ऊर्जा का जखीरा नष्ट न होने पाए

September 1992

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मनुष्य के भीतर अनन्त शक्तियों का भाण्डागार भरा पड़ा है। शारीरिक, मानसिक शक्तियों के अतिरिक्त आत्म चेतना की प्रचण्डता का तो कहना ही क्या, जो अपने सृजेता की समस्त शक्तियों, विभूतियों एवं सम्पदाओं से विभूषित है। परन्तु इनमें से निन्यानवे प्रतिशत शक्तियाँ प्रसुप्त अवस्था में पड़ी रहती हैं। इसी तरह जाग्रत शारीरिक-मानसिक क्षमता का अधिकाँश भाग व्यर्थ के कामों में नष्ट होता रहता है। बाहरी साधनों की ओर ही अधिक ध्यान आकृष्ट रहने के कारण स्वयं के लिए शक्ति और उसके व्यय की क्या स्थिति चल रही है, इस ओर कोई देखने की भी आवश्यकता अनुभव नहीं करता है। फलतः लगायी गयी शक्ति और किये गये प्रयत्नों के एक प्रतिशत भाग का ही परिणाम सफलता के रूप में दिखाई पड़ता है। शेष सब अव्यवस्थित, अनावश्यक और फूहड़ ढंग के कारण नष्ट हो जाते हैं। सफलता कौन नहीं चाहता? सब यह भी जानते हैं कि बिना प्रयत्न किये गये वाँछित परिणाम नहीं मिलते। इसलिए हर कोई प्रयत्न भी करता है, परन्तु फिर भी सफलता नहीं मिलती तो इसका कारण भाग्य या पुरुषार्थ का शिथिल होना मात्र ही नहीं है। सफलता या असफलता मात्र शक्ति-सामर्थ्य पर ही नहीं, वरन् बहुत कुछ हमारी कार्यपद्धति पर भी निर्भर करती हैं, जिसका नियोजित, व्यवस्थित और क्रमबद्ध होना आवश्यक है। एक बड़े पत्थर को उसके स्थान से हटाने के लिए दस व्यक्ति भी शायद पर्याप्त न हों, परन्तु उसे युक्तिपूर्ण तरीके से कोई एक समझदार व्यक्ति भी आसानी से हटा सकता है। दस व्यक्ति अयुक्तिपूर्ण तरीके से हटाने का प्रयास कर अपनी शक्ति का अपव्यय ही करते हैं, जबकि समझदार आदमी अपनी अकेली शक्ति का एक भाग लगाकर ही उस कार्य को सम्पन्न कर लेता है। मनुष्य की शक्ति के अपव्यय का यह एक प्रकार है।

यदि हम सूझबूझ और समझदारी से प्रत्येक कार्य को करने का संकल्प लें तो इस क्षति को रोक सकते हैं। शक्ति प्रयोग में बुद्धि का उपयोग न करने के साथ- साथ उन्माद और अभिज्ञान भी उनके अपव्यय का कारण है। भगिनी निवेदिता ने कहा है कि शक्तिवानों के पास शक्ति तो बहुत है, पर वस्तुतः उस शक्ति का सम्यक् प्रयोग वही कर सकता है जिसके पास शक्ति से परे का विचार है। शक्ति प्रयोग करने के लिए है, हमें अपनी बाढ़ में बहा ले जाने के लिए नहीं। उनने संयम को शक्ति का सबसे बड़ा स्रोत बताया है।

कोई नवयुवक जब अपने जीवन के कार्य क्षेत्र में उतरता है तो उसे विश्वास रहता है कि मेरे पास शक्ति का अगाध भण्डार है। अदम्य आत्मविश्वास और साहस से भरा हुआ यौवन अक्सर-युवकों को अतिवादी और अभिमानी बना देता है। इस अभिमान में वह अपनी शक्तियों को उच्छृंखल ढंग से नष्ट करने लगता है। इस संबंध में प्रख्यात मनीषी विलियम शेक्सपियर ने “मेजर फॉर मेजर” नामक अपनी कृति में लिखा है कि-”यह एक अच्छी बात है कि दैत्य स्तर की शक्ति हो, किन्तु यह अत्याचार पूर्ण है कि उसका दैत्य सदृश उपयोग किया जाय।” जहाँ कहीं भी, जब कभी, शक्ति अभिमान के कारण अनाचरण हुए हैं, वह निश्चित रूप से घातक और असफलता प्रदान करने वाले ही सिद्ध हुए हैं। जब अवसर निकल जाता है तो पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता रावण, कंस हिरण्यकशिपु जैसे अति बलशाली दैत्य इसके इतिहास प्रसिद्ध उदाहरण हैं। अन्त समय में लक्ष्मण को उपदेश देते हुए महाबली रावण ने यही कहा था कि “मैं इस दुनिया में कई अच्छे काम करना चाहता था, परन्तु यही सोचता रहा कि मुझ में तो अपार शक्ति है, जब चाहूँगा कर लूँगा। इस तरह उन्हें कल पर टालते-टालते मेरा काल ही आ धमका, किन्तु वह कल नहीं आया जिस दिन मैं वे कार्य कर सकता था। अपरिमित शक्ति मात्र अत्याचार में ही लगी रही और उसके सदुपयोग का अवसर बीत गया।

शक्ति किसी कार्य में लगे या न लगे, उसका खर्च होना तो रोका नहीं जा सकता। उपयोगी कार्यों में न लगने पर वह आलस्य, प्रमाद या परपीड़न अत्याचार जैसे दोषों से व्यक्ति को पथभ्रष्ट करके ही रहेगी। वह सामर्थ्य, दूषित जीवन की ओर ही धकेलती है। अति विश्वास भी कभी-कभी आलस्य और अन्य बुराइयों को जन्म देता है। व्यक्ति सोचने लगता है कि हमारे पास तो शक्तियों का अतुल भण्डार है, इसको जब चाहेंगे, तब कर लेंगे। कल पर छोड़ा हुआ आज का काम अनिवार्य रूप से अधिक श्रम माँगेगा। परन्तु पहली बात तो यह है कि आलस्य और प्रमाद के कारण टाला गय काम कभी पूरा भी होगा, यह भी संदिग्ध है।

गुरु गोलवलकर ने शक्ति के उस स्वरूप की प्रशंसा की है जो सद्गुण, शील, पवित्रता, परोपकार की प्रेरणा तथा मानव मात्र के प्रेम से युक्त हो। प्रायः जिनके पास जितनी बड़ी शक्ति होती है, वह उतना ही अधिक उसका दुरुपयोग करते हैं, दूषित जीवन बिताने वालों की शक्तियों का उपयोग वृथा और अनावश्यक कार्यों में ही होता है। सुप्रसिद्ध विचारक स्वेट मार्डेन ने इस बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए लिखा है कि-”हजारों दिन की एकत्र की हुई शक्ति को वृथा कार्यों में खर्च कर डालना क्या मूर्खता नहीं है? जिन शक्तियों को काम में लाने से शारीरिक और मानसिक कार्यों में सफलता प्राप्त हो सकती है, तो उन्हें नादानी में यों ही बरबाद कर देना कहाँ की बुद्धिमानी है।’

शक्तियों का अपव्यय अन्य दूसरे प्रकारों से भी होता है। अपनी आवश्यकता तथा सामर्थ्य से अधिक श्रम करने के कारण आई हुई थकान उस दिन के लिए मनुष्य को बेकार कर देती है। कोई व्यक्ति एक सप्ताह तक रातभर जागकर काम करता रहे, विश्राम न करे तो उसका जो प्रभाव स्वास्थ्य पर होगा उससे वह महीने डेढ़-महीने के लिए बेकार हो जायेगा। उस एक सप्ताह में काम भी उतना ठीक नहीं होगा जितना कि शक्ति-संतुलन को ध्यान में रखते हुए सात दिन में भी किया जा सकता था। हमें इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि कहीं थक कर या आधे मन से तो कोई काम नहीं हो रहा है।

इस संतुलन को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि किसी भी कार्य में जरूरत के अनुसार ही शक्ति लगायी जाय। कितने ही व्यक्ति एक काम में दस गुना अधिक शक्ति लगाते हैं। कलम को तलवार की तरह पकड़ कर जोर देते हुए लिखने की कई छात्रों की आदत होती है। कलम पर पूरे हाथ का दबाव डालते हुए वे ऐसे लगते हैं जैसे हल चला रहे हों। जिस चीज को पकड़ने के लिए हाथ का थोड़ा सा कसाव ही काफी है, उसके लिए घोड़ों की लगाम समझकर पकड़ने वाले बहुत हैं। कितने ही व्यक्ति शक्ति से अधिक बोझ उठाते और असमय ही वृद्धावस्था या रुग्णता को निमंत्रण देते देखे जाते हैं। इस सम्बन्ध में वाल्मीकि रामायण के अरण्य काण्ड 50/89 में उपदिष्ट करते हुए कहा गया है-”स भारः सौम्य भर्तव्यो यो नरः नावसाद्येत्।” अर्थात्-हे सौम्य! मनुष्य को उतना ही बोझ उठाना चाहिए जो उसे शिथिल न कर दे ।

उत्तेजना और आवेश भी शारीरिक पुष्टि और मानसिक शक्तियों को आग की तरह जला डालते हैं। क्रोध और चिड़चिड़ेपन के छोटे-छोटे दौर, मन में किसी के प्रति ईर्ष्या-द्वेष, पिछली भूलों पर दीर्घकाल तक व्यर्थ पश्चाताप आदि कई मनोवेगों में मानवी शक्तियाँ बुरी तरह नष्ट होती रहती है। इन छिद्रों से अपनी शक्ति-सामर्थ्य बहा चुके व्यक्ति टूटे-फूटे मन और बल से कोई भी कार्य भली भाँति नहीं कर सकते। उत्साह-हीन और पस्त-हिम्मत न तो अपने मार्ग की बाधाओं को समझ पाते हैं और न ही उन्हें दूर करने का प्रयत्न कर सकते हैं।

हृदय की पवित्रता शक्ति का सबसे बड़ा स्रोत है। शक्ति आती ही हृदय से है, शरीर या बुद्धि से नहीं। इस तथ्य को सदा स्मरण रखा जाना चाहिए कि कोई दूसरा शक्ति नहीं देता, वरन् अपना अन्तराल ही इसका मूल है। स्वामी विवेकानन्द के शब्द में-’अपने भीतर ही वह शक्ति मौजूद है। यदि व्यक्ति कार्य करने में निरत हो जाय तो फिर देखेगा कि इतनी शक्ति आयेगी कि वह उसे संभाल न सकेगा दूसरों के लिए रत्तीभर काम करने से भीतर की शक्ति जाग्रत हो उठती है। दूसरों के लिए सोचने में धीरे-धीरे हृदय में सिंह के समान बल आता है इस शक्ति के समुचित सदुपयोग से कठिन से कठिन एवं बड़े से बड़े कार्य भी सरलतापूर्वक सम्पन्न हो जाते हैं।


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