जब महाभारत का अन्तिम श्लोक महर्षि वेदव्यास के मुखारविन्द से निःसृत हुआ, और गणेशजी के सुडौल, सुपाठ्य, अक्षरों में भुर्जपत्र पर अंकित हो चुका, तब गणेशजी से महर्षि ने कहा-”विघ्नेश्वर, धन्य है आपकी लेखनी! महाभारत का सृजन तो वस्तुतः उसी ने किया है, पर एक वस्तु आपकी लेखनी से भी अधिक विस्मयकारी है-वह है आपका मौन। सुदीर्घ काल तक आपका हमारा साथ रहा। इस अवधि में मैंने तो पन्द्रह-बीस लाख शब्द बोल डाले, परन्तु आपके मुख से मैंने एक भी शब्द नहीं सुना।”
इस पर गणेशजी ने मौन की व्याख्या करते हुए कहा-”बादरायण किसी दीपक में अधिक तेल होता है, किसी में कम, परन्तु तेल का अक्षय भण्डार किसी दीपक में नहीं होता। उसी प्रकार देव, मानव-दानव आदि जितने भी तनधारी है, सबकी प्राण-शक्ति सीमित है- किसी की कम है, किसी की कुछ अधिक परन्तु असीम किसी की नहीं। इस प्राण शक्ति का पूर्णतः लाभ वही पा सकता है जो संयम से उसका उपयोग करता है। संयम ही समस्त सिद्धियों का आधार है, और संयम का प्रथम सोपान है-वचोगुप्ति अर्थात्-वाक्-संयम। जो वाणी संयम नहीं रखता, उसकी जिह्वा बोलती रहती है। बहुत बोलने वाली जिह्वा अनावश्यक बोलती रहती है, और अनावश्यक शब्द प्रायः विग्रह और वैमनस्य पैदा करते हैं, जो हमारी प्राण-शक्ति को सोख डालते हैं। वचोगुप्ति से यह समस्त अनर्थ परम्परा दग्धबीज हो जाती है। इसलिये मैं मौन का उपासक हूँ।