दृष्टिकोण का परिष्कार

June 1986

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जैसा कुछ दीख पड़ता है या समझ में आता है वह सदा सही ही नहीं होता। उसमें कभी-कभी असाधारण भ्रान्तियों का भी समावेश होता है। पानी की लहरों पर अनेकों सूर्य या चन्द्रमा दीख पड़ते हैं। वस्तुतः उतने होते नहीं। दूरबीन से बहुत दूर की वस्तुएँ निकट दीखती हैं। रंगीन चश्मे में जिस रंग के काँच होते हैं उसी रंग में रंगे हुए सारे पदार्थ दीखते हैं। लहरदार काँच ऐसे भी आते हैं जिसमें अपना चेहरा असाधारण रूप से लम्बा या चौड़ा दीख पड़ता है। नशा पीकर उन्मत्त हुआ दुर्बल व्यक्ति भी अपने को पहलवान समझने और बड़े-बड़ों को पछाड़ देने की चुनौती देने लगता है। यह वस्तुस्थिति का गलत मूल्याँकन है। इसे दृष्टिकोण ही कहा जा सकता है।

शरीर पर रंगीन कपड़े पहन लेने या चेहरे पर मुखौटा बाँध लेने पर अपना स्वरूप दर्पण में भी विचित्र दीखने लगता है। पर वस्तुतः होता नहीं। विवेक बुद्धि अपनाने से ही यह जान पड़ता है कि दर्पण धोखा दे रहा है। मात्र आवरण को वस्तुस्थिति बता रहा है। रंगमंच पर सामान्य मनुष्य चित्र-विचित्र पोशाकें बदल-बदलकर आते रहते हैं। दर्शकों की आँखें धोखा खाती रहती हैं। कभी वही व्यक्ति ऋषि बन जाता है कभी राजा। कभी भिक्षुक बन जाता है कभी दानी। कभी पुरुष बन जाता है कभी नारी। विदूषक- बहरूपिये इस प्रकार की कला में और भी प्रवीण होते हैं।

इन प्रसंगों में दर्शक ही धोखा खाते हैं। जिसने आवरण पहने हैं वह स्वयं तो अपने को जैसा है वैसा ही समझता रहता है। वह दृष्टि दोष और यथार्थता के मध्य रहने वाले अन्तर को समझता रहता है। रामलीला में बने देवता या राक्षस अपने बारे में धोखा नहीं खाते। वे अपने को वही समझते रहते हैं जैसे कि वस्तुतः हैं। रावण के दस सिर भी नकली होते हैं और हनुमान की पूंछ भी। बच्चे ही इस विनोद में रस लेते हैं। समझदारों से वह बनावट छिपी नहीं रहती।

पर कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्य वस्तुतः धोखा खाता है। सिनेमा के पर्दे पर चलती-फिरती तस्वीरें वस्तुतः स्थिर होती हैं। रील की घुमाने वाली मशीन इस तेजी से घूमती है कि एक सेकेंड में 26 चित्र आँखों के आगे से गुजर जायं। बस चलता फिरता सिनेमा दीखता है। लाउडस्पीकर अलग से बोलता है पर प्रतीत ऐसा होता है कि पात्र के मुँह में से ही आवाज आ रही है। यह बेजान मशीन द्वारा जानदार आदमी को दिया हुआ धोखा है। जो वास्तविकता को जानते हैं वे भी दृश्यों से इतने प्रभावित होते हैं कि कभी हंसने लगते हैं कभी रोने। कभी बेचैन हो जाते और कभी सन्तोष की अनुभूति में तल्लीन रहते हैं।

हिप्नोटिज्म के खेलों में भी ऐसा ही होता है प्रभावित व्यक्ति कुछ का कुछ देखता और कुछ का कुछ अनुभव करता है। ऐसे ही एक जादू क्षेत्र के बीच फंसे हुए हम भी भूल भुलैयों में घूमते रहते हैं और तिलस्म जैसे सपने देखते हैं।

मेलों में मदारी पेट से बाँस और कागज का बना घोड़ा बाँध लेते हैं। अपना आधा धड़ उसके पेट में फँसा देते हैं। अपने पैरों नाचते कूदते हैं। दर्शकों को प्रतीत होता है कि वह व्यक्ति घोड़े पर चढ़ा सवारी का मजा ले रहा है किन्तु वास्तविकता दूसरी ही होती है। घोड़े की आकृति का लकड़ जंजाल उसके ऊपर लदा होता है। वह स्वयं अपने पैरों नाचता है साथ ही उस लकड़ जंजाल को भी उठाये-उठाये फिरता है। यह खेल तमाशा है। पर तब उसे बावला कहेंगे जब उस घोड़े का मोल भाव करने लगे या उसके सहारे लम्बी मंजिल आराम के साथ पार करने की बात सोचे।

हम सब ऐसे ही दृष्टिकोण में फंसे हैं। शरीर हमारे ऊपर एक लकड़ जंजाल की तरह लदा है और हम माया के दृष्टिकोण में बंधे हुए उसी को अपना वास्तविक रूप समझते हैं। उसकी मनःस्थिति ही हमें अपनी वास्तविक परिस्थितियां प्रतीत होती हैं।

मनुष्य चार मुट्ठी अन्न और छह गज कपड़े को लपेटे रहने का अधिकारी है। छह फुट की चारपाई और ओढ़ने-बिछाने का आच्छादन यही हम सबकी नियति है। इतना ही उपभोग हर किसी के लिए सम्भव है। सीमित आहार ही पचाने में हर किसी का पेट समर्थ है और नियत घण्टे ही नींद आती है। इस दृष्टि से सभी की स्थिति एक जैसी हुई। किन्तु देखते हैं कि कोई अपने को अमीर और गरीब मानता है और इसी आधार पर खिन्न रहता या इठलाता है। धनी के पास कितना ही वैभव क्यों न हो उसके उपयोग की सीमा निर्धारित है। उससे अधिक पर अधिकार जताया जा सकता है पर जमाया नहीं जा सकता है। जिस जमीन पर, जिस धन पर आज अपना अधिकार है। उस पर इससे पहले भी कितने ही अपना स्वामित्व बताते रहे हैं और हमारे न रहने के उपरान्त भी। कितने ही उसे अपनी कहते रहेंगे पर वस्तुस्थिति यह है कि सृष्टि के आरम्भ में जितना धन वैभव इस धरती पर था। उतना ही बना रहेगा। उस पर अधिकार जताने वाले ही बदलते रहे हैं यह हो सकता है कि कोई अपनी कुशलता का समावेश करके आकृति में हेर-फेर कर दे। स्वामित्व की मान्यता अवास्तविक है। पर किसी से इस तथ्य को स्वीकारने के लिए कहा जाय तो वह लड़ने मरने को उद्यत होगा।

शरीर पंचतत्वों के संयोग वियोग का जादू है। अभी शुक्राणु था, अभी भ्रूण बना, अभी शिशु का जन्म, अभी किशोर युवक , प्रौढ़ और वृद्ध बना और मरण के साथ ही इसी मिट्टी में मिल गया। अहन्ता जन्म से पूर्व भी हवा में थी और मरण के उपरान्त भी हवा में उड़ गई। किन्तु उस पर जिसका स्वामित्व था। वह अपने आप को ही भूला रहा और आवरण में इतना रम गया कि शिल्पी और उपकरण का मध्यवर्ती अन्तर तक समझ सकना कठिन हो गया। ‘अहम्’ कहने की अधिकारिणी आत्मा को अपनी सत्ता ही विस्मृत हो गई।

इन्द्रिय भोगों में अपने-अपने रसों का आस्वादन होता है पर मजा अपने ही पैसे से खरीदी हुई फुलझड़ी के जलने का है इसमें लाभ कहाँ? अपनी ही समर्थता को जताने भर का खेल है। होली जलते देखकर उछलने जैसा। कुत्ता सूखी हड्डी ले आता है चाबता है। जबड़े छिल जाते हैं। घाव से बहने वाले रक्त को चाटकर वह समझता है कि हड्डी का रसास्वादन हो रहा है। पर वस्तुतः वह अपने ही जबड़े का रक्त होता है। उसी के बारे में सूखी हड्डी से रस टपकने जैसी अनुभूति होती है। कामुकता के रसास्वादन में वह पाता कुछ नहीं, गिरह का गँवाता ही गँवाता है पर उसमें असाधारण रसानुभूति मानने वालों को क्या कहा जाय? जिह्वा और पदार्थ की अनुभूति ही स्वाद बनती है। वस्तुतः स्वाद कहीं कुछ है नहीं। यदि नीम कडुआ होता तो ऊँट को क्यों सुहाता। हमारे अपने स्राव और ताम्र ही जीभ के स्वाद बनकर लुभाते हैं। वस्तुतः बाह्य जगत में घास ही घास है। उसी का पशु पक्षी अपने ढंग से और मनुष्य अपने ढंग से स्वाद लेते हैं। आकाश में भ्रमण करने वाले ताप, ध्वनि और प्रकाश की तरंगें ही मस्तिष्क से, काय-कलेवर से टकराकर चित्र-विचित्र दृश्यों और अनुभवों का बोध कराती हैं। पर हेय है जो इस तिलस्म में अपना आपा खो बैठते हैं और तमाशे में इतने तन्मय हो जाते हैं कि अपने स्वरूप, गन्तव्य एवं उद्देश्य तक को स्मरण नहीं रख पाते।

जीवन की यथार्थता क्या है? एक अग्नि परीक्षा! एक धरोहर। एक अमूल्य अवसर जिसका यदि सही उपयोग बन पड़े तो उसका प्रतिफल ऐसा उभरे जिस पर इस जड़ जंजाल की सारी उपलब्धियों को निछावर किया जा सके। पर किया क्या जाय? कोई छलावा अमृत को छीनकर हमें चटपटी चटनी भर चखा जाता है और उस अलभ्य से वंचित कर जाता है जिसकी प्यास में जीव को मृग तृष्णा की भाँति, कस्तूरी के हिरन की भाँति जहाँ-तहाँ भटकना पड़ता है।

प्रदर्शन के लिए हम लालायित फिरते हैं पर जिन्हें दिखाना और जिनसे प्रशंसा करना चाहते हैं वे अपने कामों में इतने व्यस्त हैं कि अपने प्रयोजनों के अतिरिक्त किसी दूसरे की ओर देखने की फुरसत ही नहीं। देखते हैं तो तिरछी नजर से मन ही मन ढोंगी की उपाधि देकर मुस्करा भर देते हैं।

यश लूटने की ललक रहती तो है पर यह भूल जाते हैं कि शरीर के साथ ही वह दर्प ही तिरोहित हो जाता है। अगले जन्म में कोई राजा था, इस जन्म में रंक है। तो पिछली बार का यशस्वी होना आज हमारे क्या काम आ रहा है। आज हमारी विद्वान धनवान के रूप में ख्याति है पर अगले जन्म में गधा बनने पर वह ख्याति अपने किस काम आई। दूसरे कोई भले ही उस दिवंगत का ढोल पीटते रहें। धन बहुत कमाया था पर वह सब तो उत्तराधिकारियों के कब्जे में चला गया या दुर्व्यसनों में लुट गया। वह सम्पन्नता किस काम आई जिसके लिए जीवन भर कोल्हू में बैल की तरह पिलना पड़ा और कुकर्मों का बोझिल चट्टान सिर पर लादकर इतनी दूर जाना पड़ा जिसे ढोते-ढोते कचूमर ही निकल जाय।

यह सारी प्रवंचना क्या है? मात्र आत्म विस्मृति की विडंबना। अपने आप को भूलकर हम वह सब कुछ भूल जाते हैं जो हर घड़ी स्मरण रखा जाना चाहिए। साथ ही उस चिन्ता, आकांक्षा, अभिलाषा, वितृष्णा में डूबे रहते हैं जिसमें सार कुछ नहीं। बाजीगरी की खिलवाड़ भर है। हम बलिष्ठ, समर्थ, यशस्वी, सम्पन्न विद्वान बने तो ही वह दौड़ एक छोटी सीमा तक हो सकती है। इस संसार में इतने बड़े मगरमच्छ बैठे हैं जिनकी तुलना में हमारा, सम्पदा, विभूति, चतुरता और सफलता रत्ती के कण जितनी गिनी जा सकती है। फिर इस नक्कार खाने में तूती की आवाज कौन सुनने वाला है। अपने अहंकार का स्वयं ही परिपोषण करते रहा जा सकता है। दूसरों से इसकी आशा करनी हो तो उसे महंगे मोल पर नौकर ही रखना पड़ेगा।

हम काँच के बदले हीरा गंवाते हैं। शरीर को चटाने सजाने और बड़े बनने के लिए न जाने कैसा ताना-बाना बुनते रहते हैं जो प्रतीत तो कोई यक्ष गंधर्व स्तर की कलाकारिता प्रतीत होती है पर झाडू वाले की एक ही झड़प में उस अहंता को बटोर लेती है जो कभी सोने के पर्वत जैसी सुहावनी लगती थी।

मूर्खता को रचने कहने, सुनने और विचारने की अपेक्षा यह क्या बुरा है कि हम अपने को- अपने आत्मिक स्तर को समझें और जो करें उसके लिए करें। शरीर के लिए जितना करना पड़ता है इससे सौ गुने कम प्रयत्न परिश्रम में इतना पाया जा सकता है जो बाल-विनोद की तुलना में सहस्र गुना अधिक महत्वपूर्ण, मूल्यवान और चिरस्थायी कहा जा सके।

स्वाद वैभव ओर दर्प तुलना में पुण्य परमार्थ का मार्ग इतना सरल और श्रेयस्कर है कि उसकी उपलब्धि न सही, कल्पना भर से ही आत्म-सन्तोष, एवं आनन्द उल्लास में निमग्न रहा जा सकता है। उपास्य देवता है प्रेत पिशाच नहीं। हमें आत्म-कल्याण के लिए सोचना और करना चाहिए। उस शरीर के लिए जो मल मूत्र की गठरी की तरह हमारे सिर पर लदी है और जिसका स्थायित्व का तनिक भी भरोसा नहीं। अमर आत्मा को परमात्मा स्तर तक बैठा ले जाने में पुरुषार्थ है उसमें नहीं जिसे करते हुए हर समय डरना और डराना पड़ता है। जलना और जलाना पड़ता है।

आत्मा को देखें, समझें और उसी को प्राप्त करें। क्योंकि वही हमारा सच्चा साथी और शुभ चिन्तक है। आत्मा की प्राप्ति सरल है अन्तर में पवित्रता और बहिरंग में परमार्थ परायणता का समावेश कठिन इसलिए लगता है क्योंकि जरूरी है कि उसका हम अभ्यास करें, ऐसी रीति-नीति अपनायें जिसे महामानव ऋषि और देवात्मा भी पाते रहे। उस मार्ग पर न चलें जो कटीली झाड़ियों में उलझता और खाई खंदकों में धकेलता चलता है।


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