श्रुति का एक वाक्य है।” माता भुमिः पुत्रोऽहं पृथिव्या।” (भूमि मेरी माता है, मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ)। यह वाक्य व इसका विराट भावार्थ देखकर मन श्रद्धा से भर उठता है-उन ऋषियों की प्रज्ञा के प्रति जिनने अपना सारा जीवन तप-तितिक्षा में होम करके एक ही आकाँक्षा मन में रखी कि सारी धरित्री का कल्याण हो, क्योंकि हम सब उसके बेटे हैं। हम अकेले अपने बारे में, परिवार के बारे में सोचकर वहीं तक सीमित न रहें, अपितु वसुधा को कुटुम्ब मानते हुए समष्टि के हित की चिन्ता करें। भारत कभी जगद्गुरु था, तो इसी कारण । कभी देव संस्कृति का संदेश घर-घर, जन-जन तक पहुँचा था तो इसी कारण । तत्कालीन आर्य, श्रेष्ठ व्यक्ति उदार विचारधारा का एक श्रेष्ठ जीवन जीने वाला ब्राह्मण था।
क्या वह प्रक्रिया पुनः दुहराई नहीं जा सकती ? बीज वंश परम्परा में सदियों तक सुरक्षित रहते हैं। हम ऋषियों की संतान हैं, देवपुरुष हैं, यह गर्व हमें है। स्वाभाविक है, होना भी चाहिए किन्तु क्या हम अपने प्रसुप्त को जगाकर पुनः वह स्वर्णिम अतीत लौटा सकते हैं ? क्या पुनः भारत विश्व मानवता का मार्गदर्शन कर सकता है ? मोटी दृष्टि यहीं कहती हैं कि अभी तो हम आकण्ठ कर्जे में डूबे हैं, अभी सभ्यता के क्षेत्र में आगे बढ़ लें, यही बहुत है। किन्तु सूक्ष्म दृष्टि कहती है कि यदि साधना पुरुषार्थ द्वारा इस सोये दैत्य भारत की क्षमताओं को जगाया जा सके तो आने वाले कुछ वर्षों में ही आस्था संकट मिटता व चारों ओर ऋतम्भरा प्रज्ञा का साम्राज्य छाया दिखाई देने लगेगा। दुर्गम हिमालय की ऋषि सत्ताएँ यही सब करने को आतुर भी हैं, परोक्ष जगत के ऋषि प्रयासों के साथ निमित्त बनने हेतु हम सभी का पुरुषार्थ जुड़ जाए तो इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य का, संस्कृति पुरुष का, कथन सार्थक-सत्य होता दिखाई पड़ेगा। यह युग साधना ही आज महाकाल को हम सबसे अभीष्ट है।