प्राणाग्नि का पुँज यह देह पिंजर

September 1992

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प्राण को ‘अग्नि’ की संज्ञा दी गई है। शरीर के सारे क्रिया-व्यापार इसी से संचालित होते हैं। इस दृष्टि से यह काफी महत्वपूर्ण है। जब यह नियमित-नियंत्रित होती है, तो शरीर को चेतना व आवश्यक शक्ति प्रदान करती है, किन्तु इसकी विकृत अवस्था तरह-तरह के विग्रह खड़े करती है। क्रोध, कलह, दर्प, दुराचरण सब इसी के परिणाम हैं। यहाँ तक तो इसकी स्थिति सहज सामान्य कही जा सकती है, परन्तु जब इसमें कल्मष की अतिरिक्त पर्त चढ़ती और दिशाहीन बनती है, तो शरीर को ही जला कर खाक करने के लिए उद्यत हो जाती है।

इस प्राणाग्नि को विज्ञान-वेत्ताओं ने भी खोजा और स्वीकारा है। उनके अनुसार यह ऊर्जा न सिर्फ जीव-जन्तुओं, वरन् वृक्ष-वनस्पतियों में भी समान रूप से पायी जाती है। मानवी शरीर में इसकी मात्रा अधिक होती है। यह मात्रा इतनी होती है, जितनी से 20-60 वोल्ट तक का विद्युत बल्ब जलाया जा सके। यही बिजली आँखों के माध्यम से संसार दिखाती है, हृदय में अवस्थित होकर रक्त-संचरण का काम करती है और मस्तिष्क द्वारा विभिन्न प्रकार के शारीरिक क्रिया-कलापों का नियंत्रण करती है। पर जब यह असंतुलित होती है, तो शरीर-सत्ता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ा प्रतीत होता है। आये दिन ऐसी घटनाएँ घटती ही रहती हैं।

पिछले दिनों की ही बात है। संसेक्स की एक अधेड़ महिला अपनी कुटिया में कुछ काम कर रही थी कि न जाने कैसे उसके शरीर से एक धधकता शोला प्रकट हुआ, जिसने देखते-देखते कुटिया समेत उसे भस्मसात् कर दिया। लंदन के “डेली टेलीग्राफ” अखबार ने सन् 1989 में एक खबर छापी थी कि लन्दन के एक मेकेनिक कार्य कर रहा था कि अचानक उसके वस्त्र में आग लग गई। बड़ी मुश्किल से तात्कालिक सक्रियता के कारण उसकी आग बुझ सकी, पर इस प्रयास में वह गंभीर रूप से जल गया। महीनों के उपचार के बाद जब उसकी स्थिति कुछ सुधरी , तो उससे अग्नि के बारे में पूछताछ की गई। उसका कहना था कि आग उसके शरीर से ही प्रकट हुई थी और कपड़ों में लग गई।

कुछ वर्ष पूर्व जापान के ‘टोकियो न्यूज’ नामक दैनिक में एक घटना छपी थी। उसके अनुसार ‘सैनियो’ कम्पनी का मालिक अपनी फैक्टरी के अग्निकाँड से परेशान था। उसके यहाँ पिछले दो वर्षों (सन् 1980-82) में दस बार आग लग चुकी थी, पर अग्निकाँड का कारण किसी प्रकार ज्ञात न होता था। अन्ततः उसने बुकलिन यूनिवर्सिटी के विज्ञान के प्रोफेसर तोसिको मासाचू से सहायता माँगी। प्रोफेसर ने फैक्टरी का सूक्ष्म निरीक्षण करने के उपरान्त एक दिन सभी कर्मचारियों को एक स्थल पर इकट्ठा किया। इसके बाद उनमें से प्रत्येक को वोल्टमीटर से जुड़ी एक धात्विक पट्टिका से होकर गुजरने को कहा। इस क्रम में प्रायः देखने में आता कि हर बार वोल्ट मीटर की सुई में थोड़ी हलचल मचती और वह पुनः अपने निर्धारित स्थान पर जा टिकती। काफी समय तक यही क्रम चलता रहा। वोल्टमीटर की सुई में कोई असामान्य हलचल न दिखाई पड़ी। मासाचू परीक्षण में जुटे रहे। उसी बीच एक महिला के पैर पट्टी पर पड़े । सुई में तीव्र हलचल हुई और वह वोल्टमीटर की उच्च बिन्दु पर जा टिकी। आग का रहस्य समझ में आ गया। उसकी अत्यधिक शरीर विद्युत ही इसके लिए जिम्मेदार थी। उसे फैक्टरी के ऐसे भाग में भेज दिया गया, जहाँ जलने व आग पकड़ने जैसी कोई वस्तु न थी। इसके बाद अग्निकाँड का सिलसिला बन्द हो गया।

आस्ट्रेलिया (होबार्ट) की एक घटना है। सन् 1985 की शाम मैकडोनल्ड नामक एक कार चालक अपनी गाड़ी को गैरेज में रख कर निकल ही रहा था कि अपने कपड़ों से निकलती लपटों को देख कर चौंक पड़ा। चीखा-चिल्लाया तो भीड़ एकत्रित हो गई। कपड़े सारे नोंच डाले गये, किन्तु आग शरीर को झुलसा चुकी थी। वह 70 प्रतिशत जल चुका था। अस्पताल में बचने का उसे हर संभव प्रयास किया गया, पर वह बच न सका। कारण ढूंढ़ने वाले सिगरेट-सिगार के टुकड़े भी घटनास्थल पर नहीं दिखाई पड़े, जिससे आग का कारण धूम्रपान को समझा जा सके। अन्ततः जाँचकर्ताओं ने इस घटना को भी शरीर विद्युत का ही परिणाम बताया।

मनुष्य के साथ घटने वाली ऐसी घटनाओं की पुष्टि तो वैज्ञानिक भी कर चुके हैं, पर वे अभी तक इसका कोई समाधान कारक हल नहीं ढूँढ़ पाये हैं। संभव है अगले दिनों इसका मूल कारण खोज पाना शक्य हो जाय। किन्तु अभी तो मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि ऐसा अनियंत्रित प्राण-प्रवाह के कारण ही होता है। यद्यपि जल-मरने की ऐसी घटनाएँ यदा-कदा ही देखने को मिलती हैं, फिर भी प्राण की प्रचण्ड शक्ति को सिद्ध करने वाले ये प्रकरण काफी महत्वपूर्ण हैं इनसे यह अनुमान सरलतापूर्वक लगाया जा सकता है कि यदि प्राण ऊर्जा के प्रवाह को सुनियोजन द्वारा सही दिशाधारा दिया जा सके, तो कैसे विलक्षण करतब दिखाने में यह सफल समर्थ हो सकती है। मात्र इतना ही नहीं अतीन्द्रिय सामर्थ्य के नाम से जानी जाने वाली क्षमता का विकास भी संभव है, जैसा कि कभी-कभी दिखाई पड़ जाता है।

कनाडा के पीटर वान जोन्स के साथ 1979 में एक ऐसी ही घटना घटी। एक बार वे प्रातः टहलते हुए शहर से दूर सुनसान क्षेत्र में पहुँच गये। कँटीली झाड़ियों का वनखण्ड उन के दोनों ओर दूर-दूर तक मैदान में फैला हुआ था। एक धनी झाड़ी के नीचे विश्राम के लिए वे बैठ गये। जूते कुछ समय के लिए उतार दिये। शरीर को शिथिल करने के लिए आँखें बन्द कर लीं, तो जमीन के नीचे चमकीली धातुएँ दिखाई पड़ने लगीं। पहले तो उसे यह आँखों का भ्रम मालूम पड़ा, किन्तु बार-बार आँखों के आगे से वह झिलमिलाहट गई नहीं तो उसे संदेह हुआ। कुछ मजदूरों को लेकर स्थान की खुदाई की गई तो ज्ञात हुआ कि वहाँ स्वर्ण भण्डार है। इसके बाद तो यह उसका धन्धा बन गया। वह प्रायः नंगे पाँव चल करा धरती के नीचे का धात्विक खजाना पता लगाने में अपनी इस क्षमता का उपयोग करता। मनुष्य शरीर की यही बिजली जब विकासग्रस्त होती है तो ऐसा व्यक्ति स्वयं डूबता एवं औरों को भी पतन के मार्ग में घसीट ले चलता है।

मनुष्य जीवन इस प्राणाग्नि को शोधने, सुधारने और परिष्कृत स्तर तक पहुँचा ले जाने का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। यदि इतना संभव हो सका, तो वह चेतना के उच्च आयामों में पहुँच कर उस सर्वोच्च स्तर में प्रतिष्ठित हो सकता है, जिसके लिए आये दिन लोग कितने ही कौतुक करते और टंट घंट रचते देखें जाते हैं, किन्तु फिर भी छूँछ ही रहते हैं। हम प्राण को परिष्कृत करें और सही अर्थों में प्राणवान बनें। इसकी सामर्थ्य इसी स्थिति में फलित होती और व्यक्ति को विलक्षण विभूतियों से ओतप्रोत करती हैं।


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