुधारक और शहीद अटूट श्रद्धा और दृढ़ विश्वास के बलबूते ही समाज सेवा, और त्याग, बलिदान के गुरुत्तर कार्य के लिए समर्पित होते हैं और अनेकों को इस ओर चल पड़ने की दिशा दे जाते हैं। आधुनिक युग में महात्मा गाँधी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। गाँधीजी की सघन आस्था ने आत्मिक शक्ति के उस चमत्कार को जन्म दिया जिसके सामने सहस्रों अणु बमों की शक्ति भी नगण्य है। इसके पूर्व समर्थ रामदास ने भी शिवाजी की उस आस्था को उभारकर देश को कठिन परिस्थितियों से उबारा था। संत और महामानव समय-समय पर आकर मनुष्य की इस सोई शक्ति को जगाकर जनकल्याण में लगाते रहते हैं। बुद्धि को यथा सम्भव समाधान मिलने पर ही श्रद्धा की स्थिरता बलवती और सुदृढ़ हो सकती है। जिस किसी से सुन समझकर भावावेश में उथले आधारों पर उठाई गई आस्था की दीवार का डांवाडोल होना सुनिश्चित है। श्रद्धा के परिपक्व अथवा चिरस्थाई बनाने का आधार है कि जिस तथ्य पर विश्वास बनाने का आधार है कि जिस तथ्य पर विश्वास जमाया जाय उसकी यथार्थता एवं सघन तथ्यों और तर्कों के आधार पर समझ सकने का अवसर दिया जाय। शंकाशील मन में श्रद्धा का स्थिर रहना सम्भव नहीं। अतः लक्ष्य के निर्धारण और उसके प्रतिनिष्ठा, आस्था, की सघनता, श्रद्धा को बलवती बनाने के लिए आवश्यक हैं।

सन्त इमर्सन के अनुसार श्रद्धा से बढ़कर कोई शक्ति नहीं। विश्वास से बढ़कर कोई साधना नहीं। सुप्रसिद्ध मनीषी डब्लू. बी. कोनार लिखते हैं कि युग की विशेष प्रेरणाएँ प्रायः श्रद्धावान, भावनाशील अंतःकरणों को छू सकने में समर्थ होते हैं। दास प्रथा की करुण कहानी हैरियट स्टो ही सुना सकने में सफल हो सकीं, जब कि उनके पूर्व और उपरान्त में अनेकों लेखक कहानीकार कलाकार हुए हैं। किन्तु उन सभी में दासों के प्रति बरते गये अमानवीय अत्याचारों के प्रति संवेदनाएँ, सहानुभूति और आत्मीयता उतनी नहीं थी जितनी कि श्रीमती स्टो के संवेदनशील हृदय में।

हनुमान, अर्जुन , बुद्ध, गाँधी, सूर , तुलसी, कबीर, मीरा साधनों में इतने बढ़े-चढ़े नहीं थे। किन्तु बुद्धिबल, धनबल और जनबल से परिपूर्ण लोगों की अपेक्षा वे इतना सब कुछ अटूट श्रद्धा के बल पर ही कर सकने में समर्थ हुए। श्रद्धा की सामर्थ्य इसी से आँकी जा सकती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118