धर्म का प्रयोजन, अंतःकरण की शुद्धि

September 1992

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“भगवन्! यह जन अपने परम भट्टारक की ओर से श्री चरणों में प्रणत है। राजकवि ने साष्टाँग प्रणाम करके घुटनों के बल बैठकर प्रार्थना की । यों तो आपका आशीर्वाद भी काफी होगा उनके यज्ञ की सम्पूर्णता के लिए किन्तु हमारे महाराज अपने यज्ञीय आचार्य पीठ पर इन चरणों की अर्चा करने को अत्यन्त उत्कण्ठित हैं।”

वराणसी भगवान विश्वनाथ की प्रियपुरी तो है सरस्वती के वरद पुत्रों की सनातन क्रीड़ा भूमि भी है और विद्या तो वीतराग की विभूति है। अब भी सच्चे अर्थों में विद्वान विद्या को विक्रय की कम और वितरण की वस्तु अधिक मानते हैं। आज भी किसी विद्याभिलाषी विद्यार्थी को निराश करना विद्वान की गरिमा के विपरीत माना जाता है और यह जब की बात है, उस समय को बीते शताब्दियाँ हों गई। काशी विद्या का परम केन्द्र और उस पर वहाँ के आचार्य चंद्रमौलि-देश के सभी शासक उनके चरणों में माथा झुकाकर अपने को कृतार्थ ही मानते हैं।

चरणाद्रि (चुनार) वाराणसी का पाश्ववर्ती राज्य है। उसके नरेश प्रायः भगवान विश्वनाथ की वन्दना करने पधारते हैं। आचार्य को प्राणिपात किए बिना अपनी यात्रा तो कभी उन्होंने पूर्ण मानी नहीं, किन्तु यज्ञीय आमंत्रण देने के लिए स्वयं आने का साहस उन्हें नहीं हुआ। वीतराग तपोधन आचार्य का क्या भरोसा वे यदि अप्रसन्न हो जायँ उनके असन्तोष का प्रतिकार करने की बात तो दूर उसे सहन कर लेने की शक्ति भी शायद ही किसी में हो।

राजकवि ब्राह्मण होने के साथ आचार्य के स्नेह भाजन भी हैं। उन्हें सामने पाकर आचार्य का चित्त क्षुब्ध नहीं होगा। प्रार्थना की स्वीकृति की यदि कहीं थोड़ी भी संभावना है तो इसी प्रकार। यह सोचकर ही राजकवि को चरणाद्रि नरेश ने भेजा था। राजकवि ने अपनी प्रार्थना पुनः कह सुनाई यह अयोग्य ब्रह्मबन्धु श्री चरणों के स्नेह से धृष्ट हो गया है। अनुरोध है कि आप यज्ञ की अध्यक्षता करें।

“तुम्हारे यजमान का संकल्प क्या है? वे यज्ञ करके किस उद्देश्य की पूर्ति चाहते हैं?” आचार्य ने सीधे पूछ लिया।

“वे महाप्राण किसी लौकिक लोभ में नहीं हैं।” राजकवि ने कहा। “वे धर्मकाम हैं। यज्ञ सुरेश की सन्तुष्टि के संकल्प से ही होगा और वह पारलौकिक अभ्युदय की सिद्धि करेगा।”

‘अपाम सोममृताऽभमः, आचार्य ने एक श्रुति बोल दी और कहा- ‘यह पुष्तावाणी जिसे प्रलुब्ध करती है, उस बालोद्योग में मेरे जैसे वृद्ध की अभिरुचि सम्भव नहीं है।

“भगवन्!” राजकवि केवल सानुरोध सम्बोधन करके मौन रह गए।

‘धर्म कामनाओं को पूरा करने का साधन नहीं है।’ आचार्य ने शान्त स्वर में कहा। “इस लोक में धर्मानुष्ठान का फल भोग अनेक पुरुष चाहते हैं और स्वर्गोपलब्धि चाहते हैं किंचित उदारचेता। किन्तु दोनों कामनाओं से ग्रसित हैं-बालक हैं। धर्म स्थूल या सूक्ष्म देह की तृप्ति तुष्टि का साधन तो होता है, किन्तु है यह उसका दुरुपयोग ही और ऐसे किसी दुरुपयोग में सहयोग की सम्भावना तुम मुझ से नहीं कर सकते ।”

‘आचार्य।’ राजकवि कुछ कहते इसके लिए समय नहीं मिला। सम्पूर्ण शास्त्र-कवच एवं शिरस्त्राण दूर उतार कर कौशल के महासेनाध्यक्ष उसी समय आचार्य के सम्मुख दण्ड की भाँति भूमि पर गिरे “शरणागतोऽस्मि।”

“वत्स ! इस पुरी में प्रत्येक जन भगवान विश्वनाथ की शरण में है। दण्डपाणि काल भैरव यहाँ पुरीपाल हैं। तुम माता अन्नपूर्णा के आश्रय में

अभय हो।” उन्होंने स्वयं सेनापति को उठाया।

“आप यहाँ और इस प्रकार एकाकी ?” राजकवि ने आगत सेनापति की ओर देखा।

‘नहीं वत्स !’ आचार्य ने रोक दिया, विश्वनाथ के शरणागत के सम्बन्ध में कुछ पूछने का स्वत्व किसी को नहीं है। जगज्जननी अन्नपूर्णा केवल ममतामयी वात्सल्यमयी हैं।

प्रभु। महासेनाध्यक्ष ने स्वयं कुछ कहना चाहा।

‘नहीं-कोई आवश्यकता नहीं कुछ कहने की। तुम गंगास्नान करो और विश्वनाथ अन्नपूर्णा के दर्शन कर आओ। तुम्हारी व्यवस्था वे जग-माता कर देंगी।’ ‘गुरुदेव का संकेत पाकर एक विद्यार्थी आगन्तुक के साथ जाने को उठ खड़ा हुआ।

आगन्तुक के पीछे मुड़ने के कुछ ही देर बाद कौशल नरेश आते दिखाई पड़े । राजन् ! अब तुम्हारा सेनाध्यक्ष भगवान गंगाधर की शरण में है। आचार्य ने अपने पदों में प्रणत कौशल नरेश से कहा।

‘भगवन् ! आपका यह क्षुद्र सेवक इतना मूर्ख नहीं है कि यह कोई धृष्टता करने का साहस करेगा। नरेश ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाया। ‘उसका अपराध क्या है, यह प्रश्न यहाँ कहाँ उठता है? वैसे मैं उसके पीछे ही आया था लेकिन जब पुरी के बगल तक आ गया तो भगवन् विश्वनाथ और दर्शन का लोभ त्याग नहीं सका।

‘तुम विवेकवान हो। वृद्ध आचार्य मुस्कराए। ‘एक जिज्ञासा अनेक वर्षों से है, किन्तु साहस नहीं होता।’ नरेश ने सुअवसर देखकर ही कहा था।

‘तुम्हें ब्राह्मण से भी भय लगता है? आचार्य के अधरों पर स्मित झलका ।

‘रघुवंश की परम्परा ही है यह।’ नरेश का स्वर विनम्र था।

‘मर्यादा पुरुषोत्तम के तुम योग्य वंशधर हो। आचार्य ने सुप्रसन्न कहा। तुम्हारी जिज्ञासा क्या है?

“पर दुःखभंजक महा सम्राट विक्रम का सुयश किस धर्म का सुफल है?” नरेश की स्पर्धा कहाँ है यह छिपाने का कोई प्रयास उन्होंने नहीं किया।

‘वत्स ! सुयश धर्म का फल अवश्य है, किन्तु धर्म का वही परम प्रयोजन नहीं है।’ आचार्य का स्वर ऐसा स्नेह स्निग्ध हो गया, जैसे अपने शिशु को वे समझा रहे हों। ‘सुयश शरीर के नाम का और नश्वर शरीर का नाम-क्या सचमुच तुम्हारा नाम है? राजन ! नाम का सुयश क्या अज्ञान नहीं है? इसका प्रलोभन तुम त्याग सकते हो ।

‘प्रभु नरेश ने सिर झुका लिया। वे गहन चिंतन में डूब जाते किन्तु इसका भी समय उन्हें मिलना नहीं था।

“भगवन् ! यह बेताल प्रणाम करता है।” दूर से घन-गम्भीर स्वर सुनाई पड़ा। “बेताल भट्ट।” आचार्य उठ खड़े हुए और उन्होंने आगे जाकर बलपूर्वक उज्जयिनी के महामंत्री को उठाया-”नीतिशास्त्र के प्रचण्ड पंडित को इस प्रकार प्रणिपात करने की जरूरत नहीं।”

“यह तो अधिकार है इस जन का।” बेताल ने कहा “पुत्र के अधिकार को पिता भी उससे छीन नहीं सकता।”

‘तुम से व्यवहार सम्बन्धी विवाद करके भला कोई विजयी हो सकता है ? आचार्य ने हाथ पकड़ कर बेताल भट्ट को समीप के आसन पर बैठाया।’ शकारि सकुशल तो हैं ?

‘श्री चरणों के दर्शन की उत्कण्ठा लिए वे अनुमति की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस बात ने कौशल नरेश को जितना चौंकाया आचार्य उतना नहीं चौंके।

‘शकारि के शील की समता नहीं है। आचार्य ने अपने छात्रों से कहा। उन्हें ले आओ।

‘भगवन् महाकाल का प्रतिहार विक्रम प्रणिपात कर रहा है। सम्राट भूमि पर गिरे और आचार्य उठाने उन्हें वेग से आगे बढ़े।

‘शकारि ! तुम बहुत समय से आये।’ कुशल प्रश्न समाप्त हो जाने पर आचार्य ने कहा इस बूढ़े ब्राह्मण को तुमने एक अनपेक्षित उत्तर देने से बचा लिया। कौशल नरेश जानना चाहते हैं तुम्हारा सुयश किस धर्माचरण का परिणाम हैं ?

‘मैं सम्राट का अनुचर हूँ । कौशल का राज्य ही नहीं राजधानी की प्रतिष्ठा भी जिनके पुण्य करों से हुई उन्हीं शकारि के सम्मुख अपनी स्पर्धा नरेश को लज्जा जनक लगी।

‘विक्रम धर्म कहाँ कर पाता है प्रभु ? सम्राट ने सरल श्रद्धाभरित स्वर में कहा। फिर सुयश तो भगवान महाकाल का है इसमें मेरा क्या ?

अपने सम्राट के उत्तर से बेताल भट्ट की आँखों में प्रसन्नता झलकी। किन्तु आचार्य ने कहा ‘शकारि । तब तुम धर्म का प्रयोजन क्या मानते हो।

धर्म का पथ तो पीतराग महापुरुषों के द्वारा प्रशस्त होता है। विक्रम गम्भीर स्वर में कह रहे थे। वैसे मैंने धर्म का एक ही प्रयोजन जाना है-अन्तःकरण अर्थ और काम के लोभ से कलुषित न हो और वह महाकाल के चरणों में अनुराग के योग्य बने।

“धर्म से जो सुयश मिलता है ?” कौशल नरेश ने पूछ लिया। ‘अज्ञजन सत्कार्य के परम प्रेरक को न देखकर देह की प्रशंसा करते हैं और उस प्रशंसा पर पुलकित भी अज्ञ ही होते हैं। सम्राट ने नरेश की ओर सस्नेह देखा।

यह चर्चा चल रही थी कि चरणाद्रि के राजकवि ने आतुरतापूर्वक प्रवेश किया। लेकिन एक पल में वे ठिठक गए। उन्हें इसकी कोई सम्भावना नहीं थीं कि आचार्य के समीप स्वयं सम्राट विक्रमादित्य अपने महामंत्री के साथ होंगे। केवल कौशल नरेश के आने का समाचार उन्हें मार्ग में मिला था।

वत्स! इतनी व्याकुलता किसलिए ?’ आचार्य ने पूछा।

‘अभी आपने जिनको भेजा है वे अन्न-जल का त्याग किए बैठे हैं। पता नहीं कब तक वे इस तरह रहेंगे।

“कौन हैं वे महाभाग ?” शकारि ने सहज ढंग से आचार्य की ओर देखते हुए प्रश्न किया।

“कौशल का सेनाध्यक्ष था वह ।” आचार्य ने बतलाया। “हम उसे देखेंगे।” आचार्य के साथ सभी उठ खड़े हुए।

थोड़ी ही देर बाद सभी कौशल के सेनापति के

पास पहुँच गए। उसने आचार्य के साथ सभी को प्रणाम किया। वह कह रहा था। ‘मेरे अपराध से ही मेरा सर्वस्व छीना गया । आज मैं कंगाल हूँ और अब किसी से कुछ नहीं लेना चाहता। जो औढरदानी है उसी से अर्थ लेना है।

‘उससे तुम्हें अर्थ लेना है ?’ आचार्य ने रोका इतने मूर्ख हो तुम कि उस मोक्षदाता से मिट्टी के डेले लेने के लिए मचल रहे हो ?

‘तब?’ मेरा यह उपवास रूप धर्म क्या मुझे श्रेष्ठ सम्पत्ति नहीं दे सकता ? सेनाध्यक्ष ने कहा, न दे। उपवास करके प्राण त्याग तो मैं कर ही सकता हूँ।

तुम्हारा कुछ नहीं छीना गया है। कौशल नरेश ने कहा। केवल तुम्हें राजसेवा से मुक्त किया गया है।

‘मेरा कुछ नहीं छीना गया ?’ वह चौंका। उसका आवेश शिथिल होने लगा। दुःख सर्वस्व चले जाने का दुःख गया तो उसके आवेश का वेग भी चला गया।

‘तुम यहाँ यथेच्छ दान-पुण्य कर सकते हो। तुम्हारी सम्पत्ति अब भी तुम्हारी है।’ नरेश ने आश्वासन दिया।

‘तब मैं उससे धर्म करूंगा। सेनाध्यक्ष शान्त हुआ। उसने आचार्य के चरण पकड़ लिए भगवन् आप .......!

‘तुम किसलिए धर्म करोगे ?’ आचार्य ने पूछा। ‘तुम देखते ही हो कि धर्म के संकल्प मात्र ने तुम्हारी समस्त सम्पत्ति दिला दी है, किन्तु दान-व्रत-यज्ञादि धर्म कार्य संकल्पपूर्वक ही होते हैं।

‘अक्षय सम्पत्ति की प्राप्त के लिए ।’ सेनापति का निश्चय दो क्षण में स्थिर हो गया।

‘समस्त पृथ्वी का सुवर्ण और सारी रत्नराशि तुम्हें मिल जाय कोई उपयोग है उसका तुम्हारे लिए ?’ आचार्य के नेत्र उसके मुख पर स्थिर हो गए।

‘नहीं है।’ सेनाध्यक्ष को निर्णय करने में कुछ क्षण लगे। किन्तु तब धर्म का प्रयोजन क्या है ?’

‘धर्म का प्रयोजन है-मनुष्य में देवत्व का उदय।

और यह तभी सम्भव है-जब मनुष्य वासना तृष्णा और अहंता से मुक्त हो जाय।’

धर्म से मोक्ष ? बेताल भट्ट चौंके।

धर्म का परम प्रयोजन है अन्तःकरण की शुद्धि।

आचार्य ने उनकी ओर देखा । अन्तःकरण के शुद्ध

होने पर ही ज्ञान अथवा भगवत्प्रेम का उदय होता है।

आचार्य के कथन पर सभी के चेहरों पर सन्तोष झलका उन सभी के कदम उनका अनुगमन करने लगे।


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