इस युग की व्याधि : उदासी

September 1992

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रक्ताल्पता की स्थिति में शरीर के अवयवों को समुचित पोषण नहीं मिलता इसलिए वे दुर्बल, निस्तेज, निष्क्रिय एवं बेढंगे हो जाते हैं। समुचित शारीरिक श्रम करने की क्षमता नहीं रहती। किसी प्रकार शरीर गाड़ी भार घसीटता रहता है। इसी प्रकार आहार में समुचित पोषक तत्व न होने की स्थिति में भी कुपोषण अपना दुष्परिणाम प्रदर्शित करता है। हाथ पैर टेढ़े हो जाते हैं। पेट बढ़ जाता है। पतले दस्त लग जाते हैं। जुकाम बना रहता है।

बीमारियों के लक्षण तो सर्वविदित हैं, पर रक्ताल्पता और कुपोषण जैसी व्यथाएँ ऐसी हैं जो न तो अपना वास्तविक कारण विदित होने देती हैं और न उपचार का ही कोई सुयोग बनता है। ऐसे लोग जिस तिस प्रकार मौत के दिन पूरे करते हैं। दूसरों की सहायता कर सकना तो दूर अपने आप का स्वावलम्बनपूर्वक निर्वाह नहीं कर पाते ।

इसी प्रकार का एक मानसिक रोग है- अवसाद। इसे उदासी भी कहते हैं। आवश्यक नहीं कि इसका प्रत्यक्षतः कोई बड़ा कारण हो। छोटी मोटी प्रतिकूलताएँ, कठिनाइयाँ, समस्याएँ तो हर किसी को सताती रहती हैं। इच्छित परिस्थितियां तो इस सृष्टि के कर्ता में विकृतियाँ उपद्रव मचाती दीखती रहती हैं। भगवान का प्रतिद्वन्द्वी शैतान है। संसार में निरन्तर चलने वाले अभाव, विग्रहों और अन्यायों की व्यथा विष्णु लोक तक अपनी पुकार पहुँचाती है तो नारद को पता लगाने और समाधान सुझाने के लिए नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे आना जाना पड़ता है। फिर सामान्य मनुष्यों का तो कहना ही क्या? उनमें से कदाचित् ही कोई ऐसा हो जो अपने को सर्वसुखी कह सके। जिसका कोई प्रतिद्वन्द्वी न हो। जिसे कोई व्यथा बेचैनी सताती न हो। ऐसी दशा में हर किसी जीवन संतुलन बनाये रहने वाले को धैर्य, साहस एवं पराक्रम से काम लेना पड़ता है। इन गुणों का मनुष्य के मानसिक धरातल को सुव्यवस्थित रखने वाला मानना चाहिए।

जिनमें इन गुणों की कमी होती है, उन्हें छुट-पुट बातें ही पहाड़ के समान भारी पड़ती हैं। वे तिल का ताड़ और राई का पर्वत बनाते हैं। समझते हैं कि आसमान हमारे ही ऊपर टूट कर गिरने वाला है। ऐसी स्थिति में रहने वाले प्रायः भयभीत रहते हैं। शंका शंकित बने रहते हैं। अविश्वास और आशंकाएँ घेरे रहती हैं। उन्हें अक्सर बेचैनी एवं उद्विग्नता का शिकार पाया जाता है। रक्तचाप, हृदय की धड़कन अनियमित अव्यवस्थित गति से चलने लगती है ऐसे व्यक्ति आत्मरक्षा की दृष्टि से ऐसे कृत्य कर बैठते हैं जिनकी तनिक भी आवश्यकता नहीं होती। भय ही उनसे अकरणीय कराता और हर घड़ी अधीरता के चंगुल में फँसाये रहता है।

यह बढ़ी हुई व्यथा की बात है। मानसिक संतुलन जब मध्यम स्थिति में रहता है तो मनुष्य उदास रहने लगता है। अपने को सब ओर से उपेक्षित समझता है। न हम किसी के , न कोई हमारा स्तर की नीरसता छाई रहती है। उत्साह किसी काम तथा व्यक्ति के प्रति नहीं रहता। सभी विराने और भारभूत प्रतीत होते हैं। काम करने को जी नहीं चाहता। यदि विवशता से कुछ किया भी जाय तो वह आधा अधूरा-लँगड़ा-लूला-काना कुबड़ा , बेढंगा, बेतरतीब होता है। न उससे अपने को संतोष होता है और न सम्बन्धित किसी और को। इस प्रकार बेगार भुगतने के रूप में किये गये काम से न अपने को संतोष होता है और न कराने वाले किसी और को।

ऐसे व्यक्ति अपने को निरर्थक मानते हैं और सोचते हैं धरती से उठ जाये तो अच्छा है। जब यह अवसाद गहरा हो जाता है तो कभी- कभी आत्महत्या तक कर बैठते हैं। जिनमें साहस नहीं होता वे उतना बड़ा कदम तो नहीं उठा पाते, पर चर्चा प्रसंग कहते अक्सर रहते हैं कि इस जीवन से मरण अच्छा पर्यवेक्षकों के अनुसार इस समय ‘डिप्रेशन’ रोग ग्रसित लोगों की संख्या असाधारण और आश्चर्यजनक है। अमेरिका जैसे साधन सम्पन्न देश में इस प्रकार के रोगियों की संख्या प्रायः डेढ़ करोड़ है। इन में तीस हजार के करीब लोग तो सचमुच आत्महत्या कर बैठते हैं। इस मनःस्थिति का शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है। फलतः उनके दलदल जैसे मस्तिष्क में से रोगों के कीटाणु बनते और फैलते हैं। फलतः कोई न कोई छोटे बड़े शारीरिक रोग भी उन्हें घेर लेते हैं। यों चिकित्सा करने पर वे आसानी से अच्छे हो सकते थे, पर उस साधारण सी व्यथा को ही मृत्युदूत मानकर दिन’-दिन अपने आप में गलते और घिसते जाते हैं। यह अस्तव्यस्तता मस्तिष्क और शरीर को इस योग्य बना देती है कि वह अपंग जैसी स्थिति में पहुँच जाते हैं। ऐसी विचित्र हरकतें भी कभी-कभी करने लगते हैं जैसे कि भूत-प्रेतों के आवेशग्रस्त लोग करते हैं। मित्रों की सहानुभूति तथा सान्त्वना भी उनके काम नहीं आती।

ऐसे व्यक्ति का उपचार यह है कि उन्हें नई बदली हुई परिस्थितियों में रखा जाय। रचनात्मक विचारों की शक्ति से अवगत कराया जाय। अकेले न रहने दिया जाय और उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं का स्वप्न दिखाया जाय। इसमें बच्चों को बहलाने जैसी अत्युक्ति भी बरती जाय तो बरतनी चाहिए। ऐसी मनोदशा वाले व्यक्ति को किसी न किसी काम में लगाये रखा जाय। दूसरों को उनसे बात करने और सफलताएँ जिनने प्राप्त की हैं, उनके उदाहरणों का ऐसा चित्र खींचा जाय कि मनोबल के सहारे प्रतिकूल परिस्थितियों को भी कैसे अनुकूल बनाया जा सकता है।

सबसे अच्छा यह है कि रोगी स्वयं ही यह अनुभव करे कि निषेधात्मक चिन्तन के कारण मैं स्वयं ही विपत्ति में फँसता जा रहा हूँ। उससे उबरना और निकलना पूरी तरह मेरे बस की बात है।

कुछ रोग या कष्ट ऐसे होते हैं जिन्हें औषधि उपचार पर दूसरों के सहयोग से अच्छा किया जा सकता है। किन्तु कुछ ऐसे होते हैं जो अपने ही बुलाये होते हैं और उसे स्वयं ही सुधारा जा सकता है।

उदासी अपनी निज की भूल है अन्यथा संसार में उत्साहवर्धक बहुत हैं। सहयोगियों की भी कमी नहीं। प्रकृति की सुन्दरता और मनुष्य की कलात्मक संरचना में जिधर भी दृष्टि डाली जाय उधर ही उल्लास भरा वातावरण हो सकता है। उन की ओर नजर उठाकर देखा जाय और गंभीरता से चिन्तन किया जाय तो प्रतीत होगा कि उदासी का काल्पनिक लबादा अकारण ओढ़ रखा गया है। उसे आसानी से उतारा जा सकता है। जब वास्तविक कठिनाइयों से घिरे हुए व्यक्ति हँसते-हँसते उनका सामना कर सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि जिनने निरर्थक का काल्पनिक जाल जंजाल बुन रखा है वे उसे मकड़ी के ताने की तरह तोड़कर न फेंक सकें॥ उदासी ऐसी व्यथा नहीं है जिससे मनुष्य स्वयं पीछा न छुड़ा सकें।

उदासी और प्रसन्नता के बीच की एक अस्त व्यस्त मनःस्थिति और भी है उसे अर्ध विक्षिप्तता कह सकते हैं। वह भी ऐसी है जो अपने ही चिन्तन के साथ जुड़ी हुई है। यदि मनोबल में एक करारा झटका लगा दिया जाय तो इस अर्धमृत अवस्था में ले पहुँचने वाली उदासी से सहज छुटकारा पाया जा सकता है।


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