संस्कृति के गौरवपूर्ण अतीत का एक अध्याय

September 1992

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महाराणा कुछ कहें, इसके पहले ही महामंत्री उठ खड़े हुए “गोस्वामी जी! आप जानते ही हैं कि दाराशिकोह का पक्ष लेने के कारण औरंगजेब उदयपुर से चिढ़ गया है। फतेहाबाद की पराजय चाहे जिसके दोष से हुई हो, उसने हमारे वारों की एक बड़ी संख्या से हमें हीन कर दिया है।

“हमारा सौभाग्य होगा यदि हम श्रीनाथ जी की अपने यहाँ प्रतिष्ठापित कर सकें।” महाराणा राजसिंह ने महामंत्री की बात काटने की कोशिश की। पर वह कुछ अधिक कह पाते इसके पहले महामंत्री बोल पड़े’-”सिसौदिया कुल शैव है। भगवान एकलिंग हमारे आराध्य हैं।” उनकी राजनीति कहती थी कि बरदशाह से शत्रुता मोल लेना ठीक नहीं है। वे महाराणा को भरे दरबार में न रोक सकते थे, न समझा सकते थे। इसलिए उन्होंने अपना यह ब्रह्मास्त्र प्रयोग किया था।

“श्रीमान!” महाराणा ने देखा कि अन्तः पुर से राजमाता की निजी सेविका दोनों हाथ जोड़े सिंहासन के सामने आ खड़ी हुई है। उसे संकेत से बोलने की अनुमति मिल गई। कदाचित् ही राजमाता किसी राज कार्य में कोई हस्तक्षेप करती थीं, किन्तु यह तो मेवाड़ का बच्चा-बच्चा जानता था कि वे इस दिव्य भूमि की महेश्वरी हैं। उनका संकेत भगवती की अनुल्लंघनीय आज्ञा है मेवाड़ में। उसने केवल इतना कहा “माता जी स्वयं कुछ कहना चाहती हैं” और धीरे से मस्तक झुकाकर लौट गई।

“राजसिंह! तू देव-संस्कृति की रक्षा का प्रहरी मात्र है और तुझे भूलना नहीं चाहिए कि सिसौदियों का सिंहासन का पुरुषों के लिए नहीं है।” सुकोमल कण्ठ, किन्तु बड़ा सुदृढ़ स्पष्ट स्वर सिंहासन के पीछे यवनिका के भीतर से आया।

“माता!” गोस्वामी गोविन्दराय जी दोनों हाथ जोड़े खड़े हो गए यवनिका की ओर मुख करके।”

“गोस्वामी जी आप चिंतित न हों।” राजमाता बड़ी नम्रता से कह रही थीं-”नाथ जी की श्री मूर्ति भारत की उज्ज्वल संस्कृति की आभा है-और यह तब तक विलीन नहीं हो सकती-जब तक भारत माता की एक भी संतान जीवित है। राजसिंह! देखता क्या है? उठ अपने कर्तव्य का पालन कर।”

“माताजी!” महामंत्री कुछ कहने के लिए खड़े हो गए हाथ जोड़ कर।

“राजपूत को राजनीति नहीं चाहिए महामंत्री जी!” जैसे माता छोटे शिशु को झिड़क रही हो, उनके स्वर में वात्सल्य था-” हम में से प्रत्येक का दायित्व है कि वह संस्कृति की रक्षा और उसके विस्तार के लिए आत्माहुति देने के लिए तैयार रहे और संस्कृति की रक्षा का अर्थ है उसके प्रतीकों का सम्मान अक्षुण्ण रहे। देव मूर्तियाँ हमारी गरिमा संस्कृति की प्रतीक हैं- इसके उज्ज्वल विस्तार पर फहराने वाली ध्वजा है। देश की नारियाँ इसका हृदय हैं, जीवन के शाश्वत मूल्य इसका प्राण-इनका अपमानित तिरस्कृत करने वाले को दण्डित होना पड़ेगा, वह चाहे कोई भी क्यों न हो। इस महान संस्कृति की रक्षा में सन्नद्ध प्रहरी अपरिमित सौभाग्य के स्वामी बनेंगे।”

“धन्य हो माता!” गोस्वामी जी की आँखों से अश्रु बिन्दु टपकने लगे। सभी मौन थे। क्षण के पल में , पल के दिवस और मास में बदलने के साथ ही वह समय भी आ पहुँचा जब फाल्गुन कृष्ण 7 सं. 1728 में श्री नाथ जी की प्राण प्रतिष्ठा सम्पन्न होने लगी ।

प्राण प्रतिष्ठा सम्पन्न ही हो रही थी तभी महाराणा राजसिंह राजमाता के पास पहुँच कर कहने लगे-माँ रूपनगर से पत्र आया है। रूपनगर को दुर्बल राज्य समझकर बादशाह ने संदेश भेजा है-”अपनी कन्या को विवाह में दो या युद्ध के लिए प्रस्तुत रहो।” राजमाता ने पत्र पढ़कर लौटा दिया-”बेटा! इसमें पूछने की क्या बात है? एक पवित्र कुमारी अपनी रक्षा के लिए पुकारेगी तो सिसौदिया अस्वीकार कैसे करेगा। फिर तेरे लिए अब पूछने की क्या बात है-तू तो संस्कृति का रक्षक है। इसकी रक्षा में अपनी सामर्थ्य की आहुति दिए जा।”

कुछ कहने को है नहीं। रूपनगर की राजकुमारी को संरक्षण मिला। बेचारा दिल्ली का बादशाह वहीं कुढ़कर रह गया। उसे ऐंठते देख उसी के दो महान सेनापति जयसिंह और यशवन्त सिंह उठे थे-”सम्राट! मेवाड़ हमारे श्रद्धा का स्थान है। भगवान एकलिंग और श्रीनाथ जी हमारे आराध्य हैं। आप रूपनगर के साथ अन्याय कर रहे थे। अब हम राजपूतों को महाराणा के पीछे खड़े होना है।”

यहीं तक इति नहीं हुई। महाराणा राजसिंह का धिक्कारपूर्ण पत्र मिला-बादशाह को। वह हारकर बैठ जाने वाला नहीं था। जिसने अपने पिता और भाइयों के साथ कृतज्ञता नहीं दिखलाई, वह राजपूत सेनापतियों के प्रति कृतज्ञ हो सकता था? लेकिन जयपुर और जोधपुर को भी शत्रु बनाने का साहस उसमें नहीं था। महाराज जयसिंह को उसने महाराष्ट्र भेज दिया शिवाजी से संग्राम करने और महाराज यशवंत सिंह को अफ़गान युद्ध में काबुल भेजा उसने।

“माँ! जोधपुर की राजमाता शरण लेने आ रही हैं।” सचमुच महाराणा राजसिंह जैसे शरण देने के लिए ही पृथ्वी पर आए थे। भारत की ऋषि संस्कृति की सजगतापूर्वक रक्षा यही एक मात्र व्रत हो गया उनका। कृतघ्न बादशाह के लिए महाराज यशवन्त सिंह काबुल में मारे गए और वह उन्हीं के पुत्रों को बन्दी बनाने की धुन में लग गया। छोटे- छोटे बच्चों को लेकर विधवा महारानी मेवाड़ के महाराणा की शरण आ रही थी ।

“तू तो अपनी सनातन संस्कृति कर रक्षक हो गया है, बस-कर्तव्य पालन किए जा।” राजमाता ने

हाथ उठाकर आशीर्वाद दे दिया।

यहीं दिल्ली के सम्राट से युद्ध का सीधे श्री गणेश हुआ। क्या हुआ जो एक बार विशाल यवनवाहिनी के लिए राजधानी खाली करके महाराणा अरावली के वनों में चले गए। यह युद्ध नीति तो मेवाड़ को हिन्दू कुल सूर्य महाराणा प्रताप से उत्तराधिकार में मिली थी। अरावली की घाटी में राजकुमार जयसिंह और भीमसिंह शत्रु सेना इसलिए अधिकार कर सकी कि वह पर्वतीय मार्ग से नहीं आयी।

“राजसिंह से हम लोग बेकार डरते थे। यह काफिर डरपोक ही निकला ।” मुगल सेनापति उदयपुर को खाली पाकर निश्चिन्त हो गया था। उसके सैनिक आमोद-प्रमोद में लग गए थे। “बहुत माल है काँकरोली में । कल हम वहाँ कूच करेंगे।”

“काँकरोली की ओर उठने वाली आँखें तीरों से नहीं हमारे भालों से फोड़ दी जाएँगी।” पता नहीं कहाँ से राजकुमार जयसिंह आ धमके। उनका अश्व दो पैरों पर खड़ा था और भाला धमक ही दिया था उन्होंने सेनापति पर। वह तो अँगुल दो अँगुल के अन्तर से बच गया।

“जय एकलिंग।” राजपूत वीरों का विजय घोष गूँज रहा था। छपाछप खड्ग बज रहे थे और भयभीत भागते, गिरते पड़ते शत्रुओं के शवों से धरा ढकती जा रही थी।

“मैं आपकी शरण हूँ। महज मेरी जान छोड़ दें, निकल जाने का रास्ता दे दें मुझे !” मुगल सेनापति ही नहीं, मुगल शहजादे ने गिड़गिड़ा कर महाराणा से यह भीख माँगी । वह करता भी क्या, मेवाड़ की ओर राजपूत वीर पीछा दबाए बढ़े आ रहे थे और गोलकुण्डा का सामने का मार्ग महाराणा के अनुचर भीलों ने रोक रखा था। वे भील, जिनसे दया की आशा नहीं की जा सकती। एक मात्र महाराणा ही शरण दे सकते थे।

कल शहजादे की यह दशा नहीं थी, स्वयं सम्राट आया मेवाड़ के महापर्वत पर टक्कर मारने । उनका सेनापति दिलावर खाँ-राठौर वीर दुर्गादास और रूपनगर के सोलंकी महाराज की चपेट में आकर दुबक कर भाग गया बादशाह को दुर्गादास से प्राण बचाने कठिन हो गए। अजमेर जाकर उसे शरण लेनी पड़ी। दक्षिण के युद्ध को रोककर शाहजादा-मुअज्जम को उसने बुला लिया। लेकिन उस बेचारे के भाग्य में भी पराजय ही लिखी थी। एक ओर महाराणा राजसिंह-राजकुमार जयसिंह के साथ उसका सेना को स्थान-स्थान पर पराजित कर रहे थे। दूसरी ओर राजकुमार भीमसिंह गुजरात, इन्दौर, सिद्धपुर-एक के बाद दूसरे स्थानों पर विजय पताका फहरा रहे थे।

“सब काफिर एक हो गए।’ हाँफ गया दिल्ली का घमंडी सम्राट। ‘राजसिंह की बात छोड़ो , मेवाड़ का कोई-कोई दरबार का गुलाम भी सुलह चाहे तो मैं चित्तौड़ और मारवाड़ दोनों छोड़ दूँगा।

मुगल दरबार का दूत आया यह संदेश लेकर। मेवाड़ के सरदारों ने सन्धि स्वीकार की। ‘मुझे शरण दो, मेरी जान बख्शो। ‘ इसके अतिरिक्त सम्राट की यह सन्धि और क्या थी। यह गौरव किसने दिया राजसिंह को? निश्चय ही संस्कृति रक्षा के पावन कर्तव्य ने। आज वही पावन कर्तव्य देव-संस्कृति की रक्षा और प्रसार-विस्तार का दायित्व-पुनः सजग पहरुओं को आवाज दे रहा है। भविष्य उदय होने वाले सौभाग्य सूर्य की सुनहली रश्मियाँ-इन्हीं संस्कृति सेनानियों के जीवन को प्रकाशमय बनाने वाली साबित होंगी।


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