सहस्र सा कर्मयत्

September 1992

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मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के परिवेश में ही वह व्यक्तित्व का विकास करता ओर जीवन के आवश्यक सरंजाम जुटाता है। जिस समाज पर उसका जीवन अवलम्बित है, वह समाज भी परस्पर स्नेह, सहयोग, सद्भावना और सहकारिता जैसे सद्गुणों पर आधारित है। सुव्यवस्थित समाज के मूल में इसी गुण को कार्यरत देखा जा सकता है। जहाँ लोगों में पन तो परस्पर सहयोग, स्नेह, न सद्भावना और न सद्विचार, वहाँ नित्य-प्रति कलह, ईर्ष्या-द्वेष , मारकाट, अशान्ति से भरा वातावरण होता है। ऐसे वातावरण में न तो जीवन की सुरक्षा हो पाती है और न विकास। उलटे व्यक्तित्व में अवाँछनीय तत्व प्रविष्ट होकर विकास की जड़ों को छिन्न-भिन्न कर देते हैं। इसके विपरीत सहयोग और सहकारिता भरे वातावरण में भय, आशंका, आतंक आदि के लिए स्थान ही नहीं बचता । सभी प्रसन्नता से रहित और निश्चितता से जीवन-यापन करते हुए प्रगति पथ आगे ही बढ़ते जाते हैं।

इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ सहयोग पूर्ण विकास क्रम के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। मानवीय-संस्कृति और सभ्यता को आदि कालीन पाषाण-युग से वर्तमान में उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचाने का श्रेय परस्पर सहकारिता और सौजन्यपूर्ण सद्व्यवहार को ही है। प्रस्तुत समाज-व्यवस्था, कल-कारखाने, शासनतंत्र, कृषि, व्यवसाय, वैज्ञानिक आविष्कार आदि सभी आद्यावधि उपलब्ध प्रगति-सम्पदा इसी के सुपरिणाम हैं।

इकॉलाजी की मान्यता है कि सृष्टि संतुलन पर टिकी है। परावलम्बन-इन्टरडिपेन्डेस, मर्यादा-निर्वाह-लिमिटेशन और सम्मिश्रता-काम्प्लैक्सिटी- इन तीनों आधारों पर प्रगति व्यवस्था टिकी है इस तरह समूचा संसार परस्पर विश्वास, आत्मीयता और सहयोग के सिद्धान्त का पालन कर ही जीवित है। जब बुद्धिहीन समझे जाने वाले क्षुद्र जीव-जन्तुओं को इन गुणों का अनुगमन करते पाया जाता है, तो फिर मनुष्य तो स्रष्टा का वरिष्ठ राजकुमार है। उसे पारस्परिक स्नेह-सद्भाव का सहयोग-सहकार कास बढ़−चढ़ कर उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। परस्पर मिलजुल कर रहने, खाने-खेलने प्रगति करने, ईर्ष्या-द्वेष न करने, किसी का भी बुरा न चाहने आदि विधि-निषेधों का पग-पग पर ऋषि-मनीषियों ने निर्देश दिया है। इस संदर्भ में शास्त्रवचनों की दूरदर्शिता तो देखते ही बनती है। ऋग्वेद 10/191/2-3 में उल्लेख है-

“संगच्छम्वं सं वदध्वं सं वो मनाँसि जानताम्। छेवा भागं यथापूर्वे सज्जनाना उपासते॥”

अर्थात्-हे मनुष्यों ! तुम मिलजुल कर रहो, मिलजुल कर वार्तालाप करो, तुम सब के मन में एक जैसे संकल्प-विकल्प हों। देवतागण इन्हीं गुणों के आधार पर पूजनीय और उपासनीय बने हुए हैं।

“समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सहचित्त मेषाम्। स्मानं मंत्रमभि मन्त्रये वः समानेन वोहविषाजुहोमि।

अर्थात्- तुम सब के विचार समान हों, तुम्हारी सभा एक हो। तुम्हारे अंतःकरण एक हों, सभी के चित्त एक जैसे हों। मैं (परमेश्वर) तुम्हारे लिए एक से मंत्र-वेदज्ञान तथा एक समान आवश्यक वस्तुयें प्रदान करता हूँ।

सहजीविता का यह सिद्धान्त पारस्परिक स्नेह सद्भावना पर ही आधारित है। ‘जियो और जीने दो’-उसका आदर्श है। श्रुतियाँ इसी का प्रतिपादन करती हुई कहती हैं-”सम्प्रच्यध्वमुप सम्प्रयात्।” अर्थात् हे मनुष्यों। सभी लोग मिलजुल कर-आत्मोत्कर्ष एवं सत्प्रयोजनों के लिए प्रस्थान करो, ‘सं जीवास्थ’- एक साथ जियो और “पुमान पुनागूँग सं परिपातु विश्वतः” अर्थात्- एक मनुष्य दूसरे मनुष्य की सब प्रकार से रक्षा करे।

उदारचेता महामानवों, संतों ने मानव उत्कर्ष के लिए स्नेह-सद्भाव को जीवन का अभिन्न अंग बताया है। उनके अनुसार सहयोग-सहकार के बिना मनुष्य एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता है। जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त उसे पारस्परिक सहकारिता की आवश्यकता पड़ती है। महान संत तिरुवल्लुवर ने अपने ग्रन्थ ‘तिरुक्कुल’ में कहा है- ‘स्नेह-सद्भाव के पथ में चलने वाला मनुष्य ही सजीव शरीर धारी है अन्यथा वह हाड़माँस वेष्टित सारहीन पदार्थ भर है।’ अपनी कृति “इन वुड्स आफ गॉड रियलाइजेशन” में स्वामी रामतीर्थ ने सहयोग-सहकार की इस भावना को ही प्रेम की सामान्य अभिव्यक्ति कहा है। संत तुकाराम कहते हैं-’आपस में हम लोग एक दूसरे की सहायता करें और सभी एक साथ सन्मार्ग पर चलें।

आत्मिक प्रगति और सामाजिक समृद्धि के मूल में कार्यरत इस सहयोग, स्नेह और सद्भावना को सर्वत्र देखा जा सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि विकास के इस मूल मंत्र को समझकर जीवन में सुख-सुविधा के साधनों से लेकर शान्ति और सुव्यवस्था का समावेश हो पाना इसी साधना द्वारा संभव हो सकेगा। सामाजिक उन्नति और प्रगति का लक्ष्य इन्हीं माध्यमों से प्राप्त हो सकेगा। इसी से धरती पर स्वर्गीय वातावरण का सृजन हो सकेगा।


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