चेतनात्मक परिष्कार की दैवी प्रक्रिया

September 1992

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हर विचारक को कुछ शरीरचर्या के लिए करना चाहिए और कुछ आत्म-कल्याण के लिए । दोनों की व्यवस्था समान रूप से करते रहने पर ही बात बनती है। अकेले शरीर पर उसके सुविधा साधनों पर ही ध्यान रखा जाय तो आत्मा भूखी मरेगी और लोक परलोक दोनों ही बिगड़ेंगे। आत्म-कल्याण की बात को प्रधानता देने पर भी रोटी, कपड़े का प्रबंध तो करना ही होता है। इसलिए समन्वित जीवन जीना ही श्रेयस्कर है। दोनों पक्षों पर समान रूप से ध्यान रखने की आवश्यकता है। प्रत्यक्ष शरीर को समुन्नत सुसंस्कृत, प्रगतिशील बनाया जाय और अन्तःकरण में श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा को समुचित स्थान दिया जाय। पुण्य परमार्थ के लिए तत्परता, तन्मयता अपनाने पर दोनों ही जीवन पक्ष सुविकसित स्तर अपनाये रहते हैं।

मनुष्य को दो सम्पदाएँ उपलब्ध हैं- एक समय, दूसरा साधन-धन-वैभव। इन दोनों में से न्यायतः जीवन के दोनों पक्षों के लिए आधा-आधा उपयोग करना चाहिए। पर वातावरण, प्रचलन और आदत से जकड़ा हुआ व्यक्ति प्रायः स्वास्थ्य साधना में ही लगा रहता है। आत्मिक आवश्यकताओं की बात भूल जाता है। व्यस्तता के दिनों में तो कुछ पता नहीं चलता, पर जब गंभीरतापूर्वक विचार किया जाता है कि आत्मा के साथ अन्याय बरता गया। यह भूल उस समय और भी अधिक स्पष्ट होती है जब मरण समय निकट आता है और परमात्मा के दरबार में जाने की तैयारी होती है। वहाँ मात्र एक ही प्रश्न पूछा जाता है कि विश्व का सबसे बड़ा अनुदान-मनुष्य जन्म, जिस प्रयोजन के लिए मिला था, उसका उपयोग सौंपे गये उत्तरदायित्वों के निर्वाह में हुआ या नहीं? न करने वाले दुर्गति के गर्त में पड़ते हैं और भविष्य में जो और भी अधिक अनुदान मिल सकने संभव थे उनसे वंचित रहते हैं। सृष्टि के समस्त प्राणी भगवान को समान रूप से प्रिय हैं। उसे किसी के साथ पक्षपात नहीं। मनुष्य के साथ भी नहीं। यह सुरदुर्लभ धरोहर इसलिए सौंपी गई है कि उसके व्यक्तित्व को परिष्कृत करते हुए पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त किया जाय। साथ ही स्रष्टा के विश्व उद्यान को अधिकाधिक सुरम्य, समुन्नत, सुसंस्कृत बनाते हुए परमार्थरत रहा जाय। अनुकम्पा का प्रतिदान परमार्थ-परायण के रूप में प्रस्तुत किया जाय। सेवा साधना ही एक मात्र यह उपाय है जिससे आत्मकल्याण और लोक कल्याण की दोनों आवश्यकताएँ पूरी होती हैं। आत्मा और परमात्मा को समान रूप से तुष्टि, तृप्ति और शान्ति मिलती है। शरीर यात्रा तो जीवन रहने के लिए शान्ति मिलती है। शरीर यात्रा तो जीवन रहने के लिए अनिवार्य रूप से करनी पड़ती है। उपेक्षा, आत्मिक कर्त्तव्यों की ही होती रहती है। इस भूल का दण्ड ही पीड़ा और पतन के रूप में निरन्तर सताता रहता है। इस एक पक्षीय समर्थन की अनीति से जो बच सके, वे ही बुद्धिमान हैं। सद्गति उन्हीं के हिस्से में आती है।

जीवन सम्पदा के सदुपयोग की रूपरेखा बनानी चाहिए। समय और साधन की उपलब्धियों का किन प्रयोजनों में किस प्रकार नियोजन किया जाय, इसका मनन चिन्तन हर दूरदर्शी को अति गंभीरतापूर्वक करना चाहिए। शरीर यात्रा थोड़े से शारीरिक मानसिक प्रयत्न से चल सकती है। परिवार को स्वावलम्बी और सुसंस्कारी बनाने का प्रयास भी निर्वाह क्रम के साथ-साथ ही चलता रहता है। यह दोनों कार्य इतने भारी नहीं हैं उन्हीं के लिए सारी जीवन सम्पदा पूरी तरह खप जाय। आत्मा और परमात्मा के संतोष हेतु भी कुछ किया ही जाना चाहिए। इसी दिशा में समुचित प्रेरणा प्राप्त करने के लिए ही पूजा अर्चा के क्रियाकृत्य किये जाते हैं, अन्यथा उस समदर्शी को किसी से मनुहार, उपहार प्राप्त करने की और क्या अपेक्षा हो सकती है। भजन का सीधा सा शब्दार्थ सेवा साधना ही है। उसकी उपेक्षा करके न कोई भगवद् भक्त बन सकता ही है और न कर्तव्य, उत्तर दायित्वों के परिपालक का श्रेय अर्जित कर सकता है।

सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए किया गया परोपकार उच्चकोटि का ब्रह्म यज्ञ है। इसके अतिरिक्त दुर्घटनाग्रस्तों, अपंग-असमर्थों की सेवा सहायता करते रहना भी पुण्य है। इन कार्यों के लिए हर उदारचेता को अपने समय, श्रम का बड़ा भाग सेवाधर्म के निर्वाह हेतु लगाते रहना चाहिए। कमाई गई आजीविका में से भी एक अंशदान इसके लिए लगाते रहना चाहिए। जो इस देय अंश को नहीं निकालता सारा समय स्वार्थ साधन के लिए सोचता रहता है। जिसकी कमाई अपने या अपनों के लिए खर्च होती रहती है, उसे शास्त्रकारों की भाषा में “चोर” कहा है। हमें मिल बाँट कर खाना चाहिए। अपने सुख बाँटने और दूसरों के दुःख बँटाने के लिए तत्पर रहना चाहिए। इससे कम में शालीनता से गौरव गरिमा का निर्वाह होता नहीं। कहा गया है कि सेवा धर्म के परिपालन में जो लगाया जाता है वह प्रकारान्तर से हजार गुना हो वापस लौटता है। इन दिनों अगणित कठिनाइयों, समस्याओं और विपदाओं में फँसी मानवता को उबारने के लिए हर भावनाशील का कर्तव्य है कि वह चुप न बैठे, कुछ न कुछ परमार्थ प्रयास किसी न किसी रूप में करता ही रहे। अशिक्षा, दरिद्रता, रुग्णता, पिछड़ेपन तथा बढ़ते अनाचार के माहौल में ऐसा कुछ किया ही जाना चाहिए, जिससे जनसाधारण को मानवी स्तर पर बने रहने का अवसर मिले।

व्यस्तता और दरिद्रता के रहते हुए भी कोई व्यक्ति आठ घण्टे परिश्रम में निर्वाह के लायक उपार्जन कर सकता है। सात घंटा विश्राम के लिए पर्याप्त हैं। पाँच घण्टे में नित्य कार्य तथा अन्य सामयिक कार्यों से निपटा जा सकता है। बीस घण्टे के परिश्रम से निर्वाह की आवश्यकताएँ पूरी हो सकती हैं। शेष चार घण्टे ऐसे बचते हैं जिन्हें आत्मा और परमात्मा को प्रसन्नता देने वाले परमार्थ प्रयोजनों में खर्च किया जा सकता है। उपार्जन का एक अंश भी इस निमित्त निकाला जाना चाहिए। महीने में एक दिन की कमाई निकालते रहने से किसी का कुछ घटेगा नहीं। इतनी उदारता न हो तो प्रतिदिन न्यूनतम बीस पैसे तो निकालने ही चाहिए। यह एक मुट्ठी अनाज का मूल्य है। इतना तो चूहे, कीड़े-खा जाते हैं। सतर्कतापूर्वक उसे बचाया जा सके तो किसी पर भी ऐसा आर्थिक भार न लदेगा, जिसे वहन न किया जा सके। समयदान और अंशदान का परमार्थ अनुदान यदि नियमित रूप से निकालता रहे तो उतने भर से एक व्यक्ति भी बहुत कुछ कर सकता है। फिर एक जैसे विचार वाले कई लोग मिलकर उस संयुक्त शक्ति का योजनाबद्ध रूप से नियोजन कर सकें तो उसका प्रतिफल आश्चर्यजनक स्तर का बन पड़ते देखा जा सकेगा। चार घण्टे प्रतिदिन का समय भारी पड़ता हो तो उसे कम से कम दो घण्टे भी किया जा सकता है। इतना समय तो हर कोई ऐसे ही मटरगस्ती में गँवाता रहता है।

यदि किसी छोटे क्षेत्र में ऐसे अंशदानी सौ भी संगठित हो जायँ तो उनका दैनिक अनुदान दो सौ घण्टे और बीस रुपये प्रतिदिन होता है। काम के घण्टे आठ होते हैं। दो सौ घण्टे का तात्पर्य है 200/8=25 पूरे दिन। एक महीने में इसे 25×30=750 दिन। इसे महीने की छुट्टी समेत 25 दिन का माना जाय तो 750/25=30 व्यक्तियों के मासिक रूप से लगातार काम करते रहने के बराबर हो जाते हैं। इस श्रमदान का सुनियोजन किसी की स्थानीय समस्या के समाधान में चमत्कारी परिणाम उत्पन्न कर सकता है।

बीस पैसे प्रतिदिन का अनुदान सौ व्यक्तियों का मिलता रहे तो वह राशि बीस रुपया प्रतिदिन अर्थात्-छह सौ रुपये मासिक होती है। इतने के आवश्यक साधन खरीदकर समयदानियों के रूप में , साधन के रूप में दिये जा सकें तो उस सामग्री का सदुपयोग इतना कुछ करता रह सकता है जिसे आश्चर्यजनक कहा जा सके। यह सौ व्यक्तियों का न्यूनतम अनुदान हुआ, अपने परिवार परिकर में प्रायः पाँच लाख स्थायी और पच्चीस लाख उनके क्षेत्र प्रभाव में रहने वाले लोग हैं। इतने ही लोग कुछ कर गुजरने को कटिबद्ध हों तो उनका संयुक्त श्रमदान और अंशदान देश को प्रगति पथ पर आगे धकेलने के लिए बहुत कुछ कर सकता है। यह समुदाय यदि अवाँछनीय प्रचलनों के विरुद्ध सीना तान कर खड़ा हो जाय तो समझना चाहिए कि नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्षेत्र में एक महान क्रान्ति के सफल होने का सूत्रपात हो गया। यह मात्र प्रज्ञा परिवार की बात है। देश भर के उदारचेताओं को ढूँढ़, संगठित किया और उनके अनुदानों को युग परिवर्तन से सम्बन्धित क्रियाकलापों में लगाया जा सके तो यह संभव प्रयास उलटे प्रवाह को उलट कर सीधा करने में समर्थ हो सकता है।

व्यक्तिगत समस्याओं में कुछ दुर्घटनाओं को छोड़कर अधिकाँश मनुष्य की निजी अस्त व्यस्तताओं के कारण उत्पन्न होती हैं। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार की अनगढ़ताएँ अनेकों विपत्तियाँ खड़ी करती हैं। असंयम और अनाचार ही की मनःस्थिति प्रतिकूल परिस्थितियाँ बनकर सामने आ खड़ी होती हैं। यदि व्यक्तित्व के परिष्कार की सही रीति नीति समझी और समझाई जा सके तो सफलतापूर्वक स्वस्थ, संतुलित और समुन्नत रहा जा सकता है। यह प्रशिक्षण आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। ज्ञानयज्ञ या विचार क्रान्ति अभियान की प्रक्रिया को इसी हेतु व्यापक बनाया जा रहा है। युग शिल्पी इसी कार्य को प्रधानता देते हुए लोकशिक्षण में प्रवृत्त हैं। यह प्रयास सही बन पड़े तो समझना चाहिए कि प्रगति योजनाओं की सफलता सुनिश्चित हो गई।

समाज में अनेकों विसंगतियाँ और विभीषिकाएँ एकता और समता का सिद्धान्त न अपनाये जाने के कारण उत्पन्न हुईं हैं। बहुप्रजनन ने हर क्षेत्र में विसंगतियों के आडम्बर लगा दिये हैं। अपव्यय की आदत, अनाचार अपनाने के लिए विवश करती है। सुव्यवस्था का अनुशासन न मानने से खाद्य संकट, ऊर्जा संकट, गरमी की अभिवृद्धि अपनी विकरालता प्रकट करती है। खर्चीली शादियाँ, दरिद्र और बेईमान बनने के लिए बाधित करती हैं। अनावश्यक महत्वाकाँक्षाओं से प्रेरित व्यक्ति अहंकार प्रदर्शन के साधन जुटाने में हैरान करते हैं। यदि औसत नागरिक स्तर का जीवनयापन करने की प्रथा चल पड़े तो नरक जैसा बना वातावरण स्वर्ग जैसी सुख शान्ति से भरा पूरा बन सकता है। गरीबी, अमीरी की खाई इसीलिए चौड़ी होती जाती है कि लिप्सा और अनुदारता सामान्यजनों का शोषण करने में लगे रहते हैं। अपराधों का प्रवाह भी इसी विवेकहीनता के उद्गम से उभरता है। यदि व्यक्ति को सुसंस्कृत और समाज को सुव्यवस्थित बनाने के लिए प्रबल प्रयत्न चल पड़े तो अगणित समस्याओं की जड़ें कट जायें और सद्भाव सहयोग के आधार पर सभी लोग मिल बाँट कर खा सकें और हँसती-हँसाती जिन्दगी जी सकें।

प्रदूषण से लेकर चित्र-विचित्र असंतुलनों का एक ही कारण है मनुष्य का दुश्चिन्तन और आचरण। अनेकों संकटों के अनेकों उपाय खोजने में परेशान होने की अपेक्षा एक ही उपाय से समस्त संकटों का निराकरण हो सकता है कि सर्वत्र शालीनता को मान्यता मिले और लोग आत्मवत् सर्वभूतेषु का आदर्श व्यावहारिक जीवन में उतारें। कड़ा परिश्रम करें और उत्पादन , अनुशासन, सदुपयोग के आधार पर जीवनचर्या अपनाने के लिए सहमत हों। अशिक्षा , अस्वस्थता, अभावग्रस्त, अव्यवस्था जैसे अनेकों कारणों को इसी आधार पर हल किया जा सकता है कि मानवी गरिमा के अनुरूप हर व्यक्ति अपने को टाले । जियो और जीने दो की नीति को अपनाने में आनाकानी न करें। विनाश नहीं विकास हर किसी की दृष्टि में रहे। जीवन जीने की कला को अपनाने और अनौचित्य का साहसपूर्वक परित्याग करने का पराक्रम अपनाया जाय। डरने और डराने का अवसर ही न आने दिया जाय। सहयोग के लिए हर किसी हाथ बढ़ें और संघर्ष उत्पन्न करने वाले गुत्थियों को सुलझाने के लिए मिलजुल कर प्रबल प्रयास करें।

कहा जाता है कि साधनों के अभाव से प्रगति का रथ रुकता है। उन्हें उपलब्ध करने के लिए टैक्स लगने, ऋण लेने जैसी सूझें ही सूझती हैं। पिछड़ों को अनुदान देने से काम चल जाएगा। ऐसी मान्यता योजना बनती और योजना चलती है। पर यह भुला दिया जाता है कि व्यक्ति अपने आप में अजस्र शक्तियों का भाण्डागार है। उसे उत्पादक और उपयोग में सदाशयता का समावेश सिखा दिया जाय तो इतने भर से साधनों के पर्वत खड़े हो सकते हैं या कम साधनों में मात्र सदाशयता के आधार पर बड़े काम संभव हो सकते हैं। यदि विलासिता और अहमन्यता के उद्धत अपव्यय पर अंकुश लग सके तो निर्वाह से बची हुई पूँजी तथा कुशलता इतनी अधिक मात्रा में शेष रह जाती है कि सभी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति उतने भर से हो सके। संघर्ष का विकल्प सहयोग मान लिया जाय तो न अभाव का कोई कारण रह जायेगा और न संकटों से जूझने के लिए सामर्थ्य का अनावश्यक अपव्यय करना पड़ेगा। संपदा मनुष्य के श्रम और कौशल में से उपजती है। प्रसन्नता और प्रगति के लिए शालीनता और सुव्यवस्था का नियोजन पर्याप्त है। साधनों की ओर लालायित न रह कर यदि मानवी क्षमताओं का अभिवर्धन और सुनियोजन हो सके तो इतने पर भी युग की समस्याएँ सुलझ जायेंगी और आवश्यकताएँ पूरी होने के मार्ग में कहीं कोई बाधा न रहेगी।

गायत्री परिवार के अकिंचन प्रयत्न कितने अधिक सत्परिणाम उत्पन्न कर रहे हैं, इसे देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि चेतनात्मक परिष्कार का प्रवाह बह चले तो वह सब कुछ हस्तगत हो सकेगा जिसकी सतयुग के नाम से चर्चा की जाती है।


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