बुद्ध के सामने भी स्त्री बच्चों की जिम्मेदारी थी। पर उसमें बिना व्यवधान प्रस्तुत किये उनने युग धर्म को अधिक महत्व दिया और परिवार के सहमत न होने पर भी समय की विभीषिकाओं से जूझने के लिये चले गये। यदि ऐसा न करते तो उन्हें भी अन्य व्यामोहग्रस्तों की तरह पेट प्रजनन की सीमा में अवरुद्ध रहकर ही जीवन गुजारना पड़ता।
बुद्ध ने अपने ही मार्ग पर शिष्यों को भी चलाया। घर के लोगों ने खुशी-खुशी कदाचित ही उनका परिव्राजक शिष्य बनने दिया हो। उनमें से प्रत्येक को कुटुम्बियों की असहमति का उल्लंघन करना पड़ा। गाँधी ने अपनी वकालत छोड़ी और नेहरू, पटेल, राजेन्द्रबाबू, राजा गोपालाचार्य जैसे अनेकों को छुड़ाकर अपनी राह पर घसीटा। व्यामोह के वातावरण में आदर्शों के मार्ग पर चलने ओर त्याग का मार्ग अपनाने में सहमति प्रदान करने की किसी भी महामानव ने आशा अपेक्षा नहीं की। इस कारण किसी के चरण रुके भी नहीं।