जीते तो जिन्दा दिल हैं, कायर बेमौत मरते हैं।

September 1992

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कठिनाइयाँ, प्रतिकूलताएँ हर किसी के सामने आती हैं। सुखद संभावनाओं की तरह दुखद-परिस्थितियां आ धमकने की आशंका भी हर किसी के सामने विद्यमान रहती है। जो घटित हो रहा है, संभावित है उसमें ऐसा कुछ भी सोचा जा सकता है जिसमें विपत्ति आने का अनुमान लगा लिया जाय। इतने पर भी यह निश्चित नहीं कि वैसा होगा ही। यह भी हो सकता है कि आशंका निर्मूल निकले । सामान्य क्रम ही चलता रहे अथवा जो अनिष्ट सोचा गया था उसके विपरीत सुखद संभावना सामने आ खड़ी हो। जिस व्यक्ति से आक्रमण करने की, हानि पहुँचाने की बात सोची गई है, हो सकता है उसके मन में वैसा कुछ हो ही नहीं। अपडर के कारण भी तिल का ताड़ बनते और झाड़ी से भूत निकलते देखा गया है। यह मात्र अपने ही निषेधात्मक चिन्तन की काली छाया होती है। भय की आशंकाओं में से बहुत ही न्यून परिणाम में चरितार्थ होती देखी गई हैं। अधिकाँश तो कुकल्पनाएँ ही होती हैं।

डरते रहने से मन दुर्बल होता है और अकारण ही उतना खून सूखता है जितना कि वास्तविक विपत्ति से जूझने पर भी न सूखता। भय से असंख्यों मनोरोग उठ खड़े होते हैं। साहस टूटता है और आशंका से बचने या जूझने के लिए जिस कौशल-संतुलन की आवश्यकता थी वह समय से पूर्व ही चुक कर समाप्त हो जाता है।

विपत्ति मनुष्य पर ही आती है। वे उससे जूझते भी हैं और कोई रास्ता न रहने पर धैर्यपूर्वक सहते भी हैं। इस समूची प्रक्रिया से गुजरने पर जितनी क्षति उठानी पड़ती है उसकी तुलना में डरपोक, भयभीत लोग बिना संकट का सामना किये भी कहीं अधिक घाटा उठा चुके होते हैं। ऐसे लोग बाह्य रूप से देखने पर स्वस्थ भले ही दिखाई दें, पर वे मानसिक रूप से परेशान रहते हैं। शरीर भीतर ही खोखला, निस्तेज और दुर्बल बनता जाता है। रोगी शरीर को औषधि-उपचार तथा अच्छे आहार-विहार से रोगमुक्त किया भी जा सकता है, पर यदि मनः संस्थान लड़खड़ाने लगे तो मनुष्य विक्षिप्तों की श्रेणी में जा पहुँचता है और मस्तिष्कीय विशेषताएँ खो बैठने पर पशुवत् निरर्थक जीवन जीने को विवश होना पड़ता है। भय की हानियाँ समझना चाहिए और उससे मुक्त रहने का प्रयास करना चाहिए।

न्यूयार्क की ‘एकेडमी आफ मेडिसिन’ के चिकित्सा विज्ञानियों ने भय के प्रभावों के बारे में गहरी खोजबीन की है। उनने निष्कर्ष निकाला है कि भयाक्रान्त होने अथवा चिन्तातुर बने रहने पर मस्तिष्क में एक विशेष प्रकार का रसायन उत्पन्न होता है जो रक्त प्रवाह में मिलकर शरीर के अंग-प्रत्यंगों में संकुचन पैदा करता है। यह भी देखा गया है कि भय मुक्त होते ही यह विचित्र रसायन स्वतः विलुप्त हो जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि रक्तचाप, हृदयरोग, उदरशूल, मधुमेह, दमा जैसी बीमारियाँ ज्यादा समय तक चिन्ताग्रस्त अथवा भयग्रस्त रहने के ही दुष्परिणाम हैं। इससे उत्पन्न मस्तिष्कीय रसायन शरीर के आन्तरिक अवयवों को प्रभावित कर उनकी सामान्य प्रक्रियाओं को तो बाधा पहुँचाता ही है-स्नायु संस्थान भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता।

हर वक्त भय की आशंका से घिरे रहने पर मस्तिष्कीय क्षमता पर घातक प्रभाव पड़ता है। सोचने विचारने की क्षमता का हास होने लगता है। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जार्ज प्रेस्टन ने अपने विविध परीक्षणों के उपरान्त बताया है कि इससे व्यक्ति पागल तक हो सकता है। इतना ही नहीं ऐसे व्यक्ति समीपवर्ती लोगों को भी संक्रामक रोगों की तरह व्यथित कर देते हैं उन्होंने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध कर दिखाया है कि माता के भयाक्रान्त होने पर उसकी गोद में पड़ा शिशु भी रोने लगता है। इसी तरह के अध्ययन परीक्षण कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के अनुसंधान-कर्ताओं ने किये हैं और निष्कर्ष निकाला है कि डर छूत का रोग है।

डरपोक लोगों के साथ रहकर डरपोक और हिम्मत वाले लोगों के साथ रहकर आदमी बहादुर हो जाता है। इसकी पुष्टि में उन्होंने कई प्रमाण भी जुटायें हैं। उनके अनुसार आदिवासी कबीलों के बच्चे भेड़िये, शेर, चीते जैसे हिंस्र जानवरों को देखकर न तो भयभीत होते हैं और न ही रोते चिल्लाते अथवा भागकर छिपने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु शहरी एवं ग्रामीण अंचलों के बच्चों को प्रायः देखा जाता है कि खूँखार, जंगली जानवरों के नाम लेते ही वे डरने लगते हैं। उक्त वैज्ञानिकों ने पाया है कि भयातुर व्यक्तियों की रिकार्ड की गई आवाज को सुनकर भी बहुत से लोग भयभीत हो जाते हैं। एक ऐसे ही प्रयोग-परीक्षण में जब उन्होंने मनोविज्ञान के विशेषज्ञों को डरे-सहमे लोगों की आवाज को टेप रिकॉर्डर के माध्यम से सुनाया तो उसके आश्चर्यचकित कर देने वाले परिणाम सामने आये। पहले जो मनोविज्ञान विशारद शान्त एवं प्रसन्न चित्त थे, रिकार्ड की हुई आवाज को सुनते ही उनकी प्रसन्नता न जाने कहाँ गायब हो गई। उनमें से कुछ को बेचैनी महसूस होने लगी, तो अन्य सशंकित हो एक दूसरे की ओर ताकने लगे। सबके चेहरों पर चिन्ता एवं शंका के भाव उभर आये। परीक्षणोंपरांत सभी ने स्वीकार किया वह सभी डर गये थे।

कोलम्बिया विश्वविद्यालय के नेत्र विशेषज्ञों ने अनुसंधान करके इस तथ्य को उजागर किया है कि भय का नेत्रों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। सामान्य डर से दृष्टि क्षमता कम हो जाती है जबकि अधिक डरावने दृश्य उपस्थित हो जाने पर व्यक्ति बेहोश भी हो जाता है। कुछ वर्ष पूर्व इंग्लैण्ड में एक ऐसी फिल्म दिखाई जा रही थी जिसके अंतर्गत कुछ भयोत्पादक दृश्य थे, जिन्हें देख कर कई दर्शक बेहोश हो जाते थे और उन्हें अस्पताल पहुँचाना पड़ता था। बाद में उस अंश को निकाल दिया गया। मूर्धन्य चिकित्सा विशेषज्ञों ने इस तथ्य को भी स्वीकार किया है कि तीव्र डर और चिंता के कारण मनुष्य के बाल रातोंरात सफेद हो सकते हैं।

इलीनोयस इन्स्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी के अनुसंधानकर्ता विशेषज्ञों का कहना है कि चिन्तातुर एवं डरपोक लोग कई तरह के मानसिक रोगों से ग्रस्त होते हैं, उनमें कई प्रकार की सनकें पाई जाती हैं। कुछ तो अपनी कल्पनाओं के प्रति इतने दृढ़ निश्चयी होते हैं कि दूसरों के सुझाव या सत्परामर्श मानने को तैयार भी नहीं होते। इनमें अधिकाँश व्यक्ति भविष्य की चिन्ता, व्यापार-व्यवसाय में घाटे की आशंका, घर-परिवार या बच्चों के भविष्य के प्रति आशंका से घिरे रहते हैं। तो कुछ आग, बिजली, हिंस्र पशुओं, दुर्घटनाओं जैसे ‘फोबिया’ के शिकार होते हैं। विद्यार्थी परीक्षाओं में परिणाम को लेकर चिंतातुर देखे जाते हैं। वस्तुतः यह सब मनोबल की कमी और अदूरदर्शिता का ही परिणाम है। कल्पनाओं के परिमार्जन और उन्हें विधेयात्मक दिशा में लगा देने भर से बहुत हदतक डर के जंजाल से छुटकारा मिल जाता है।

वैज्ञानिक अध्ययनों द्वारा यह तथ्य भी प्रकाश में आया है कि बुद्धिमानों एवं विवेकशीलों पर अपडर का प्रभाव नहीं पड़ता। अल्पबुद्धि के भावुक लोगों को ही इस महाव्याधि के शिकार बनते देखा जाता है। महापुरुषों, आत्मवेत्ताओं के जीवन में इसके लेशमात्र भी दर्शन नहीं होते। ऐसे आदर्शचरित्र सामने रखने पर हर कोई भय और आशंका से सहज ही छुटकारा पा सकता है। गाँधी, बुद्ध, टैगोर, बिनोवा, दयानन्द, रामतीर्थ, विवेकानन्द, महावीर आदि महामानवों के जीवन के अनेकानेक घटना प्रसंग ऐसे हैं जिनमें मृत्यु उपस्थित कर सकने वाली परिस्थितियों में भी वे निर्भय एवं निश्चिन्त रहे। वस्तुतः आस्तिक, आध्यात्मिक एवं धार्मिक व्यक्ति के जीवन में भय और चिन्तायें नहीं रहती।

अमेरिका के सुप्रसिद्ध मनःशास्त्री प्रो. डोलार्ड ने सर्पदंश के कई मृतकों का शवोच्छेदन किया तो पता चला कि उनमें से अधिकाँश व्यक्ति भय से ही मृत्यु को प्राप्त हो गये। कुछ को तो किसी कीड़े ने काटा था जिनमें कोई जहर ही नहीं होता, मात्र एक दो व्यक्ति ऐसे थे जिनकी मृत्यु सर्प के वास्तविक जहर के कारण हुई थी।

भय; बेमौत मरने और अकारण घाटा उठाने और काल्पनिक विपत्ति से स्वयं ही लद मरने का एक फूहड़ तरीका है। किसी विद्वान ने सच ही कहा है डरपोक पग-पग पर मृत्यु के झूले में झूलता है जबकि साहसी को समय आने पर एक बार ही मरना पड़ता है।


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