धर्म के विकास का इतिहास मनुष्य की चेतना के साथ कदम से कदम मिला कर चलता आया है। भय और लोभ की व्यक्तिवादी आकाँक्षाओं से आगे बढ़कर मनुष्य अधिक समाज पर निर्भर होते चलने की स्थिति में यह समझने के लिए बाध्य हुआ कि समूहगत हलचलें मनुष्य को अत्यधिक प्रभावित करती हैं। सर्वविदित है कि विज्ञान ने केवल मानव मात्र की आवश्यकताओं की आपूर्ति में महत्वपूर्ण एवं उपयोगी भूमिका निभाई है, वरन् उसने मनुष्य के आचार-विचार, संस्कार, धारणा और चिन्तन पद्धति को भी प्रभावित परिवर्तित करके छोड़ा है। विज्ञान के क्षेत्र में अध्ययन और अनुसंधानों की महत्ता-उपयोगिता इस कदर बढ़ी है कि उसके आगे धर्म दर्शन , साहित्य संगीत, कला आदि के विषय महत्वहीन होते चले गये हैं। कभी जो गरिमा धर्म और अध्यात्म को प्राप्त थी आज विज्ञान ने वह स्थान ग्रहण कर लिया है। तर्क, तथ्य, प्रमाण आदि के अभाव में धर्म की बात को अब संदिग्ध और संदेहास्पद ढंग से देखा जाता है और प्रतिपादन भी उसी के अनुरूप किये जाने लगे हैं।
“ऐन ऐनालिटिकल फिलॉसफी आफ रिलीजन” के लेखक विलियम जुरडीग ने धर्म के विकृत एवं विस्मयकारक स्वरूप को देखते हुए कहा है कि आज के युग में धर्मानुसरण करना साँस्कृतिक पिछड़ेपन का प्रतीक माना जाने लगा है। कार्लमार्क्स और सिगमंड फ्राइड के दर्शन के कारण धर्म को अवज्ञा और अपमानजनक स्थिति का सामना करना पड़ा है। इनकी दृष्टि में धर्म का मनुष्य के जीवन में वही स्थान हैं जो सर्प के जीवन में केंचुए का। जिस प्रकार एक सीमा तक पहुँचने के बाद सर्प केंचुए को खाना बंद कर देता है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य भी बौद्धिक विकास की चरम सीमा पर पहुँच कर धर्म को तिलाँजलि दे बैठता है। लेकिन अब इस तरह के धर्म विरोधी प्रतिपादन महत्वहीन होते जा रहे हैं। लोगों की धर्मपरायण प्रवृत्तियां दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही हैं।
“ऐप्रोचेज टु दि फिलॉसफी आफ रिलीजन” नामक पुस्तक में बोन्सटीन ने जिन की गणना आशावादी एवं आस्थावान दार्शनिकों में की जाती है, कहा है कि वर्तमान में धर्म के प्रति अनास्थावादी दृष्टिकोण की उत्पत्ति अस्थाई है और धर्म का पुनरुत्थान निकट भविष्य में होना सुनिश्चित है। उनका विश्वास है कि ईश्वर स्वयं मानव शरीर धारण करके अधर्म का नाश और धर्म का पुनरुत्थान करेगा। गीता की ‘यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत मान्यता से वे पूर्णतः सहमत हैं। व्राँन्स्टीन ने इस तथ्य की पुष्टि परिगणनात्मक ढंग से की है और पाश्चात्य जगत की निराश एवं अनास्थावादी जनता के अन्तरंग में यह विश्वास जगाया है कि धार्मिक प्रवृत्तियों के विकास की जीवन में नितान्त आवश्यकता है जिनके अभाव से नीरस और निष्क्रिय बनता चला जाता है।
न्यूयार्क के प्रो. ल्यूवा ने ‘गॉड एण्ड मैन’ नामक अपनी पुस्तक में विज्ञान को एक साधन भर बताया है, जबकि धर्म मानव जीवन का साध्य है और उसी के धारण करने से जीवन सब प्रकार सुखी-समुन्नत बनता है। उनने फ्राइड की धर्म विषयक मान्यताओं का खण्डन करते हुए बताया है कि धर्म भ्रम में डालने वाला अथवा मनोरोग नहीं वरन् मनुष्य के जीवन को श्रेष्ठता की दिशा में मोड़ने वाली एक अलौकिक एवं अद्भुत शक्ति है। उनने धार्मिक समस्याओं और परिस्थितियों को समझने के लिए मनोवैज्ञानिक एवं समाज शास्त्रीय तत्वों का जानना भी जरूरी बताया है। जिसके आधार पर यह पता लग सकता है कि मानव जीवन में धर्म आरोपित है अथवा संस्कारगत। वस्तुतः धर्म कोई आरोपण अथवा ऊपर से थोपने जैसी चीज नहीं, अपितु व्यक्ति के अन्तःकरण से उत्पन्न होने वाली एक सद्प्रेरणा है जो उसे सन्मार्ग पर चलने के लिए सदैव अभिप्रेरित करती रहती है। मानव स्वभाव जिज्ञासु, मेधावी और समझदार होने के कारण प्रकृति या संसार के संबंध में एक दृष्टिकोण विनिर्मित करने की आवश्यकता सदैव अनुभव करता आया है, ताकि यह विश्व को सुविकसित और सुनियोजित करने वाली शक्ति का सदुपयोग करके सत्प्रयोजनों में नियोजित कर सके। एक सामाजिक प्राणी होने के नाते वह एक नैतिक-विधान और आचार-संहिता की आवश्यकता अनुभव करता है। धर्म-धारणा से उक्त दोनों उद्देश्यों की आपूर्ति बिना किसी कठिनाई के पूरी होती रहती है।
प्रख्यात मनोवेत्ता-युँग ने धर्म-धारणा को उदात्त और सहानुभूतिपूर्ण बताया है और मनुष्य के लिए कल्याणकारी भी। उनके अनुसार फ्राइड ने धर्म के बारे में जो परिकल्पना की है वह इम्पीरियोजैनिक की अपेक्षा मेथोजैनिक अधिक है यानी आत्मिकी के अनुभव का आधार न होकर मात्र बौद्धिक विश्लेषण भर ही कही जायगी।
जर्मनी के मैक्समूलर ने भी फ्रायड की धर्म विषयक मान्यताओं का खण्डन करते हुए बताया है कि धर्म तो विकास को हमेशा से परिपुष्ट करता आया है। उनके मतानुसार प्रगति मार्ग पर अग्रसर होने को विकास कहते हैं। धर्म सदा से प्रगतिशील जीवन जीने की रीति-नीति पर जोर देता चला आया है। उसने विकास की कई मंजिलें पार करली हैं, मानव जीवन की प्रगति के इतिहास में धर्म का स्थान सर्वोपरि रहा है। मनुष्य का सही इतिहास तो धर्म का इतिहास ही है। इसलिए धर्म को विकास हीन जड़ तत्व मान बैठना ना समझी ही कही जायेगी। मनुष्य की धर्म विषयक मान्यताएँ लगभग एक जैसी ही रही हैं और भविष्य में भी रहेंगी। प्रारंभिक काल में जादू-टोने पर विश्वास करने वाले ‘फेटिसिज्म’ अर्थात्-भाग्यवाद लेकर बहुदेववाद और एकेश्वरवाद तक के धार्मिक इतिहास पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि धर्म विषयक धारणाएँ सदैव बदलती रही हैं। लोक मानस के अनुरूप धर्म के विकास का यह उपयुक्त समय है जिसमें हर वर्ग के लोगों को अपने देवी-देवता को पृथक् रूप से पूजने का अधिकार प्राप्त है। इस तरह की धार्मिक परम्परा को पाश्चात्य जगत में ‘होनोथेइज्म’ के नाम से जाना जाता है।
पाश्चात्य दार्शनिक हवाइटहेड ने अपनी पुस्तक “साइंस एण्ड द मॉडर्न वर्ल्ड” में लिखा है कि जब तक धर्म अपनी प्राचीनकाल की खोई गरिमा को पुनः प्राप्त नहीं कर लेता है तब तक उसको सार्वभौमिक स्तर प्राप्त नहीं हो सकता। सुप्रसिद्ध कवि टैनीसम ने भी अपनी रचना में यही प्रतिपादित किया है कि नैतिक एवं धार्मिक मूल्यों का अवमूल्यन करना नहीं, वरन् उन्हें सुविकसित करने का ही होना चाहिए।