आत्मोत्कर्ष के चार साधन....

June 1986

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शरीर की देखभाल स्वयं करनी होती है। बीमार पड़ने पर उपचार के लिए ही चिकित्सक का परामर्श लेना पड़ता है। संयम बरतने की साधना का सीधा सम्बन्ध अपनी ही विवेक बुद्धि से है। दिनचर्या बनाने में दूसरों का परामर्श क्या काम देगा। अपनी परिस्थितियों का अपने को ही ज्ञान रहता है। नित्य कर्मों में यत्किंचित् सहायता ही दूसरा कर सकता है, पर उन कार्यों से निपटना तो स्वयं ही पड़ता है। विद्याध्ययन, कसरत, भोजन, शयन के लिए उपयुक्त सुविधाएँ जुटाना भी अपना निज का ही काम है। पैसा कहाँ खर्चना, समय को किसके साथ बिताना, कितने के साथ मधुर सम्बन्ध बनाना यह सब काम अपने निज के करने के ही हैं और उनके लिए अपना ही शरीर काम देता है। अपने ही बुद्धिबल के सहारे गाड़ी आगे चलती है।

यही बात आन्तरिक सुव्यवस्था और आत्मिक प्रगति के सम्बन्ध में भी है। दूसरों से परामर्श लिया जा सकता है। मार्गदर्शन तो प्रभावशाली व्यक्ति और अनुभव पूर्ण साहित्य के आधार पर भी चलता रह सकता है। किन्तु यह आशा नहीं करनी चाहिए कि अपने बदले के काम कोई और कर देगा।

भगवान से, देवता से प्रार्थना मनुहार करते रहना कि हमारे साँसारिक कार्यों को वे ही करके रखवाया करें और आत्मिक प्रगति का उद्देश्य भी वे अपने ही अनुग्रह से पूरा कर दें तो यह आशा दुराशा मात्र है। बिजली का करेंट प्रचण्ड होता है पर लकड़ी के , रबड़ के ऊपर इन्सुलेशन के कारण उसका भी कुछ असर नहीं होता। रक्त के विकृत हो जाने पर, कुष्ठ रोग पर अच्छी मरहम भी काम नहीं देती। चट्टानों पर वर्षा का पानी भी नहीं ठहरता। दुकानदार बिना ग्राहक के लाभ नहीं उठा सकता, इसलिए अपना पक्ष पूरा करने की शर्त ऐसी है जिसका कोई विकल्प नहीं।

जिस प्रकार बाह्य जीवन को अस्त-व्यस्त बनाना या सुधार लेना अपनी क्रिया पद्घति के ऊपर निर्भर है, कोई चाहे तो हर काम में अस्त-व्यस्तता बरत कर शरीर का सत्यानाश भी कर सकता है और उसे बलिष्ठ परिपुष्ट भी बना सकता है, ठीक उसी प्रकार आत्मिक क्षेत्र के उत्थान पतन के लिए भी कुछ आवश्यक अनुशासन बरतना पड़ता है। उससे अपरिचित रहा जाय, या जानबूझकर उपेक्षा बरती जाय तो इच्छा रहते हुए भी बात बनेगी नहीं, वरन् बिगड़ती ही चली जायगी। सफलताएं आसमान से नहीं बरसतीं उन्हें मनुष्य अपने निजी प्रयास पुरुषार्थ के बलबूते ही अर्जित करता है। परावलम्बन तो बच्चों का अभिभावकों के ऊपर चल सकता है। समर्थों को अपने दायित्व स्वयं ही वहन करने पड़ते हैं।

आहार-विहार, परिश्रम और मनोबल पर शारीरिक स्वास्थ्य निर्भर है। इसी प्रकार आत्मिक उत्कर्ष के लिए भी चार कृत्य ऐसे हैं, जिनका नित्य नियमित रूप से पालन करना पड़ता है। उनके प्रतिफल पर श्रद्धा रहनी चाहिए और उन कृत्यों को आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी समझना चाहिए।

यह चार कृत्य हैं (1) आत्म निरीक्षण (2) आत्म सुधार (3) आत्म निर्माण (4) आत्म विकास। इस संबंध में मानसिक रूप रेखा बनाने के लिए एकाग्रता आवश्यक है। यह निरीक्षण निर्धारण एकान्त में अधिक अच्छी तरह बन पड़ते हैं। किन्तु उन्हें क्रियान्वित करने के लिए उठने से लेकर सोने तक सतर्कता करनी पड़ती है। भूल सुधार एवं अभिनव कार्यान्वयन का कार्य चालू रखना पड़ता है। उसमें आलस्य प्रमाद, उपेक्षा एवं ढील पोल बरतने से बात मखौल जैसी बन जाती है।

चूंकि यह योजना निर्माण प्रक्रिया है। निरीक्षण परीक्षण और निर्धारण भी है। इसलिए इस हेतु किन्हीं उपकरणों को जमा करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। डायरी पेन्सिल भर पर्याप्त है। समय भले ही पन्द्रह मिनट का लगाया जाय, पर वह होना ऐसा चाहिए जिसमें दूसरे आकर विघ्न न डालें। सुविधानुसार समय को आगे-पीछे भी किया जा सकता है, पर उसमें नियमितता अवश्य रहनी चाहिए ताकि उस कृत्य को दिनचर्या में सम्मिलित रखे रहने की आदत पड़ जाय।

आत्म निरीक्षण से तात्पर्य यह है कि अपने भीतर जमी हुई दुष्प्रवृत्तियों का एकबार नये सिरे से पर्यवेक्षण किया जाय और उनके कारण अगले दिनों होने वाली हानियों पर विचार किया जाय। इसके साथ ही पिछले दिनों की अपेक्षा जो सत्प्रवृत्तियों बढ़ी हैं। उन पर भी दृष्टिपात करना चाहिए। व्यापारी जिस प्रकार घाटे की मद्दों को बन्द करता चलता है और लाभ के जो प्रयास है उन्हें बढ़ाता चलता है उसी प्रकार की दृष्टि निर्धारित समय के चौथाई भाग में पूरी कर लेनी चाहिए।

निरीक्षण पर्यवेक्षण का उद्देश्य केवल भली-बुरी स्थिति का निरीक्षण पर्यवेक्षण है। इसके बाद यह सोचना पड़ता है कि गलतियों को कैसे सुधारा जाय। जो अनुपयुक्त हैं उसे हटाने छोड़ने और दबोचने के लिए किस प्रकार की रीति-नीति अपनाई जाय। यह कपड़ा धोने बुहारी लगाने स्नान करने जैसी प्रक्रिया है। शरीर में खोट कम होने पर भी कई बार विचार क्षेत्रों में ढेरों गन्दगी भरी रहती हैं स्वभाव में अनेक बुरी आदतें जड़ जमायें होती हैं। उनका हटाया जाना उसी प्रकार आवश्यक है जैसे कि रोगों के उपचार में तत्परता बरती जाती है। उपेक्षा करने पर छोटे रोग ही प्राण घातक बन जाते हैं। इसलिए उन्हें सहन करते रहने, चलते रहने, देने की उपेक्षा बुद्धि भयंकर रोग ला खड़े करती है और प्राण संकट की सीमा तक जा पहुँचती है। इसलिए निरीक्षण परीक्षण के साथ-साथ सुधार पक्ष का भी नियोजन करना चाहिए। दोनों ही कार्यों को एक ही बात के दो अंग समझना चाहिए। उन्हें निदान और उपचार की समन्वित संज्ञा देनी चाहिए।

दूसरा भाग है निर्माण और विकास। इन दोनों का भी एक युग्म है। बहुत ही सत् प्रवृत्तियों ऐसी हैं जिनके न कभी मन में इच्छा उत्पन्न हुई न योजना बनी न चेष्टा की गई। जैसा कुछ ढर्रा चल रहा है उसी को पर्याप्त माना गया। इस मनःस्थिति में प्रगति की दिशा में कदम नहीं बढ़ता। ऐसी नई योग्यताएँ हस्तगत नहीं होतीं जो उत्थान के लिए आवश्यक हैं। बाजार में मूल्य तो वस्तु का ही मिलता है। यदि पेट भरने जितने गुण हैं तो उसी स्थिति में मृत्यु पर्यन्त पड़ा रहना पड़ेगा। यदि ऊँचा उठना और आगे बढ़ना है तो आवश्यकता इस बात की होगी कि नई योजनाएँ, विशेषताएँ प्राप्त की जाय इसलिए नये सिरे से शुभारम्भ करना और कार्यक्रम बनाना होगा।

स्मरण रखे जाने योग्य बात यह है कि यदि साँसारिक उन्नति करनी है तो उस क्षेत्र की योग्यता एवं कुशलता बढ़ानी होगी। अपने गुण, कर्म, स्वभाव को ऐसा बनाना होगा जिससे संपर्क क्षेत्र पर अपनी प्रामाणिकता, सज्जनता और कुशलता की छाप पड़ सके। इन विशेषताओं को बढ़ाने के लिए बहुमुखी प्रयास करने पड़ते हैं और अनेकानेक सुयोग्यों के साथ अपना संपर्क बनाना होता है। इस कार्य को योजनाबद्ध रीति से करने पर “निर्माण” का उद्देश्य पूरा होता है।

आत्म विकास का तात्पर्य है स्वार्थ को परमार्थ में बदल देना। आत्म सन्तोष, लोक सम्मान और ईश्वरीय अनुग्रह इसी आधार पर बन पड़ता है, लिप्साओं, लालसाओं, तृष्णाओं पर जो जितना अंकुश लगा सकता है, वह उतना ही ब्राह्मी चेतना की ओर उन्मुख होता है। लालची स्वार्थ और अहंकारी व्यक्ति पूजा पाठ के बहाने किसी देवता का अनुग्रह प्राप्त कर सके या आत्म कल्याण का लक्ष्य प्राप्त कर सके, यह असम्भव है। आत्म विकास के लिए अपनी दुर्बलताओं और लौकिक आकर्षणों से अपना बचाव करना पड़ता है। उन्हीं तत्परताओं के सहारे ही व्यक्ति समुन्नत होता और लक्ष्य तक पहुँचता है।


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