संस्कारों का निरन्तर अजस प्रवाह

September 1992

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सिद्धान्त चाहे किसी भी क्षेत्र का हो, यदि उसे भली भाँति नहीं समझा गया तो उसे मानने का लाख साक्ष्य देने पर भी आचरण उससे विपरीत ही बना रहता है। पुनर्जन्म-सिद्धान्त के साथ भी ऐसा ही हुआ। उसकी वैज्ञानिकता को न समझने वालों ने जहाँ इस जीवन के भौतिक सुविधा-साधनों को ही पूरी तरह विगत जीवन का पुण्यफल मान लिया, वहीं इस पुण्य कर्म का अर्थ पूजा-पत्री के कर्मकाण्ड तक ही सीमित माना जाने लगा। परिणाम यह हुआ कि न तो व्यक्ति की आदर्श परायणता के प्रति कोई वास्तविक सम्मान बचा न ही पुरुषार्थ को प्रगति का आधार समझा गया। इसके स्थान पर भौतिक सुख-सुविधाएँ अपने पुरुषार्थ की तुलना में कहीं अधिक जुटा पाना या अनायास मिल जाना ही चारिऋयक सौभाग्य अथवा श्रेष्ठता का प्रमाण माना जाने लगा और इस श्रेष्ठता को उपलब्ध करने का आसान तरीका टंट-घंट औंधे-सीधे कृत्यों को समझा जाने लगा।

इसे विडम्बना ही कहनी चाहिए कि पुनर्जन्म का जो सिद्धान्त पुरुषार्थ और कर्म की महत्ता का प्रतिपादक था, जटिल से जटिल परिस्थिति को भी प्रारब्ध भोग मानकर धैर्यपूर्वक सहने और आगे उत्कर्ष हेतु पूर्ण निष्ठा और विश्वास के साथ प्रयासरत रहने की प्रेरणा देता था, वही निष्क्रियता और अंधनियतिवाद का भ्राँत मतवाद बन कर रह गया है।

“मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है” इस तथ्य को भुलाकर यह मनमर्जी करते हैं। इस संदर्भ में वे प्रायः यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि यदि उक्त कथन में सच्चाई नहीं होती तो वर्तमान में कितने ही सत्पुरुष असह्य दुःख भोगते नहीं देखे जाते, जबकि दूसरी ओर ऐसे उदाहरणों की भी कमी नहीं;

दुष्ट-दुराचारी मौज-मस्ती मनाते व सुख भोगते देखे जाते हैं। निस्संदेह ऐसे प्रतिमान देखे जा सकते हैं, पर इस संबंध में भगवान को दोषी ठहराने और अनैतिक कहने वालों के बारे में यही कहा जा सकता है कि उनने सारा निर्णय वर्तमान के आधार पर ही कर लिया, उनके पिछले जन्म पर विचार करने की कोशिश न की गई। यदि ऐसा होता, तो भगवान की नीतिमत्ता स्पष्ट उजागर हो जाती।

इन दिनों किसी भी व्यक्ति की अन्य कोई विशेषता न देखकर मात्र उसकी आर्थिक समृद्धि के आधार पर भाग्यवान और पुण्यात्मा मान लिया जाता है, अथवा आर्थिक विपन्नता देखकर अभागा और पिछले जन्म के पाप का फल भोगने वाला मान बैठा जाता है। इस प्रवृत्ति को पुण्यात्मा मान लिया जाता है, अथवा आर्थिक विपन्नता देखकर अभागा और पिछले जन्म के पाप का फल भोगने वाला मान बैठा जाता है। इस प्रवृत्ति को पुनर्जन्म पर आस्था का द्योतक नहीं, चिन्तन शक्ति एवं विवेक की दरिद्रता और व्यक्तित्व के उथलेपन का परिचायक मानना ही ठीक है। इस बौनेपन के कारण ही भाग्य को बदलने के लिए चमत्कारों का आश्रय खोजने में ही समय, श्रम एवं पुरुषार्थ खपाया जाता है।

पुनर्जन्म की वास्तविकता दार्शनिक मान्यता तो इससे भिन्न ही तथ्य एवं निष्कर्ष प्रस्तुत करती है। सफलताएँ-विफलताएँ व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व भर से संबंधित नहीं होतीं। सामाजिक परिस्थितियाँ और समाज की प्रचलित मान्यताएँ भी इसमें निर्णायक भूमिका निभाती हैं। आदर्शवादी समाज में चरित्रवान का सम्मान होता है, तो भ्रष्ट समाज उसे पिछड़ा मूर्ख समझता है। कभी अपने देश में तपस्वी विद्वानों का लोकमानस पर गहरा प्रभाव होता था। आज आर्थिक सम्पन्नता अन्य सभी सामर्थ्यों पर हावी है। पैसे वालों को बुद्धिजीवियों कलाकारों तक का सहयोग सरलता से मिल जाता है। कभी यही कला और विवेक धर्म के लिए समर्पित होता था।

अतः किसी व्यक्ति के पिछले जन्म की प्रवृत्तियों संस्कारों का लेखा-जोखा यदि करना ही हो, तो ऐसा उसकी वर्तमान प्रवृत्तियों के आधार पर किया जाना ही उचित है, न कि सफलता के आधार पर क्योंकि सफलता के बारे में नहीं हो सकता। भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद को कुछ अन्य उस दिशा में उन्हें विफल निरूपित करेंगे, किन्तु उनका जो भी आदर्श था, उसके प्रति वे निष्ठावान थे, यह सभी मानेंगे। इस प्रकार प्रवृत्तियों के मापदंड सर्वस्वीकृत हैं, जबकि उपलब्धियों के मापदंडों में भिन्नता है। अतः पिछले जन्म के पुण्य पाप को उपलब्धियों से नहीं प्रवृत्तियों से आँका जाना चाहिए।

यह मन, बुद्धि, अंतःकरण की प्रवृत्तियाँ और चेतना स्तर ही है, जो अगले जन्म में भी काम आता है। साधन सामग्रियाँ तो यहीं छूट जाती हैं।

दक्षिणी अफ्रीका में जोहान्सवर्ग शहर स्थित विट्टाटर स्ट्रैण्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आर्थर व्लेकस्ले द्वारा पुनर्जन्म च कर्मफल संबंधी शोध के दौरान अनेक विचित्र घटनाएँ प्रकाश में आयी हैं। प्रस्तुत घटना उन्हीं में से एक है।

उक्त शहर के एक दर्जी एडवर्ड माइकेल बार्वे एवं कैरोलिन फ्राँसिस के जोय बार्वे नामक एक संतान हुई। जब यह 13 वर्ष की हुई, तो अपने पूर्व जन्म की स्मृति के कारण कुछ ही समय में बहुचर्चित हो गई। एक बार वह अपने इतिहास प्राध्यापक के साथ जब क्रुगर हाउस नामक भवन देखने गयी, तो उसे देखते ही अचानक वह उस भवन से जुड़े प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों का रहस्योद्घाटन करने लगी, मानों उस समय वह उक्त घटनाओं की प्रत्यक्ष द्रष्टा रही हो। वहाँ से संबंधित उसने पाल नामक एक ऐसे व्यक्ति के बारे में बताया, जिसके संबंध में लोगों को कम ही विदित था। बाद में रिकार्डों को उलटने-पलटने से उसकी समस्त जानकारी सत्य साबित हुई।

उक्त बालिका का कहना था कि उसे अपने पिछले नौ जन्मों की स्मृति है। प्रथम जन्म के बारे में वह अक्सर कहती कि उसे इस संबंध में मात्र इतना ही याद है कि एकबार डायनोसौर नामक भीमकाय जन्तु ने उसका पीछा किया था और किसी प्रकार वह अपनी जान बचाने में सफल रही थी। यह पाषाण कालीन घटना है। दूसरे जन्म में वह एक दासी थी और मालिक द्वारा उसकी हत्या कर दी गई थी। उसका तीसरा जीवन भी दासी का था। चौथे जन्म में वह एक बुनकर के यहाँ रोम में पैदा हुई । उसे पाँचवाँ जीवन एक धर्मभीरु महिला के रूप में मिला। अपने छठे जन्म में वह पुनर्जागरण काल में इटली में पैदा हुई। 17वीं शताब्दी में गुडहोप के अन्तरीप में उसने सातवाँ जीवन धारण किया। उसका आठवाँ जन्म सन् 1883 में ट्रांसवाल गणराज्य में हुआ । वहाँ के राष्ट्रपति पाल के निवास भवन में उसका अक्सर आना जाना था। इसी से वह पाल के बारे में इतने तथ्यों की जानकारी रखती थी। उसका नवाँ जन्म वर्तमान जोय नामक बालिका के रूप में हुआ था।

जोय के समस्त जन्मों को मिला कर एक साथ रखा जाय और अध्ययन किया जाय ता ज्ञात होगा कि इन क्रमिक जन्मों में भी सातत्य का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त काम करता है और पिछले जन्म के अपरिपक्व संस्कार ही आगे के जीवन में और अधिक परिपक्व व प्रखर बनते देखे जाते हैं। यह क्रम जब तक जारी रहता है, जब तक जीव विकास की अपनी चरम अवस्था पर नहीं पहुँच जाता । महर्षि अरविंद की सहयोगिनी श्री माँ कहती थीं कि वह जब फ्राँस में मीरा रिचर्ड के रूप में थी, तो बाल्यावस्था से ही उन्हें दिव्य दर्शन होते थे, जो उनके पिछले जन्म के ही संस्कारों के परिणाम थे। श्री अरविंद के एक प्रमुख शिष्य अनिल वरण राय लिखते हैं कि किशोरावस्था में उन्हें एक बार श्री कृष्ण के विराट् रूप के दर्शन हुए थे। उस समय तक उन्होंने साधना आरंभ नहीं की थी । अतः यह पूर्व जन्म की ही साधना का फल है, यह बात स्वयं उन्होंने स्वीकारी है। आचार्य विनोबा कहा करते थे कि इससे पूर्व के जन्म में एक बंगाली परिवार में बंगाल में पैदा हुए थे। अपने सादा-सात्विक जीवन को वे इसी पिछले जन्म की कमाई मानते थे।

संस्कारों का यह अजस्र प्रवाह ही पुनर्जन्म सिद्धान्त का आधार है। भावसंवेदनाएं, आस्थाएँ, चिन्तन की दिशाएँ ही और स्वभाव ही अगले जन्म में संस्कार रूप में साथ रहते हैं। साधन-सामग्रियाँ नहीं। यही प्रवृत्तियां अपने अनुरूप साधन जुटाने का समर्थ आधार बन जाती हैं। व्यक्तित्व में ये विशेषताएँ न हुई, तो साधन- उपलब्धियों का विशाल भंडार खाली होते देर नहीं लगती।

यह सत्य है कि पुनर्जन्म सिद्धान्त में प्रारब्ध कर्म का अपना विशेष महत्व है। यही कारण है कि कई लोगों में जन्म से ही अनेक विलक्षण प्रतिभाएँ दिखाई पड़ने लगती हैं अथवा वे जीवन में लोक-प्रवाह से सर्वथा अप्रभावित रहते और अपनी प्रखरता से समाज को मोड़ते-मरोड़ते देखे जाते हैं। वस्तुतः यह किये गये अधूरे प्रयास-पुरुषार्थ का सफल, सत्परिणाम ही होता है।

यह जन्म-जन्मांतरों तक चलने वाली कर्मफल की इस व्यवस्था को समझा जा सके, तो पुनर्जन्म सिद्धान्त को समझने में तनिक भी कठिनाई नहीं होगी। इसे समझ कर ही जीवन की दिशाधारा निर्धारित करने और मोड़ने में सफलता मिल सकती है। अपने भीतर की दुर्बलताओं और विकृतियों को अपनी ही भूल के कारण चुभे काँटे समझकर धैर्यपूर्वक निकालने और घाव को भरने का प्रयास करना चाहिए। अपनी सत्प्रवृत्तियों को अमूल्य थाती समझ कर और अधिक विकसित करने की कोशिश करनी चाहिए। इस निमित्त किसी प्रकार के टंट-घंट में न उलझ कर सीधे-सच्चे मार्ग का अनुसरण करना ही विवेकशीलता है। विकास का सही और सुदृढ़ आधार तभी विनिर्मित हो सकता है। यही पुनर्जन्म सिद्धान्त की दार्शनिक पृष्ठभूमि और नैतिक प्रेरणा है।


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