आत्मबोध होने के बाद गौतम बुद्ध ने परिव्रज्या आरंभ की। विश्राम का नाम भी नहीं। सतत् चलते रहना व लोगों को जीवनमुक्ति का पाठ पढ़ाना । शिष्य आनन्द उनसे बोला-”प्रभु! टाप इतना चले, न थके-न उकताए।” बुद्ध बोले। “थके वह जो चले मैं चलता ही नहीं तो थकूँ क्यों।” आनन्द का कथन था “मैंने तो नित्य आपको अपनी इन आँखों से चलते देखा है, मैं भी आपके ही साथ चला हूँ।”
बुद्ध बोले-”मैं तुम्हारी आँखों पर भरोसा करूं या अपनी आँखों पर। भीतर देखता हूँ तो पाता हूँ वहाँ कोई चलता ही नहीं। तुम मुझे बाहर से ही देख पाते हो। बाहर जो चलता है, यह तो शरीर है। आत्मा की छाया मात्र है। जो नहीं चलता, वह मेरी आत्मा है। छाया के चलने से भी कोई थकता है?”